सूफीवाद को बढ़ावा देने शुरू हुई थीं कव्वाली

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कव्वाली हिन्दुस्तान में हजरत ख़्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती रह. की देन है। इसमें बजुर्गों के अकवाल पढ़े जाते हैं। उस जमाने में इसमें फारसी का ज्य़ादा जोर था। आजकल फारसी के बहुत कम समझने वाले लोग रह गये हैं। हिन्दुस्तान के बाहर भी कव्वाली बहुत पसंद की जा रही है। जिसमें हजरत अमीर खुसरो ने इसमें बड़ी रंगीनियत भरी है और कलाम लिखा है। शायद दुनिया का कोई ऐसा हिस्सा नहीं है जहां के लोग हजरत अमीर खुसरो को न जानते हों। उनके क़लाम में बहुत मिठास है। और मिठास हो भी क्यों नहीं क्योंकि बुजुर्गों का हाल उन्होंने इस जुबां में बयान किया है।
उनके अलावा शेख सादी से लेकर मौलाना रूम, मौलाना शम्स तबरेज, हाफिज शीराज़ी, बलवल दाना, बू अली शाह क़लंदर आदि लोगों ने कलाम लिखे हैं। हजरत अमीर खुसरो हिन्दुस्तान के सबसे बड़े मौसिक़ार माने जाते हैं। उन्होंने जहां तबला और सितार का अविष्कार किया वहीं कई रागों की उत्पत्ति भी की है। उन्होंने बृज भाषा का उपयोग अपने कलाम में फारसी, उर्दू के साथ किया। आज भी उनके दोहे, उनकी पहेलियां लोग पढ़ते हैं।
$िजहाले मिस्कीं मकुम तग़्ााफुल दो राये नैना बनाये बतियां।
किताबे हिजरा नजारा मैजां न लेहू काहे लगाये छतियां॥
इसमें हजरत अमीर खुसरो ने तीन भाषाओं का प्रयोग किया है फारसी, उर्दू और हिन्दी।
सूफियाना कलाम पूरी दुनिया में पसंद किया जाता है। बीच में एक ऐसा दौर आया था कि मुकाबले की कव्वाली हुआ करती थी लेकिन अब लोग फिर सूफियाना कव्वाली की ओर लौट रहे हैं। सूफियाना कलाम में मारफत की गजलें, मनकबतें जो बुजुर्गों के आस्तानों पे पढ़ी जाती हैं शामिल हैं। विदेशों में भी अब खानकाही रंग, खानकाही तालीम, बुजुर्गों के क्या अकवाल थे, इनकी क्या तालीम थी ये सब रेडियो और टीवी के द्वारा प्रसारित किया जा रहा है। आज भी लोग सात सौ साल पुराना हजरत अमीर खुसरो का कलाम सुनने की ख़्वाहिश रखते हैं।
भोपाल में एक लड़की है जो तसव्वुफ पर रिसर्च कर रही है। एक अजमेर शरीफ में सात नम्बर हुजरे में है, वो भी इसी विषय पर रिसर्च कर रही है। एक विदेशी महिला भी तसव्वुफ पर रिसर्च कर रही है उसने मुझे बताया कि मेरा भाई ईरान में फारसी पढ़ाता हैं। सूफीवाद को विदेशी लोग भी बहुत पसंद कर रहे हैं।
सूफी गीत-संगीत का सदियों पुराना इतिहास रहा है। गायन संस्कृति में सभी सीमाओं और काल को लांघते हुए सूफी गायिकी का दौर फिर लौटा। बीते बरसों में जहां उस्ताद नुसरत फतेह अली खां ने सूफी संगीत को समृद्ध किया वहीं पाकिस्तान की आबिदा परवीन, भारत की शुभा मुद्गल, सूडान के मोहम्मद अल शेख जुमा, ईरान के रूमी और बांग्लादेष के बाउल सिंगर्स का कम योगदान नहीं है और इसके बाद जुनून जैसे पाॅप गु्रप के अलावा वडाली ब्रदर्स और अब तेजी से उभरे गायक कैलाष खेर उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। – मो. अहमद वारसी