इमरोज़ और अमृता

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पंजाबी की सबसे लोकप्रिय महिला लेखक कहलाने वाली अमृता प्रीतम किसी भाषा तक सीमित नहीं रहीं। हिन्दी, उर्दू के तमाम पाठकों ने उन्हें अपनी ही भाषा में अपनाया। अमृता नश्वर देह में होतीं तो 31 अगस्त को 100 साल की पूरी हो जातीं। अपनी रचनाओं में तो अभी भी उतनी ही जवान और क्रांतिकारी हैं, जितनी अपनी जवनी में रही होंगी। अपने समय से काफी पहले जन्मी विद्रोही शख्सियत का ठेठ पारंपरिक समाज में अपनी तरह जीना खुद में किसी क्रांतिकारी उपन्यास से कम नहीं रहा। अमृता की याद में जश्न तो ज्यादा नहीं हुए, पर सोशल मीडिया में उनके प्रेम को लेकर खूब लिखा-पढा गया। अमृता जहां हैं, वहां साहिर खुद-ब-खुद खिंचें आते हैं। इमरोज भी कहां छूटते।
बेमिसाल अमृता की लेखनी की बजाए लोगों ने उनको वही इमरोज-साहिर के भरोसे याद किया। ये जो याद करने वालों की भीड़ है, इन्हें इमरोज-साहिर या अमृता नहीं मिली, इसका मलाल ज्यादा लगा। ये खुद तो अमृता बनने में डरती रहीं। अमृता होना कोई फितूर नहीं होता। यह जिद होती है। दीवानगी। मर मिटने का जुनून। छोटी उम्र में पारंपरिक तौर पर ब्याह दी गयी अमृता बच्चे जनने के बावजूद ठहरी नहीं। उन्होंने किसी सहारे का इंतजार नहीं किया। छोटे-छोटे बाल कटा कर धार्मिक मान्यताओं को चुनौती दी। पति का घर छोडऩे का निर्णय उस वक्त लेना इतना आसान ना था। सुख की रोटी छोड़ कर दर-दर भटकने के लिए बड़ा साहस चाहिए। यह गणित का उलझा हुआ कोई फामरूला नहीं था, जिसे समझने के लिए बुद्धि लगानी पड़े। रसीदी टिकट की भूमिका में अमृता का लिखना- मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास सब नाजायज बच्चे की तरह है। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएं पैदा हुई। नाजायज बच्चे की किस्मत, इनकी किस्मत है। सोच की गहराई, भावनाओं को परोसने का सलीका और दर्द का लहजा, जितना क्रांतिकारी है, उतना ही दिल को चीरने वाली भी है।
अमृता प्रीतम किसी शख्सियत का नाम भर नहीं हो सकता। अमृता अदा थी। सलीका व मिसाल सी। औरतों को नयी राह दिखाने वाली प्रदर्शक भी। बिना किसी एलान के उन्होंने वह जी कर दिखाया, जिसे अपने उपन्यासों, कहानियों, फिल्मों के चरित्रों या गीतों व शेरों में निरी फंतासी के साथ संकोचवश परोसने की कोशिशें की जा रही थीं। जहां भी आजाद रूह की झलक पड़े, समझ लेना मेरा घर वहीं है, उनकी कविता की पंग्ति नहीं, उनके वजूद का जर्रा है। नाजायज बच्चों सी रचनाएं और जायज होने की कशिश से दूर रिश्ते अमृता की पहचान हैं। वह पहचान जिसकी खलिश ज्यों की त्यों है। आज भी जिसे पढ/सुन कर बारिश की पहली बूंदों सी सोंधी महक भीतर तक भर जाती है। Ó
66 में इमरोज के साथ रहने का फैसला किस कदर दुस्साहसिक रहा होगा, सोचा जा सकता है। क्रांति का वह बीज, जिसे पनपाने में पीढियां बुढा गयीं। खुलेआम प्रेम का इजहार और ऐलानिया तौर पर कहना- साहिर मेरी जिन्दगी का आसमान हैं और इमरोज मेरे घर की छत, आसान है क्या। साहिर के प्यार को भुलाना लाजमी ना रहा हो पर इमरोज का साथ तो डंके की चोट पर था। जिन्दगी में घुटन, चिल्ल-पों, बंदिशों को लादे फिरने वाले जब अमृता के प्रेम से रश्क खाते हैं, तो मसखरी सी लगती है। प्यार बन्धन नहीं है। उसे रिश्तों में भींचने वालों को समझाना नामुमकिन है। ये जो साहिरों का नाम जपती लेखिकाएं, कवि व साहित्यकार हैं ना, इनके भीतर कहीं दबी-कुचली सी उम्मीदें हैं। हाये साहिर, हम ना हुए, टाइप का स्यापा।
