शास्त्री जी के चयन की दास्तान

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जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद नेतृत्व के मसले को लेकर कांग्रेस की कशमकश का मैïं साक्षी रहा। 27 मई, 1964 के दिन सुबह के वक्त नेहरू बाथरूम मेïं गिर पड़े। तत्काल ही उनके निजी चिकित्सक के.एल. विग को बुलाया गया। विग इस बात को लेकर नाराज थे कि उनकी हिदायत की अवहेलना की गई। विग ने नेहरू को अकेले चलने-फिरने से मना कर रखा था। इस हादसे के कुछ घंटोंï बाद ही नेहरू का निधन हो गया। नेहरू के बिस्तर पर गीता और उपनिषद रखे गए। वह गीता की एक प्रति साथ लेकर चला करते थे। उनके एक कैबिनेट मंत्री तिरुवल्लूर थट्टाई कृष्णामाचारी ने मुझे बताया था कि नेहरू अपने अंतिम दिनोïं मेंï बेहद धार्मिक हो गए थे। यह वही नेहरू थे, जिन्होïंने 1954 मेंï दक्षिण भारत के एक मंदिर मेïं इसलिए जाने से मना कर दिया था कि वहां के पुजारी ने उनसे अपने ऊपरी वस्त्रोंï को उतारकर मंदिर मेï प्रवेश का आग्रह किया था।
नेहरू अपने जीवन काल मेंï कई बार यह बात दोहरा चुके थे कि धार्मिक कर्मकांडोंï मेंï उनका बिल्कुल भी विश्वास नहीïं है। जीवनभर जो शख्स अनीश्वरवादी रहा उसका अंतिम संस्कार धार्मिक विधि-विधान से किया गया। नेहरू के निधन के वक्त कामराज कांग्रेस अध्यक्ष थे। उन्हेïं ही नेहरू के उत्तराधिकारी का चयन करना था। इसलिए सभी की निगाहेïं कामराज पर टिकी थीं। नेहरू के संभावित उत्तराधिकारी के रूप मेंï उस वक्त लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई के नाम चर्चा मेंï थे। टीटीके की सोच थी कि नेहरू के करीबी होने के कारण वह कम से कम नए प्रधानमंत्री की नियुक्ति होने तक अंतरिम प्रधानमंत्री का दायित्व तो संभाल ही सकते हैïं। जब तक नेहरू के उत्तराधिकारी का मसला हल होता तब तक गुलजारी लाल नंदा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप मेï कार्य करने की औपचारिकता पूरी हो चुकी थी। नेहरू के संभावित उत्तराधिकारी के रूप मेï शास्त्री के पास प्लस प्वाइंट यह था कि उन्हें नेहरू का वरदहस्त प्राप्त था। यही कारण था कि जनवरी, 1964 मेïं भुवनेश्वर मेंï दिल का दौरा पडऩे के बाद नेहरू ने शास्त्री को निर्विभागीय मंत्री नियुक्त किया था। तब नंदा और टीटीके दोनोंï ने ही मंत्रिमंडल मेïं शास्त्री के सम्मिलित होने का विरोध किया था। एक दफा टीटीके ने मुझे बताया था,” नेहरू शास्त्री को पसंद नहीïं करते थे।ÓÓ मैंï टीटीके के इस कथन से सहमत नहींï था और न ही उस दौर के नेता टीटीके के इस कथन से सहमत थे। सच तो यह है कि पंडित जी शास्त्री को बेहद मानते थे। यह विश्वास करना कठिन है कि पंडित जी ने शास्त्री के बारे मेïं इस तरह की बात कही होगी। दिनेश सिंह नेहरू परिवार के बेहद करीब रहे। 5 अप्रैल, 1973 को एक मुलाकात के दौरान दिनेश सिंह ने मुझे बताया था, ”पंडितजी कभी-कभी किसी नेता के लिए कठोर शब्द कह दिया करते थे। मुझे याद है कि एक बार इंदिरा गांधी ने द्वारिका प्रसाद मिश्र को मध्यप्रदेश का दोबारा मुख्यमंत्री बनाने की पुरजोर सिफारिश की थी, इस पर पंडित जी ने कहा था कि वह अच्छा आदमी नहीïं है। पंडित जी प्रतिभाशाली लोगोंï को पसंद किया करते थे। संभव है कि उन्होïंने उस तरह की टिप्पणी की हो, जिसका जिक्र टीटीके ने किया था।ÓÓ
नेहरू के संभावित उत्तराधिकारी के रूप मेंï कामराज मोरारजी की तुलना मेंï शास्त्री को कहीïं ज्यादा तरजीह दे रहे थे। उनकी राय मेंï शास्त्री पूंजीवादी ताकतोïं के प्रभाव मेïं नहींï आयेïंगे। कामराज ने तिरुपति मंदिर परिसर मेïं अपने सहयोगियोïं-कर्नाटक के निजलिंगप्पा, पश्चिम बंगाल के अतुल्य घोष, आंध्र प्रदेश के नीलम संजीव रेड्डी से मुलाकात की। इस भेंट के बाद कामराज ने नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप मेïं शास्त्री के नाम पर औपचारिक तौर पर अपनी सहमति व्यक्त की। कामराज की इस पेशकश पर मोरारजी देसाई बिफर गए। देसाई ने कामराज पर आक्षेप किया कि वह पक्षपातरहित होकर अपना दायित्व नहीïं निभा रहे हैï और इसी कारण उन्होïंने शास्त्री का नाम उछाल दिया है। कामराज को यह जानकर ताज्जुब हुआ कि कांग्रेस के अंदर वामपंथी विचारोंï वाले ज्यादातर