बच्चों से दोस्त बनाना कितना ठीक?

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आजकल प्राय: सुनने मेïं आता है कि अमुक माता-पिता अपने बच्चोंï के मित्र बनना चाहते हैïं। संभवत: ऐसा कहने से उनका तात्पर्य यह है कि वे अपने बच्चोïं से दूरी कम करना चाहते हैï और यह भी सोचते हैंï कि मित्र बनने से बच्चे संभवत: अपनी हर बात, हर छोटी बड़ी समस्या माता-पिता को बता सकेïंगे हालाँकि बच्चोंï के जीवन मेंï माता-पिता का स्थान और दायित्व मित्रोïं से बहुत अधिक होता है।
पीढ़ी दर पीढ़ी जुड़ाव
माता-पिता बच्चोंï को जन्म देते हैï और सभी बच्चे कई वर्ष तक पालन पोषण और अपनी हर आवश्यकता के लिये माता-पिता पर ही निर्भर रहते हैï। शनै:-शनै: वे अपने कुछ कार्य स्वयं करने लगते हंैï लेकिन शिक्षा, कैरियर, व्यवसाय, विवाह एवं दांपत्य की समस्याएँ और फिर अपने बच्चोïं को पालने हेतु भी काफी हद तक माता-पिता पर ही निर्भर रहते हैï। जब बच्चोंï के बच्चे होते हैïं तो देश ही नहीïं, परदेस तक लड़के या लड़की के माता-पिता ही जाते हैंï, नाती-पोतोï को पालने व देखभाल करने के लिए तथा आवश्यकता और परिस्थितियोïं के अनुसार कई वर्ष वहीï रहते भी हैïं। इस प्रकार अपनी मृत्यु तक अधिकतर माँ-बाप, सामान्यत: हर हाल मेïं अपने बच्चोंï से यथासंभव जुड़े रहना चाहते हैïं और जुड़े रहते हैï। ऐसे मेंï बच्चोïं का हितैषी माता-पिता से अधिक और कौन हो सकता है।
सोच मेंï आया बदलाव
फिर अचानक पिछले एक दशक से माँ बाप को यह ध्यान क्योंï कर आया कि वे बच्चोïं के मित्र बनना चाहते हैï, वह भी जीवन के पहले 18 वर्ष तक क्योïंकि उसके बाद बहुत से बच्चे शिक्षा हेतु अथवा कैरियर बनाने, छात्रावास या अन्य स्थान चले जाते हैï। उसके बाद भी जो माँ-बाप काफी समय बच्चोïं के साथ रहते हैïं, मित्रवत् हो ही जाते हैंï। यदि आप बच्चोïं के साथ समय लगायेïंगे और बच्चोंï की परिस्थिति, आयु और आवश्यकतानुसार समय बितायेïंगे तो बच्चे आपके साथ हर बात करेïंगे यानी आपको हर बात बतायेंïगे। जब माँ उन्हेïं नहलाती है, तैयार करती है, पढ़ाती है, खेलती है, सुलाती है और बाप भी समय मिलने पर उनसे बात करता है, उनके साथ खेलता है तो बच्चे सब कुछ माता-पिता के साथ बाँटते हैïं। और खेल ही खेल मेंï, सोते-जागते माँ-बाप को जो उचित लगता है, उन्हेïं सिखाते हंैï, भले-बुरे का भान कराते हैï।
पारिवारिक दायित्वोंï का शॉर्ट-कट