साहिर गजब के नगमानिगार थे। अपनी दुनिया में रहने वाले। उस जमाने में भी उनकी तूती बोलती थी। साहिरों को खोजा नहीं जा सकता है। जैसे अमृता बना नहीं जाता। साहिर होना, मुश्किल नहीं नामुमकिन है। अमृता अपने साहिर को मेरे खुदा, मेरे देवता जैसे अलंकारों से पुकारती रहीं, वह भी दब-छिप कर नहीं। कुछ प्रेम रूमानी होते हैं। महज प्रेमी ही समझ सकते हैं। ये जो पारंपरिक पोशे में सजी स्त्रियां साहिरों के नाम की अर्जियां लगा रहीं थीं, उन्हें इस रूहानियत का जरा अंदाजा नहीं हो सकता। अपनी सीमित समझ में उन्हें साहिर की ब्याहता होना ही बेहतरीन लगता है। उन्हें अंदाजा ही नहीं, साहिरों की बीवियां सबसे त्रस्त जनानियां होती हैं।
इमरोज की खोज में भटकने वालों की समझ पर भी पत्थर ही पह़े समझो। इमरोज कहीं बाजार में सुलभ नहीं होते। करोड़ों में कोई अनूठा इनदरजीत ही उभर कर सामने आता है। जिसे ना दुनिया की फिक्र, ना पिंड की, ना ही खानदान की। इमरोज स्वीकरते हैं, उन्हें लभगभ गांव निकाला दिया गया था। परिवार चाहता ही नहीं था कि वे गांव को लौटें। दो बच्चों की मां के साथ रहने वाले इमरोज ने अपना समूचा वजूद ही अमृता को सौंप दिया था। उन्हें तसल्ली थी कि वे अमृता के ड्राइवर के तौर पर हर जलसे के बाद पुकारे जाते थे। वे कलाकार थे, पेंटर। जिसे सिवा अमृता के कुछ सूझता ही नहीं। जो स्टूडियो/ रेडियो स्टेशन की रिकार्डिग में गई अमृता का बाहर किसी पार्क या फुटपाथ के किनारे बैठा गरम दुपहरियों में सहज ही लू के चपेटे खा रहा होता।
इमरोज ने बताया, प्रीतम के दोनों बच्चों को डीटीसी बस से स्कूल लेने/छोडऩे जाने का जिम्मा उनका था। ये बच्चे शुरुआत में उनसे नाखुश थे। सीधे बात नहीं करते थे। बेटा तो नफरत भरी नजरों से ही देखता था। बेगैरती के ताने सुन कर, झिड़कियों की अनदेखी कर वे अपने तई प्रेम लुटाते रहे। वह सेकेंड हैंड स्कूटर, जो अमृता ने उन्हें जबरन खरीदवाया था, बाद में बच्चों को लाने-ले जाने का बेहतर साधन बना। तब तक बच्चों के दिल में उनकी जगह गहरे तक बन चुकी थी। रिश्तों के कोष्ठकों में जीन वाली मानसिकता इस खिलंदडई व उन्मुक्तता को कभी पचा ही नहीं सकती। बेनामी पर दिलकश रिश्ता। सलवटों की जिसमें कोई जगह नहीं। जिसकी गहराई अनन्त है। जो सिर्फ और सिर्फ अहसासात से जुड़ा रहा। जिस पर रश्क ही किया जा सकता है। अमृता प्रीतम से मेरी मुलाकातें बेहद औपचारिक व झिझक भरी रहीं। उनके व्यक्तित्व का रौब उनके आगे चलता था। हौले से बोलती कमजोर होती अमृता। मगर जहे-नसीब, इमरोज से बेहद अनौपचारिक व लंबी मुलाकातों ने मुझे उनका मुरीद बना दिया। सहज, सरल, कोमलता और प्रेम का जीता-जागता सैलाब लगे। उनमें प्यार दमक रहा था। उनकी आंखें प्रेम में नम और अमृता की गैरमौजूदगी से द्रवित थीं। हालांकि उन्होंने मुझे पूरे घर में जगह-जगह बिठाया। हर वह जगह, जहां अमृता की महक थी, उनकी चश्में के भीतर से झांकती उनकी आंखों में चमक ला देती थी।
बीबी का बिना बोले दो बार चाय पिलाना और इमरोज की भावनाओं को ताकना आज भी मुझे ज्यों का त्यों याद है। थोड़े संकोच के साथ इमरोज का स्वीकारना कि वे कभी नहीं मानते कि अमृता का वजूद वहां नहीं है। उन्होंने कहा, वह है। यहां, वहां, हर जगह। मेरे आंसुओं को लाने के लिए काफी था। उस लंबी मुलाकात को मैंने वेलेंटाइन डे पर भावनापूर्वक लिखा। जिसमें इमरोज के भावप्रवणता, उनका असीम रूमानी प्रेम और आसक्ति थी। मैंने उन्हें हमारा वेलेंटाइन बाबा संबोधित किया था। उसे सुन कर वे फोन पर मौन रह गये थे। भावविभोर होंगे शायद। ऐसा मैंने अंदाजा लगाया। मगर उसी दोपहर मटुकनाथ की दीवानी शोथार्थी के रूप में बेतहाशा पॉपुलर हुई जूली का तमतमाता फोन आया। दोनों मेरे पर फायर थे। उनका दावा था, देश के वेलेंटाइन तो ये खुद हैं। मैंने इमरोज को यह औहदा किस हैसियत से दे दिया। कुछ देर उन्हें समझाने के बाद मैंने उनका दावा नकारते हुए, उन्हें अपना प्रेम स्कूल बेहतर ढंग से चलाने की नसीहत के साथ फोन काट दिया। सुनने में आया प्यार के उस स्कूल की दीवारें ढहरा चुकी हैं। छात्रों के टोटे हैं। पर इमरोज-अमृता आज भी दमक रहे हैं, बिना किसी चोंचले के।