एक वली अल्लाह की मकबूलियत

0
292

बसरा शहर का एक सरदार हमेशा उदास और गमगीन रहा करता था, किसी ने उससे पूछा कि आखिर इस परेशानी का सबब क्या है? इस पर सरदार ने कहा कि बात कहने की नहीं थी मगर कह रहा हूं, मुझ से एक वली अल्लाह (बुजुर्ग, नेक) की शान में कुछ बेअदबी हो गई है इसलिये डरता हूं कि कयामत के दिन उसके बदले में पकड न लिया जाऊं।
वाकिया यह पेश आया कि मैं एक बार खाना-ए-काबा की जियारत को चला और सब जान-पहचान वाले और रिश्तेदार वगैरह भेजने के लिए आये दस्तूर के मुताबिक मैंने सबको कुछ दूर चलने के बाद लौटा दिया, मगर एक शख्स जो मेरे खास लोगों में से था वापस न हुआ और उसने मेरा पीछा न छोडा, मजबूर होकर मैंने उसे झिडक दिया कि बैतुल्लाह को जाना भी कोई आसान काम समझा है जो पैदल चलने को तैयार हो गया है। मेरे साथ न आ, और जिस राह तेरा जी चाहे चला जा।
कहने लगा, ऐ मालिक! क्या खुदा इस बात पर कुदरत नहीं रखता है कि तुमको रास्ते का सफर खर्च (जादे राह) की वजह से तुमको पहुंचा दे और मुझ को बगैर किसी जादे सफर (सफर खर्च) और बे यार व मददगार के?
यह कह कर और बगैर किसी सफर खर्च के उसने अपनी राह ली और मैं अपने रास्ते चलता बना, रास्ते भर वह कहीं मुझे नजर नहीं आया, खुदा जाने कहां गायब हो गया।
जब खुदा के फज्ल व करम और उसकी मेहरबानी से हज से फारिग होकर मैं मदीना शरीफ को चला तो क्या देखता हूं कि जैद आ गया, और ’’अस्सलामु अलैकुम‘‘ कह कर मेरे पास बैठ गया। मैंने हैरत से पूछा कि हज कर आया? तो उसने कहा, हां। फिर मैंने मजाक में पूछा कि हज की सनद भी मिली है? तो उसने कहा कि कैसी सनद! वह किस काम आती है? मैंने कहा हज रकने वाले का ेबैतुल्लहा से गैब से एक चिट्ठी मिलती है जिसमें लिखा होता है कि फलाने का फलाना बेटा हज करने आया था और उसका हज कुबूल हो गया। फिर उस सनद के जरिये कब्र और हश्र के अजाब से निजात मिलती है, यह सुन कर जैद रोता चिल्लाता हुआ बैतुल्लाह (खाना-ए-काबा) वापस चला गया।
जब मैं हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की जियारत से फारिग होकर वापस लौटा तो क्या देखता हूं जैद फिर आ गया और सलाम करने के बाद एक चिट्ठी मेरे सामने रख दी जो एक निहायत खूबसूरत रेशमी कपडे में सब्ज खत से जैद के कब्र के अजाब और हश्र से निजात के लिए लिखी थी। यह देख कर मेरे होश उड गये, फिर थोडा सुकून व इतमिनान होने पर मैंने मालूम किया कि ऐ जैद मुझे इसकी हकीकत से आगाह कर आखिर यह दौलत तुझको किस तरह मिली?
तब जैद ने उसको बताया कि सुनो भाई, जब मैं बैतुल्लाह (खाना-ए-काबा) पहुंचा तो, उस वक्त हाजियों से बिलकुल खाली था, उस वक्त मैंने रोना-चिल्लाना शुरू किया कि ऐ दोनों जहानों के मालिक! क्या गरीब गुनाहगार का हज काबिले कुबूल नहीं जो मुझको सनद नहीं मिली। क्या गरीबों का काबा और उसका मालिक कोई दूसरा है जो वहां जाकर सनद लाऊं। मुझको तेरे इज्जत व जलाल की कसम जब तक चिट्ठी न पाऊंगा बाहर न जांऊगा और रोते-रोते यहीं मर जांऊगा। अचानक गैब से आवाज आई, कि ऐ जैद! निजात की चिट्ठी ले और अपनी राह ले, फिर यह चिट्ठी मेरे हाथ में आ गई जिस को लेकर मैं चला आया।
यह सुन कर मेरे हैरत व ताअज्जुब की केाई हद न रही कि अल्लाह, अल्लाह! इस शख्स का इतना बुलंद दर्जा है जिससे मैं आज तक वाकिफ न था, निहायत इज्जत के साथ उसके मैं अपने साथ बसरा शहर तक ले आया और वह चिट्ठी निहायत अदब के साथ खुश्बू में तर करके एक सन्दूक में बन्द कर दी, जब कभी जी चाहता उसको निकाल कर देख लेता, चूमता और आंखों से लगाता था और फिर हिफाजत से उसको रख देता था।
एक बार मैं कहीं सफर में था कि मेरे पीछे जैद का इंतकाल हो गया, जब मैं वापस हुआ तो यह खबर सुन कर बडा अफसोस हुआ कि ऐसे बुजुर्ग और वली के जनाजा में मैं शरीक न हो सका, फिर अचानक मुझे उस चिट्ठी की याद आई जो मेरे संदूक में रखी हुई थी। अब तो मैं और भी बेताब हो गया और अपने ऊपर अफसोस करने लगा कि सफर को जाते वक्त मैंने वह चिट्ठी जैद को क्यों न दी। फिर मैंने अपना ताला लगा हुआ संदूक मंगाया जो उसी तरह मुहर बंद था। जब मैंने खोला तो उसमें चिट्ठी न पाई।
अब तो मेरे रंज व गम का कुछ ठिकाना न रहा और एक हश्र का आलम बर्पा हो गया, बुरी तरह रोने लगा और रोते-रोते सो गया, तो क्या देखता हूं कि सजी हुई जन्नत में जैद सिर पर ताज रखे हुये बेहतरीन लिबास पहने हुये हीरे-जवाहर के तख्त पर बैठा हुआ है और उसके चारों तरफ हूरों का जमघट है, मैंने करीब जाकर सलाम किया तो उसने कहा ऐ आका! आप इतना परेशान क्यों हैं? मैंने कहा कि मुझे याद नहीं रहा कि वह चिट्ठी तुम्हें दे देता, उसने कहा वह तो यहा मौजूद है और इसी की वजह से यह इज्जत व मुकाम मुझको मिला, अब आप कुछ फिक्र न करें, मेरी ख्वाहिश व तमन्ना पूरी हो गई और अपनी मुराद को पहुंच गया।
(हिकायतुस्सालिहीन)