शैख़ हसन बिन अली मसबूूही

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आपका नामे नामी हसन बिन अली मसबूही है। आप हज़रत जुनैद और शैख़ अबु हमज़ा रह. के उस्तादों में से हें। लेकिन सही यह है कि उन के हम अस्रों (समाकलीन लोगों) में से हैं। हज़रत जुनैद फरमाते हैं कि मैंने शैख़ हसन मसबूही से (अल्लाह से) उन्स (लगाव) के बारे में पूछा, उन्होंने जवाब दिया,
’’आसमान के नीचे रहने वाले तमाम लोग अगर मर जायें तो मुझे कोई वहशत न होगी‘‘ (उन्स उसी सुकून का नाम है)
शैख़ुल इस्लाम फरमाते हैं कि मुहम्मद नफ़ीस कहते हैं कि शेख मुहम्मद अब्दुल्ला गाज़र ने आपको एक जगह तनहा बिठा दिया था (और मिलने का वादा करके चले गए), एक हफ्ते बाद आपको याद आया तो उनके पास आए और माज़रत (क्षमा याचना) करने लगे कि मैं तुमको भूल गया था, आपने फ़रमाया, ’’अफसोस मत करो कि अल्लाह तआला ने अपने दोस्तों से तन्हाई की वहशत को दूर कर दिया है। (तन्हाई में उनको वहशत नहीं होती) शैख़ समनून फ़रमाते हैं,
’’ऐ नफ़्स अपने वास्ते ख़लवत पसन्द कर कि ऐश है तसल्ली व उलफ़त की क़ैद में‘‘
आप मशाएखे़ बग़दाद में से हैं, और शैख़ सिरीं सक़्ती रह. के हमनशीन व हम सोहबत (साथ बैठने वाले) रहे हैं, और उनके इर्शादात के रावी हैं। शैख़ हसन मसबूही के बारे में कहा जाता है कि वह एक लिबास, एक चादर और एक जोड़े जूती लेकर हज के इरादे से चल पड़ते थे, उनके पास कोई कूज़ा (मिट्टी का प्याला) होता था न छागल, सिर्फ़ एक शामी सेब पास रख लेते थे और उसे सूंघ लिया करते थे। बग़दाद से मक्कए मुअज़्ज़मा तक सिर्फ़ एक सेब पर गुज़ारा कर लेते थे। आपका इर्शाद है:- ’’जिस शख्स को बग़ैर सवाल किये कोई उसको रद्द कर दे हालांकि वह उसका ज़रूरत मंद हो तो अल्लाह तआला उसको मोहताज बना देता है। यहां तक कि वह उसी क़दर सवाल कर लेता है (जितना उसने रद्द किया है।)

हज़रत शैख़ रवैम बिन अहमद
नामे नामी रवैम है और कुन्नियत अबू मुहम्मद है। बाज़ ने आपकी कुन्नियत अबु बक्ऱ बताई है। बाज़ अबुल हुसैन और शीबान भी कहते हें। आपका वतन बग़दाद था और वहां के मशाएख़ (बड़े शैख़ों) में से थे। ज़बरदस्त फ़क़ीह और बड़े आलिम थे और शैख़ दाऊद असफ़हानी के मसलक (तरीक़े) पर थे। शैख़ुल इस्लाम फ़रमाते हैं कि शैख़ रवैम ख़ुद को हज़रत जुनैद का शार्गिद (मुरीद) कहते थे और उनके साथियों में से थे। लेकिन मै हज़रत रवैम को शैख़ जुनैद से अफ़ज़ल समझता हूं। शैख़ अबु अब्दुल्लाह ख़फ़ीक़ फ़रमाते हैं कि मैंने किसी शख़्स को तौहीद की गुफ्तगू में शैख़ रवैम की तरह नहीं पाया। आपसे जब तसव्वुफ़ और सूफ़ी के बारे में कहा गया कि तसव्वुफ़ क्या है तो आपने कहा, ’’सूफ़ी वह है कि न ख़ुद किसी चीज़ का मालिक हो और तसव्वुफ़ यह है कि दो चीज़ों में ज़्यादती का पहलू छोड़ दिया जाए।‘‘