महमूद का जन्म 1932 में मुंबई के पास ‘नागपाड़ाÓ में हुआ था। वे मशहूर हास्य अभिनेता मुमताज अली के बेटे थे। आठ भाई-बहनों में महमूद मझले बेटे थे। एक्टिंग महमूद के खून में थी। जब वे पांच साल के थे, तभी उन्हें अंदाजा हो गया था कि वे एक दिन बॉलीवुड के कॉमेडी किंग जरूर बनेंगे।
महमूद को बचपन में पतंग उड़ाने का बहुत शौक था। वे अक्सर मुंबई के आस-पास के गांव खिसक जाया करते थे और वहां पतंगबाजी का पूरा लुत्फ उठाते थे। पिता मुमताज अली को जब यह बात मालूम हुई, तो वे महमूद को अपने साथ स्टूडियो ले जाने लगे। हालांकि महमूद को यह सब पसंद नहीं था, मगर क्या करते। एक दिन उनका पूरा परिवार नागपाड़ा से मलाड शिफ्ट हो गया। उनका नया घर बॉम्बे टॉकीज के एकदम नजदीक था। महमूद अभिनेता बनने की जल्दी में नहीं थे, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।
उनके लाख चाहने के बावजूद वह हो न सका, जो महमूद चाहते थे। जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही परिवार वालों ने 1953 में मीना कुमारी की बहन माधुरी से निकाह कर दिया। पहले बेटे मसूद का जन्म हुआ और अंतत: पैसों की तंगी के चलते महमूद को अभिनय की दुनिया में आना ही पड़ा। बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने फिल्म ‘सीआईडीÓ और ‘प्यासाÓ में छोटे-छोटे रोल भी निभाए थे। लेकिन उनकी पहचान बनी ‘अभिमानÓ, ‘ससुरालÓ और ‘छोटी बहनÓ से।
35 साल के फिल्मी सफर में महमूद ने तकरीबन दो सौ फिल्मों में अपनी जादुई हास्य कला का जौहर दिखाया था। यूं तो महमूद की पहली फिल्म ‘किस्मतÓ थी, लेकिन उन्हें सफलता मिली 1958 में रिलीज हुई फिल्म ‘परवरिशÓ से।
इस फिल्म में उनकी भूमिका गंभीर थी।…फिर तीन साल बाद आई ‘ससुरालÓ, जिसने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया…। फिल्म में उनकी नायिका शोभा खोटे थीं। इसी जोड़ी ने आगे चलकर सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। उनकी जोड़ी की सफलतम फिल्मों में ‘गृहस्थीÓ, ‘भरोसाÓ, ‘जिद्दीÓ और ‘लव इन टोकियोÓ प्रमुख थीं। कॉमेडी का नया दौर शुरू हो चुका था। जॉनी वॉकर का ताज महमूद ने छीन लिया था।
महमूद की कॉमेडी का जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोल रहा था। वे सफलता के शिखर पर थे। उनकी खोली में निर्माताओं की भीड़ लगातार बढ़ रही थी। उन्हें लेकर फिल्में लिखी जाने लगी थीं। 1969 में आई फिल्म ‘पड़ोसनÓ ने महमूद को कॉमेडी का बेताज बादशाह बना दिया। सफलता का आलम यह था कि उस दौर में बनने वाली फिल्मों में न सिर्फ महमूद का होना अहम माना जाने लगा था, बल्कि उन पर एक गीत का होना भी लगभग जरूरी-सा बन गया था।
