हज़रत ख़्वाजा हबीब अजमी रहमतुल्लाह अलैह

0
231

आप बहुत मालदार थे। सूद का लेन देन करते थे और बड़ी सख्ती से वसूल करते थे। हत्ताकि हरजाना भी वसूल कर लेते थे। एक बार जो तक़ाजे़ को गये तो मक़रूज नहीं मिला। उसकी औरत ने कहा, इस वक्त तो कुछ भी नहीं सिर्फ बकरी की गर्दन बची हुई पड़ी है। कहा वही दे दो। ले कर आ गये। बीवी को दी कि पकाओ। जब पक गई तो एक साएल ने सवाल किया। उसे झिड़क दिया। जब खाने के लिए गोश्त रकाबी में निकाला तो सब खून ही खून था।
आपने देखा तो तमाम बातों से तायब हुए- दूसरे दिन लोगों से अपना रूपया वापस लेने गये कि अब सूद का कारोबार नहीं करेंगे। जुमे का दिन था, बच्चे खेल रहे थे। बोले हट जाओ, हबीब सूद खोर आता है, हम पर उसकी गर्द न पड़े। आप वहीं से हज़रत ख़्वाजा हसन बसरी की खिदमत में पहुंचे। तायब हो कर बैअत हुए। वहां एक मक़रूज आप से कतराता। आपने फरमाया न डर न डर, अब मेरा तुझ पर कोई तकाजा नहीं। फिर आप घर लौटे तो वही बच्चे फिर रस्ते में मिले, कहने लगे हट जाओ, ख्वाजा हबीब तायब आ रहे हैं-
कहीं हमारी गर्द उन पर न पड़ जाये। आप ने आसमान की तरफ देख कर कहा। कुरआन तेरे दिन में ही दो तमाशे देखे। फिर आपने सब माल जिस-जिस का था वापस कर दिया और दोनों मियां बीवी लंगे फरात एक इबादत खाना बनवाकर उसमें रहने लगे। दिन आप हजरत ख्वाजा हसन की खिदमत में गुजारते थे। रात इबादतखाने में, अजमी होने की वजह से तिलावत में सही तलफ्फुज़ नहीं होता था।
खाने पीने की तंगी होने लगी तो आपने मजदूरी का इरादा किया और तमाम दिन इबादत में गुजारने लगे। जब बीवी ने तक़ाज़ा किया तो कह दिया- मैं जिस की मजदूरी करता हूं वह बड़ा करीम है। आजकल में ही मजदूरी दे देगा। जब दस दिन हो गये और बीवी ने तक़ाज़ा शदीद किया। आप को फिक्र हुई। मगर जाकर इबादत में मशगूल हो गये। अल्लाह ने एक बोरी आटा, एक बकरी, थोड़ा घी, थोड़ा शहद और तीन सौ दिरहमत भिजवा दिए और कहने वाला यह कह गया कि खुलूसे नीयत से किये जायें। मजदूरी में कोताही नहीं की जाती। शाम को जब अज़मी आए तो खाने की खुश्बू आई। हैरान हुए। बीवी से कैफियत मालूम हुई। उसी रोज़ से आप मुतवक्किल हो गये और मुस्तजाबुद्दावात असहाब में से हुए। बारहा आप को लोगों ने हज के दिन अरफ़ात पर देखा हालांकि बज़ाहिर आप सफ़र नहीं करते थे।
अजमी होने की वजह से आप कुछ अल्फाज़ दुरूस्त न पढ़ पाते थे। जो लोग इसी वजह से आपके पीछे नमाज़ पढ़ने से गुरेज करते थे उन्हें खुदा की तरफ से इशारा होता था कि ज़ाहिरी अल्फाज़ व क़िरअत पर न जाओ। हबीब अजमी का ख़ुलूस देखे। वह मेरी रजा पर राज़ी है। हज़रत इमाम शाफ़ई और इमाम अहमद हम्बली रज़ियल्लाहु अन्हुमा दोनों बैठे थे कि अजमी उधर से गुजरे। इमाम अहमद रज़ियल्लाहु अन्हु ने सवाल किया कि आप बताएं जिसकी पांचों नमाजें क़ज़ा हो गई होंगी। उसे याद न हुआ कि किस वक्त की नमाज़ क़ज़ा हुई। वह क्या करे और कौन सी नमाज़ की क़ज़ा पढ़े। तब्लीग करनी चाहिए और पांचों नमाज़ पर क़ज़ा करनी चाहिए। इमाम अहमद हैरान रह गये। जब लोग आप के सामने क़ुरआन पढ़ते तो आप रोते, कहते जब समझते नहीं तो रोते क्यों हो। तो फरमाते हां मैं अजमी हूं। मगर दिल अरबी है।
9 रमज़ान 120 हिजरी को पैदा हुए और 141 हिजरी में वफ़ात हुई। मजारे मुबारक बसरह में है।