संभवत: केवल मित्र बनने की सोच उन माता-पिता की होती है जिनमेंï सचमुच माता-पिता बनने का समय, साहस और इच्छा नहीïं होती। जो सुबह देर से सोकर उठते हैंï, तब तक आया बच्चोïं को तैयार करके नाश्ता खिलाकर, टिफिन देकर स्कूल भेज देती है। आया ही उन्हेïं बस से उतारती है या वाहन चालक स्कूल छोड़ आता है और वापस ले लाता है, आया उनके कपड़े बदलकर, खाना खिलाकर सुला देती है और फिर शाम को तैयार करके दूध पिलाकर खेलने भेज देती है। माँ-बाप दोनोंï काम करते हैï या माँ यदि काम नहींï करती तो समाज-सेवा के कार्यों और रूप-सज्जा मेïं व्यस्त रहती है, जैसे किसी दिन हाथ-पाँव की सुंदरता तो किसी दिन त्वचा और केशसज्जा, किटी पार्टी, क्लब मेंï व्यस्त रहती हैं। शाम को जब पति-पत्नी घर लौटते हैंï तो चाय पर अपना पूरा दिन एक दूजे संग बाँटते हैï। दूसरे दिन की रूपरेखा बनाते हैंï, फिर साथ-साथ क्लब, शॉपिंग पॉइंट, मित्रोïं के यहाँ जाते हैïं। तनाव कम करने के लिये थोड़ा मद्यपान करते हैïं, मैगजीन पढ़ते हैï, टी. वी. देखते हैïं। यदि समय मिला तो बच्चोंï से पूछ लेते हैï कि होमवर्क कर लिया या नहीï, भोजन तो कर लिया होगा, कहके सोने के लिए अपने कमरे मेïं चले जाते हैïं और आया बच्चोï को फिर कपड़े बदलकर सुला देती हैं।
बाल-मन मेंï न बने ग्रंथियाँ
स्वाभाविक है इन परिस्थितियोंï मेंï माता-पिता का बच्चोï से वार्तालाप, संपर्क, विचारोंï का आदान-प्रदान, समस्याओïं की चर्चा और उनका निराकरण न्यूनतम स्तर पर होता है। जब तक बच्चे अपने आपको मानसिक और भावनात्मक रूप से माता-पिता से कुछ कहने की तैयारी करेïं, माता-पिता दृश्य से परे हो जाते हैïं। हर आयु की अपनी समस्या होती है। एक छोटे बच्चे के लिए यही बहुत बड़ी समस्या है कि उसकी गेंïद खो गई है या उसे कोई सवाल नहींï समझ मेंï आ रहा है।
ऐसे मेंï इन बच्चोïं मेïं छोटी-छोटी बहुतेरी ग्रंथियाँ बन जाती हैï। उनके व्यक्तित्व का वह विकास नहीïं हो पाता, जैसा उन बच्चोïं का होता है, जिनके साथ उनके माता-पिता अच्छा समय बिताते हैïं, उनके साथ खेलते, खाते, सोते हैïं और इसी दौरान उनकी छोटी-बड़ी समस्याएँ सुन कर उनका समाधान भी कर देते हैïं। संभवत: अतिव्यस्त माता-पिता, चाहे व्यस्तता वास्तविक हो यानी काम के कारण अथवा कृत्रिम यानी उन्हेïं अपनी मौज-मस्ती से ही फुर्सत न मिलती हो, अपने बच्चोंï के जीवन, जीवनशैली और समय मेंï फिट नहीïं हो पाते। ऐसे माता-पिता, माता-पिता तो नहींï बन पाते, मित्र बनने का स्वांगभर करते हैï।
संबंधोंï मेंï न हो समझौता
माता-पिता बनना कोई पार्ट-टाइम जॉब नहींï है, यह तो जीवनपर्यंत का विषय है। कहने का मतलब यह नहीï है कि माता-पिता बच्चोïं के साथ 24 घंटे बैठे रहेï। बच्चे बड़े मेधावी, विश्लेषणशील और समझदार होते हैïं। यदि माता-पिता वास्तव मेंï व्यस्त हैïं तो बच्चे धैर्य धारण करना और खुद को उसके अनुरूप ढालना सीख लेते हैï। लेकिन यदि उन्हेïं यह समझ मेंï आ जाए कि माता पिता जब व्यस्त हैïं तब तो व्यस्त हैं ही लेकिन फुर्सत के समय मेंï भी उन्हेïं बच्चोंï के लिए समय नहीïं है तो बात बदल जाती है, बिगड़ जाती है।