70 का दशक महमूद के लिए सबसे गोल्डन पीरियड था। ‘पड़ोसनÓ के बाद महमूद की दूसरी फिल्मों की बात करें, तो फिर चाहे वह ‘पत्थर के सनमÓ हो या ‘दो कलियांÓ या ‘नील कमलÓ या ‘आंखेंÓ या फिर ‘औलादÓ ये सभी ऐसी फिल्में थीं, जिनमें महमूद न सिर्फ फिल्म के नायक पर भारी पड़ते दिखाई दिए, बल्कि उन पर फिल्माए गए गाने भी सुपर-डुपर रहे।
मसलन, फिर चाहे वह ‘पड़ोसनÓ का गीत ‘एक चतुर नार, करके सिंगार…Ó हो या फिर ‘नील कमलÓ का गीत ‘खाली डिब्बा, खाली बोतल…Ó हो। ये सभी गीत आज वर्षों बाद भी श्रोताओं की पसंद बने हुए हैं। इसी दशक में महमूद को ‘मैं सुंदर हूं, ‘लाखों में एकÓ, ‘मस्तानाÓ और ‘दो फूलÓ जैसी फिल्मों में मुख्य नायक बनने का मौका भी मिला। ये फिल्में भी हिट रहीं। उसके बाद उन्होंने स्वयम् फिल्मों का निर्माण भी किया।
‘बॉम्बे टू गोवाÓ, ‘कुंवारा बाप, जिन्नी और जोनी जैसीÓ फिल्में बनीं और चलीं भी। यहां भी महमूद ने खूब शौहरत और सफलता बटोरी। मजेदार बात यह रही कि ‘बॉम्बे टू गोवाÓ में जहां उन्होंने आज के मिलेनियम स्टार अमिताभ के साथ बस कंडक्टर के चरित्र को बखूबी अंजाम दिया, वहीं इसी फिल्म से चर्चित हुई अरुणा ईरानी के साथ महमूद ने ‘औलादÓ, ‘गरम मसालाÓ और ‘नया जमानाÓ जैसी फिल्में करके इंडस्ट्री को एक नई हास्य जोड़ी से परिचित कराया।
महमूद ने अभिनय के साथ-साथ फिल्मों का निर्माण तो किया ही था, उन्होंने कई फिल्में डायरेक्ट भी की थीं। इनमें ‘सबसे बड़ा रुपैयाÓ, ‘प्यार किए जाÓ, ‘जौहर महमूद इन हांगकांगÓ और उनकी आखिरी निर्देशित फिल्म थी ‘दुश्मन दुनिया कीÓ, जिसमें शाहरुख खास भूमिका में थे।
महमूद ने 1961 में फिल्म ‘छोटे नवाबÓ से आर.डी. बर्मन को ब्रेक दिया…फिर फिल्म ‘कुंवारा बापÓ से राकेश रोशन को इंट्रोड्यूस किया था। ‘बॉम्बे टू गोवाÓ में अमिताभ बच्चन और अरुणा ईरानी को प्रोमोट करने के साथ ही विनोद खन्ना को भी प्रोमोट किया था।
बेस्ट कॉमेडियन का फिल्म फेयर अवार्र्ड-पहली बार 1966 में ‘प्यार किए जाÓ के लिए मिला, फिर 1969 में ‘वारिसÓ और 1974 में ‘वरदानÓ के लिए दिया गया। जब कभी पुरस्कारों की बात चलती, तब महमूद सिर्फ इतना ही कहते-‘एक कलाकार के लिए यह जरूरी नहीं कि उसने कितने पुरस्कार जीते।
सबसे ज्यादा जरूरी तो यह होता है कि वह कितना सफल है, उसके चाहने वाले कितने हैं।…क्योंकि सफलता को पुरस्कार से नहीं, दर्शकों के प्यार से आंका जाता है…और मेरा असली पुरस्कार तो मेरे चाहने वाले हैं, मेरे दर्शक हैं। वे मेरे हंसाने से हंसें, वे मेरे रुलाने पर रोएं। मेरे लिए यही असली पुरस्कार है। यही सफलता है। यही दौलत है ।
यही शौहरत है। यह ऐसा पुरस्कार है, जो मेरे इंतकाल के बाद भी इसी जहां पर रहेगा, हमेशा मेरी यादों के साथ…।Ó सचमुच महमूद की बातों में कितनी सच्चाई थी। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें लोगों के जेहन में हमेशा जिंदा रहेंगी। जब-जब महमूद याद आएंगे, खुद-ब-खुद उनके चाहने वालों के होंठ मुस्कुरा उठेंगे। – सैफ मलिक