केन्द्र की भाजपा सरकार के मुखिया नरेन्द्र मोदी वैसे तो महिलाओं के हितों के प्रति चिंतित रहते हैं और कई कानूनों एवं कार्यक्रमों के माध्यम से महिलाओं का हितैषी होने का दम भरते हैंं। लेकिन कथनी और करनी का अंतर तब सामने आता है जब महिलाओं को राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने की दृष्टि से संसद एवं विधानसभाओं में महिला आरक्षण लागू करने के बिल को पास कराने की बारी आती है तो सबको सांप सूंघ जाता है। अपने दूसरीे कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी ने अपने एजेण्डे को पूरा करने के लिए कई महत्वपूर्ण बिल पास कराके वाहवाही लूटी।
हाल ही में बड़ी संख्या में महिलाओं को अपने मंत्रिमंडल में स्थान देकर तथा देश के अनेक राज्यों में महिला राज्यपालों की नियुक्ति कर उन्होंने एक बार फिर से भाजपा और स्वयं को महिलाओं का हित चिंतक बताने का प्रयास किया है। परंतु बात जब महिला आरक्षण की आती है तो इस पर किसी भी नेता का बयान नहीं आता और न ही इसे पास करवाने में किसी की रूचि दिखाई देती है। भाजपा के पास इस समय लोकसभा और राज्यसभा में बहुमत है तो देश की तमाम महिलाएं उनसे आस लगाये बैठी हैं कि राजनीति में महिलाओं को उनकी भागीदारी बढ़ाने हेतु महिला आरक्षण बिल शीघ्र पास करायें ताकि राजनीति में सक्रिय महिलाएं नहीं बल्कि समाज के हर वर्ग की महिला राजनीतिक क्षेत्र में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सके।
गौरतलब है कि संसद में यह बिल 1996 में पेश किया गया था, जिसका लगातार अदृश्य रूप से विरोध होता रहा है। अदृश्य का मतलब यह है कि सार्वजनिक तौर पर तो सभी राजनैतिक पार्टियां संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने के लिए तैयार हैं बल्कि समय-समय पर राजनेता इसकी बढ़-चढ़कर वकालत भी करते हैं। लेकिन व्यावहारिक हकीकत यह है कि लोकसभा में यह बिल सत्तारूढ़ पार्टियों की तमाम कोशिशों के बावजूद भी पास नहीं होता बल्कि एक समय तक तो लोकसभा में इस बिल को पेश करना ही लोहे के चने चबाने जैसा काम था।
गौरतलब है कि इस बिल को सबसे पहले साल 1996 में तत्कालीन देवगौड़ा सरकार ने पेश किया था। लेकिन अगले 14 सालों तक अनगिनत किस्म की धींगा-मुश्तियों के बीच यह बिल लोकसभा में पास होने की तरफ एक कदम भी नहीं बढ़ सका। हां, साल 2010 में यह राज्यसभा में जरूर पास हो गया। अगर यह विधेयक राज्यसभा की तरह लोकसभा में भी पास हो जाता है। तो संसद में और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित हो जाएंगी।
वर्तमान महिला प्रतिनिधित्व
महिला आरक्षण विधेयक पास होना इसलिए भी बहुत जरूरी है क्योंकि देश की आजादी को 70 साल से ज्यादा हो जाने के बावजूद भी राजनीति में महिलाएं दूसरे दर्जे की हैसियत में ही हैं। हैरानी की बात यह है कि हिंदुस्तान में तमाम दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी भले पुरुषों के बराबर न हो, लेकिन संतोषजनक है। लेकिन संसद और विधानसभाओं में या कहें भारतीय राजनीति में उनके अपने वजूद से उनकी हैसियत बहुत कम है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की स्थिति इसी तरह लगातार हाशिए में बनी हुई हैं।
कई देशों से खराब स्थिति
संसद और विधानसभा में महिलाओं की उपस्थिति के संदर्भ में हमारी स्थिति हमारे पड़ोसी देशों चीन, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश यहां तक कि अफगानिस्तान से भी खराब है। भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे ज्यादा महिलाओं को अपनी संसद में भेजने वाला देश नेपाल है। नेपाल में तकरीबन 30 फीसदी महिलाएं संसद में हैं, जोकि दुनिया के विभिन्न देशों की संसदों में महिलाओं के औसत 22.5 प्रतिशत से ज्यादा है। वैसे महिलाओं को संसद में भागीदारी देने के नाम पर अमेरिका, रूस और यूरोप के तमाम विकसित देशों का भी रिकॉर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं है।
हैरानी की बात यह है कि महिलाओं को संसद में भेजने के मामले में बेहद पिछड़े और गरीब अफ्रीकी देश, दुनिया के तमाम समृद्ध और ताकतवर देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा उदार हैं। दुनिया की किसी भी संसद में सबसे ज्यादा महिलाओं का प्रतिनिधित्व रवांडा की संसद में है, यहां 60 फीसदी से ज्यादा महिलाएं संसद का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसलिए वह 189 देशों की सूची में सबसे ऊपर है। जबकि भारत की स्थिति बदलती रहती है, कभी वह खिसककर 145वें स्थान पर चला जाता है तो कभी थोड़ा ऊपर आ जाता है।
कब बढ़ेगी भागीदारी
देश में 16 वीं लोकसभा चुनावों के नतीजों तक 269 ऐसी लोकसभा सीटें थीं। जिन पर आजतक एक भी महिला नहीं चुनी गई। कहने का मतलब आजादी के 70 साल गुजर जाने के बाद भी लोकसभा की ये सीटें महिला प्रतिनिधित्व के लिए तरस रही हैं।
ज्ञात हो कि ये तमाम सीटें किन्ही रिमोट सामंती प्रभाव वाले क्षेत्रों में नहीं बल्कि गुजरात की राजधानी गांधीनगर, हरियाणा के सबसे विकसित और अंतर्राष्ट्रीय लाइफस्टाइल के नक्शे कदम पर चलने वाले शहर गुडग़ांव, देश की पहली हाईटेक सिटी का दर्जा पाने वाला शहर हैदराबाद, कर्नाटक का ऐतिहासिक शहर मैसूर और अतीत में ज्ञान की खान माना जाने वाला बिहार की नालंदा लोकसभा सीट भी, इनमें शामिल हैं जहां से आज तक एक भी महिला सांसद नहीं चुनी गई। सवाल है जब हम तमाम दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं को बराबर की भागीदारी देने की बातें करते हैं तो राजनीति के क्षेत्र में ऐसा करने की क्यों नहीं सोचते?
आशा है कि सुधार के इस दौर में मोदी जी एवं भाजपा इस ओर ध्यान देते हुए संसद एवं विधानसभाओं के लिए महिला आरक्षण बिल को पािरत करा कर अपनी कथनी और करनी के अंतर को मिटा देेंगे। – रईसा मलिक