पिछले दिनों मशहूर शायर जनाब हसन काज़मी साहब भोपाल आये हुए थे और इस मौके पर उनसे रईसा मलिक ने बातचीत की। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार के संपादित अंश:-
रईसा- आपको शायरी का शौक कैसे पैदा हुआ?
काज़मी साहब – शायरी या साहित्य के लिए शौक घरेलू माहौल से जागा करता है। हमारे घर में शुरू से साहित्यिक माहौल रहा, मेरे नाना और मामू शायरी किया करते थे। उनकी लाईब्रेरी में जाकर किताबें पढऩे का शौक मुझे बचपन से था। इसके अलावा हमारे घर में अदबी महफिलें होती थीं जिसमें वहां मौजूद हर व्यक्ति को कुछ न कुछ कहना सुनाना होता था।
मेरे वालिद को मौसिकी (संगीत) का शौक था और वो गुलाम अली और मेंहदी हसन साहब की $गज़लें रेडियो पर सुना करते थे। उनके साथ-साथ मैं भी सुनता था और गुनगुनाया करता था और इस तरह धीरे-धीरे मेरा भी शायरी की तरफ रुझान होता गया और घरेलु महफिलों में मैं भी कलाम पढऩे लगा। कालेज में भी मैं सभी तरह की साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल होता था।
कालेज के बाद शहर में नातिया शायरी के मुकाबले होते थे, इनमें मैं भी हिस्सा लिया करता था। हमारे शहर कानपुर में उन दिनों ईद मीलादुन्नबी के मौके पर जगह-जगह जलसों में नातियां मुकाबले हुआ करते थे। वहां मुझे हमेशा कोई न कोई इनाम मिलता था जिससे मेरी हौसला अफज़ाई होती थी। घर वालों ने भी मेरा हौसला बढ़ाया और शायरी की जानिब मेरे कदम बढ़ते गये।
रईसा- हसन साहब जब आप तरन्नुम से पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है जैसे आपने कहीं से गाने की तालीम ली है, आपकी आवाज़ और अदायगी बहुत अच्छी है। इसकी क्या वजह है?
काज़मी साहब- यह बहुत अच्छा सवाल आपने पूछा। दरअसल मेरा शुरुआती रुझान सिंगिंग की तरफ था। इत्तेफाक से मेरे घर के पास एक संगीत के उस्ताद रहा करते थे मो समी साहब। कानपुर के वो माने हुए उस्ताद थे और कई बड़े सिंगर जैसे की अभिजीत भट्टाचार्य वगैरा उनके शार्गिद हुआ करते थे। मैं भी अपने वालिद के साथ उनके यहां कभी कभी चला जाता था। वो मुझे भी सिखाने लगे और कभी-कभी मुझे अपने साथ शहर में होने वाले प्रोग्रामों में ले जाते थे। कालेज में होने वाले प्रोग्रामों में भी मैंने हिस्सा लिया।
एक दिन मेरे उस्ताद ने मुझसे कुछ सुर लगाने के लिए कहा और कई घंटे मुझे सबक देते रहे आखिर में उन्होंने कहाकि तुम गाना नहीं गा सकते, उन्होंने कहाकि बे सुरा चल जाता है बे ताला नहीं चल सकता।
मेरे खालू नगरनिगम में पीआरओ थे, वो नगरनिगम की तरफ से होने वाले आल इंडिया मुशायरे करवाते थे। मेरे शौक को देखते हुए वो मुझे अपने साथ रखा करते थे। एक बार एक मुशायरे के दौरान कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी ‘सहरÓ साहब आये हुए थे। प्रोग्राम में चीफ गेस्ट का इंतजार हो रहा था तो मुझसे कहा गया कि हसन जब तक तुम कुछ सुनाओ तो मैंने मेंहदी हसन साहब की $गज़ल ‘गुलों में रंग भर बादे नौ बहार चले . . .Ó को हूबहू मेंहदी हसन साहब की स्टाइल में सुनाया, जिसे सभी ने पसंद किया। इसके बाद कुंवर महेन्द्र सिंह जी ने मुझसे कहाकि मैं दो शेर बोल रहा हूं तुम इसे लिखो, मैंने लिखा। यह देख कर वो बहुत खुश हुए और जाते हुए वो वहां के उस्ताद शायरों से कह गये कि मैं इस लड़के की शक्ल में आपको एक अमानत सौंप रहा हूं यह बहुत टेलेंटेड है इसकी अच्छे से तरिबयत करो और इसको आगे बढ़ाओ। तो वहां से मेरा शायरी का सिलसिला शुरू हुआ। उसके बाद मेरा मश्के सुख्न शुरू हो गया और लगभग साल भर बाद मैं बाकायदा $गज़लें लिखने लगा। उस वक्त मेरी उम्र 16-17 साल की थी।
रईसा- आपने मुशायरे में कबसे पढऩा शुरू किया?