माता-पिता प्रारंभिक अवस्था मेंï बच्चोï के आदर्श होते हैïं, इसलिए माता-पिता को उनका रोल मॉडल बनना चाहिए। जो आप बच्चोïं को सिखाना चाहते हैïं, जो उनसे अपेक्षा करते हैïं, वह कहके नहीïं, करके दिखाना होगा और वह भी जीवनपर्यंत। बच्चे तो कच्ची मिट्टïी के बने होते हैïं, उन्हेï जैसा चाहेï, ढाल लेïं। यदि आप चाहते हैïं वे ईमानदार, परिश्रमी, निष्ठïावान, सुहृदय, दयाशील, पढऩे-खेलने मेïं अच्छे होंï तो वैसे ही बनकर दिखायें। यदि आप चाहते हैंï कि वे आपका आदर करेंï तो अपने बड़ोंï का आदर सम्मान करके दिखाइये। आप अपने माता-पिता व बड़ोïं से जैसा व्यवहार करेïंगे, आज बच्चे हर सुख-सुविधा के लिए आप पर निर्भर हैïं तो आत्मनिर्भर होने पर वे आज न सही तो कल आपके साथ वैसा ही व्यवहार करेïंगे।
दूसरोïं की देखादेखी ठीक नहींं
कोई माता-पिता यदि अपने बच्चोïं को दो हजार रुपये जेबखर्च, अलग टी. वी., अलग फ्रिज दे रहे हैïं तो मुझे भी देना है, यह धारणा तो सही नहींï है। दूसरे क्या करते हैïं, इससे आपको क्या मतलब? आप अपने बच्चोïं के लिए जो उचित समझते हैïं, वही करिये। कई बार माता पिता को यह कहते सुना जाता है कि जब तक बच्चे प्रसन्न हैï, हमेंï क्या अंतर पड़ता है। कैसे अंतर नहीïं पड़ता यह भी देखना पड़ेगा। देखना चाहिए कि यह प्रसन्नता उन्हेïं किस बात से कैसे मिल रही है, कहींï ड्रग्स खाकर, लड़कियाँ भगाकर, किसी को धोखा देकर, चोरी करके तो नहींï मिल रही। आपके बच्चे केवल आपके बच्चे नहीïं, देश के नागरिक भी हैंï। यह आपका दायित्व है कि आप उन्हेंï एक श्रेष्ठï व उत्तम इंसान और नागरिक बनायेïं। यह सही है कि बच्चा स्कूल और घर के बाहर भी बहुत कुछ सीखता है लेकिन वह प्रतिदिन क्या सीख रहा है, क्या सोच रहा है इसकी निगरानी, इसका आंकलन और उसको अच्छे-बुरे का ज्ञान विवेक देना तो आपका धर्म है।
अंत मेï नेक सलाह
आप समय-समय पर मित्रवत् हो सकते हंैï लेकिन केवल मित्र बनना चाहते हैïं, यह बात गले नहीïं उतरती, समझ नहीïं आती। मित्र तो उसके और भी कई लोग हो सकते हैïं, जो वही बात कहेïंगे, करेïंगे जो वह सुनना, करना चाहता है लेकिन यदि माता-पिता भी मित्र ही बनकर रह गए तो उसे दूसरे माता-पिता कहाँ मिलेïगे? उचित अनुचित कौन बतायेगा? जो वह सुनना, करना नहीïं चाहता लेकिन करना चाहिए करना पड़ेगा, यदि जीवन संॅवारना है और समाज और देश को दिशा देनी है।
माता पिता को समयानुकूल, बहुत से रोल अदा करने पड़ेंïगे। कभी शिक्षक का, कभी खेल के साथी का, कभी कहानी कथाकार का, कभी विदूषक का, कभी सख्त प्रशिक्षक का, कभी चिकित्सक का। लेकिन माता-पिता तो रहना पड़ेगा, जीवनपर्यन्त बना रहना पड़ेगा और इसी प्रकार हर पीढ़ी मेंï यह क्रम बना रहना चाहिए चाहे इसके लिए कितने भी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक त्याग और तपस्या करनी पड़े। – सैफ मलिक