मख्मूर सईदी

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मख़्मूर सईदी का असली नाम सुल्तान मोहम्मद है। इनका जन्म 31 दिसम्बर 1938 को राजस्थान के टोंक में हुआ। वो पठान खानदान से संबंध रखते थे। उन्होंने उर्दू भाषा में प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। शेर व शायरी का शौ$क बचपन से था। इसी शौक को उन्होंने आगे बढ़ाया और अब तक इनके 9 काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मखमूर साहब ने वैसे तो लगभग शायरी की हर विधा में रचना की है, परंतु इनकी विशेषता गजल है।
गजल ने ही इनको बहुत प्रसिद्घि दी और आज हर खास व आम इनको जानता है। इनकी गजल इनके व्यक्तित्व का दर्पण है। अधिकतर हुस्न व इश्क के विषय को उन्होंने अपनी शायरी में एक नये अंदाज से प्रस्तुत का प्रयास किया है। सुन्दर उपमाओं व रूपकों का प्रयोग करने में इनको विशेषज्ञता प्राप्त थी। इनकी गजलें अधिकतर लम्बी होती हैं और कहीं-कहीं निरंतर नज़्म की कैफियत पैदा करती है। इनके प्रसिद्घ काव्य संग्रह हैं – स्याह बर सफेद, आवाज का जिस्म, सब रंग, आते जाते लम्हों की सदा, दीवार व दर के दरमियां, उम्रे गुजिस्ता का हिसाब आदि। उन्होंने ने कुछ अच्छी नज़्में भी लिखीं हैं जो वास्तविकता से करीब है और आम व्यक्ति के जीवन को उजागर करती हुई नजर आती हैं। इनकी शायरी पर क्लासिकी शायरों का भी असर है और नये रंग से भी उन्होंने लाभ लिया है। कुल मिलाकर इनकी शायरी में पुराने व नये का एक सुन्दर सम्मिश्रण मिलता है। – सैफ मलिक
मख्मूर सईदी की गजलें
कितनी दीवारें उठीं हैं एक घर के दरमियां1।
घर कहीं गुम हो गया दीवारों के दरमियां॥
एक साअत2 थी कि सदियों तक सफर करती रही।
कुछ जमाने थे कि गुजरे लम्हा भर के दरमियां॥
वार वो करते रहेंगे, ज़ख़्म हम खाते रहेंगे।
है यही रिश्ता पुराना संग व सर3 के दरमियां॥
क्या कहें, हर देखने वाले को आखिर चुप लगी।
गुम था मंजर4 इख्तिलाफाते नजर5 के दरमियां॥
बस्तियां मखमूर यूं उजड़ीं के सहरा6 हो गईं।
फासले बढऩे लगे जब घर से घर के दरमियां॥
शब्दार्थ :- 1-बीच, 2-क्षण,3-पत्थर व सिर, 4-दृश्य, 5-दृष्टिï का विरोधाभास 6- रेगिस्तान, जंगल।
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बिखरते-टूटते लम्हों को अपना हमसफर जाना।
था इस राह में आखिर हमें खुद ही बिखर जाना॥
हवा के दोश1 पर बादल के टुकड़े की तरह हम हैं।
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हमको किधर जाना॥
मिरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी।
जहां इस शहर में रौशनी देखो, ठहर जाना॥
पसे-ज़ुल्मत2 कोई सूरज हमारा मुंत$िजर3 होगा।
इसी एक वहम को हमने चिरागे-रहगुजर जाना॥
दयारे-खामोशी4 से कोई रह-रह कर बुलाता है।
हमें मखमूर एक दिन है इसी आवाज पर जाना॥
शब्दार्थ :- 1-कंधा, 2-अंधेरे के पीछे, 3-इंतजार में, 4- मौत के घर से
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न रास्ता न कोई डगर है यहां।
मगर सब की किस्मत सफर है यहां॥
सुनाई न देगी दिलों की सदा।
दिमागों में वो शोर-ओ-शर है यहां॥
हवाओं की उंगली पकड़ कर चलो।
वसील:1 इक यही मोतबर2 है यहां॥
न इस शहरे-बेहिस3 को सेहरा कहो।
सुनो, इक हमारा भी घर है यहां॥
पलक भी झपकते हो मख़्मूर क्यों।
तमाशा बहुत मुख़्तसर4 है यहां॥
शब्थार्थ :- 1- साधन, 2- विश्वास पात्र, 3- चेतना शून्य शहर, 4- संक्षिप्त