सदस्य भी मोरारजी के पक्ष मेïं आ खड़े हुए थे। यह बात भी प्रचारित हुई कि वामपंथी रुझान वाले दो पूर्व केïंद्रीय मंत्रियोंï-कृष्णा मेनन और केशव देव मालवीय-भी मोरारजी के पक्ष मेïं हैïं। हालांकि बाद मेंï कृष्णामेनन ने मुझे बताया था कि वह कभी भी मोरारजी के पक्ष मेïं नहीïं थे। मोरारजी के बजाय अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप मेंï वह गुलजारी लाल नंदा के नाम पर सहमत थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रवैये से भी जनता के बीच यह संदेश गया कि सोवियत संघ शास्त्री की तुलना मेïं मोरारजी को कहीïं अधिक पसंद कर रहा है। नेहरू के संभावित उत्तराधिकारी के रूप मेïं उस दौरान इंदिरा गांधी का नाम चर्चा मेंï नहीï था। यद्यपि शास्त्री ने बयान दिया था कि वह इस संदर्भ मेंï सर्वसम्मत प्रत्याशी के पक्ष मेंï हैंï। शास्त्री ने इस क्रम मेï इंदिरा के साथ जयप्रकाश नारायण के नाम को सुझाया था। नेहरू के निधन से कुछ समय पूर्व तक मैंï शास्त्रीजी के साथ बतौर सूचना अधिकारी कार्य कर रहा था। प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो को छोड़कर मैïंने यूएनआई ज्वाइन की।
नेहरू के उत्तराधिकारी के मुद्दे पर पहली बार मैïंने कोई बड़ी राजनीतिक रिपोर्ट पेश की, जिसे लेकर उन दिनोïं काफी गहमागहमी मची। इस रिपोर्ट के कवरेज के लिए मैïंने शास्त्रीजी और मोरारजी देसाई के आवास के कई चक्कर लगाए थे। अपने तरीके से मैïंने इस मुद्दे की तह तक जाने का प्रयास किया था। मोरारजी के आवास पर मेरी भेïंट उनके पुत्र कांति देसाई से हुई, जो तत्कालीन वित्त उपमंत्री तारकेश्वरी सिन्हा के साथ खड़े थे। उन दोनोïं को ही यह भली-भांति मालूम था कि मैïं शास्त्रीजी के साथ काम कर चुका हूं। तारकेश्वरी सिन्हा ने कहा कि आप शास्त्री से जाकर कहो कि वह मैदान से हट जाएं क्योïंकि ज्यादातर सांसद मोरारजी का समर्थन कर रहे हैïं। मैïने कांति देसाई को शास्त्रीजी की इस इच्छा से अवगत कराया कि वह सर्वसम्मति प्रत्याशी चाहते हैïं और वह इस संदर्भ मेïं जयप्रकाश नारायण या फिर इंदिरा गांधी का समर्थन करना पसंद करेंïगे। बाद मेंï मुझे पता चला कि मोरारजी ने जयप्रकाश के नाम पर चुप्पी जतायी, पर इंदिरा गांधी के नाम पर वह बिफर गए। उन्होïंने इंदिरा को ‘गैर-तजुर्बेकार लड़कीÓ की संज्ञा दी। इन समूचे घटनाक्रमोïं की पृष्ठभूमि मेंï मैïंने अपनी रिपोर्ट फाइल की। मैïंने लिखा, ”पूर्व वित्त मंत्री मोरारजी देसाई पहले ऐसे शख्स हैंï जिन्होïंने सबसे पहले अपनी दावेदारी पेश की। ऐसा समझा जा रहा है कि देसाई अपने सहयोगियोंï से कह चुके हैं कि नेहरू के उत्तराधिकारी के चुनाव के लिए वह मैदान मेंï उतरेंïगे और तभी यह तय हो सकेगा कि बहुमत किसके साथ है।..ÓÓ शास्त्री के संदर्भ मेंï मैïंने लिखा, ”शास्त्रीजी के अंतरंग सूत्रोïं से पता चला है कि वह सर्वसम्मत प्रत्याशी के पक्ष मेंï हैं और इस मुद्दे पर चुनाव करवाए जाने के हिमायती नहींï हैï। जिस प्रत्याशी को पार्टी सर्वसम्मति से पेश करेगी, उसे ही वह अपना समर्थन देïंगे।….ÓÓ
मेरी इस रिपोर्ट पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई। संसद के सेïंट्रल हाल की ओर जाते समय मुझे कामराज दिखे। उन्होïंने मुझे गले लगाते हुए कहा, धन्यवाद। इसी तरह केïंद्रीय कक्ष मेंï बैठे सांसदों ने कहा कि आपकी इस रिपोर्ट से मोरारजी के कम से कम सौ वोट कम हो गए। उनकी दलील थी कि मोरारजी ने अपनी अधीरता दिखाकर जिस तरह से उत्तराधिकारी के सवाल पर चुनाव प्रक्रिया के लिए बाध्य किया, उससे उनकी छवि खराब हुई है। सच यह है कि मैïंने किसी भी पक्ष के संदर्भ मेंï चातुर्यपूर्वक रिपोर्ट फाइल नहींï की थी। अगर किसी को इससे परोक्ष रूप से लाभ मिला तो इसके लिए मेरी रिपोर्ट कुसूरवार नहींï थी। 1977 मेंï जब वह प्रधानमंत्री बने तब पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने मेरा नाम पंजाब के राज्यपाल के रूप मेंï प्रस्तुत किया। इस प्रस्ताव को मोरारजी ने ठुकरा दिया। इसी तरह जब विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मुझे पाकिस्तान मेïं भारतीय उच्चायुक्त बनाने की मंशा जाहिर की तो मोरारजी ने उस पर भी पानी फेर दिया।
– कुलदीप नैयर