काज़मी साहब- इसके बाद मैंने नशिस्तों में पढऩा श़ुरू कर दिया था। हमारे शहर में तरही नशिस्तें हुआ करती थीं, जिसमें एक मिसरा दे दिया जाता था और उस पर हम $गज़ल लिख कर ले जाते थे और सुनाते थे। हर हफ्ते हमारी दो $गज़लें हो जाया करती थीं। इन नशिस्तों में हमारी बहुत हौसला अफज़ाई हुआ करती थी कि इतना कम उम्र बच्चा है और इतने अच्छे अशआर कह रहा है।
मैंने अपना पहला मुशायरा झांसी में पढ़ा जहां मुझे बहुत पसंद किया गया। नौजवानों ने खास कर मुझे बहुत पसंद किया।
रईसा- शायरी करते-करते आप पत्रकारिता में कैसे आ गये?
काज़मी साहब- जब मैेंने मुशायरे पढऩा शुरू किया तो वहां देखा कि कई शायरों का ताअर्रुफ (परिचय) कराते वक्त उनके बारे बताया जाता था कि वो आकाशवाणी रेडियो से भी जुड़े हैं। उस वक्त लगता था कि यह शायर सभी शायरों से अलग हैं और इनका सम्मान ज्यादा किया जा रहा है। उसी दौरान मुशायरों के सिलसिले में लखनऊ आना-जाना होता था, बाद में मुझे भी आकाशवाणी लखनऊ से कलाम पढऩे का मौका मिलने लगा।
लखनऊ दूरदर्शन पर मेरे मिलने वाले एक शायर जनाब सैलानी सियोते साहब प्रोग्राम तैयार करते थे। उन्होंने मुझसे कामगार सभा प्रोग्राम के लिए किसानों-मजदूरों पर एक गीत लिखने को कहा, जो मैंने लिख कर दिया और इस तरह से मेरी दूरदर्शन के प्रोग्रामों में भी इंट्री हो गई।
रईसा- आपकी लिखी $गज़लें व गीत कई फिल्मी गायकों ने भी गाये हैं। यह सिलसिला कैसे शुरू हुआ?
काज़मी साहब- मेरी लिखी $गज़लें व गीत हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के कई $गज़ल गायकों ने गाई हैं। मेरी $गज़लें कुछ बड़े गायकों ने गाईं जिसकी वजह से अब हर गायक चाहता है कि वो मेरी $गज़लें गाये। तलत अज़ीज़ की गई मेरी $गज़ल को कम से 10-20 गायकों ने कापी किया है और अपनी आवाज़ में उसे गाया है।
1984 में तलत अज़ीज़ लखनऊ आये हुए थे। लगभग एक हफ्ते तक प्रोग्राम होते रहे। मेरे खालू की वजह से मैं यहां आने वाले तमाम कलाकारों के संपर्क में आया। इसी दौरान मेरी मुलाकात तलत अज़ीज़ साहब से भी हुई और हमारी दोस्ती हो गई। लेकिन मैंने कभी भी किसी गायक से खुद यह नहीं कहाकि मेरी $गज़ल आप गाओ। कलाकारों से दोस्ती होने के नाते मेरा मुम्बई आना-जाना होने लगा।
रईसा- आप शायरी और पत्रकारिता दोनों क्षेत्रों को एकसाथ कैसे मैनेज करते रहे?
काज़मी साहब- यही सवाल पाकिस्तान में मुझसे टीवी ऐंकर ने भी पूछा था कि इतनी सारी चीजों को आप बैलेंस कैसे कर लेते हैं। टेलीविजन में मेरी नौकरी एंकर के तौर पर शुरू हुई उसके बाद मैं न्यूज़ रीडर बन गया। न्यूज रीडर बनने की वजह यह रही कि मैंने देखा कि जिन घरों में आमतौर से टेलीविजन पर कोई प्रोग्राम ज्यादा नहीं देखे जाते थे पर लोग न्यूज के वक्त जरूर टेलीविजन शुरू करवा कर न्यूज सुनना पसंद करते थे। मैंने सोचा कि जो मुकाम किसी फिल्म में हीरो का होता है उसी तरह का मुकाम टेलीविजन में न्यूज रीडर का होता है, क्योंकि जितनी देर भी कोई न्यूज देखता है वो बगौर न्यूज रीडर को देखता है। 1990 से मैं इस क्षेत्र में आया।
मेरा इश्क मगर शायरी था, मैें शायरी करता रहा और पूरी दुनिया में मुशायरे पढऩे जाता रहा। मुम्बई में कई कलाकारों के घर में मेरा सीधा आना-जाना था। जिनमें नौशाद साहब, जावेद अख्तर साहब, शबाना आजमी, हसन कमाल वगैरह शमिल हैं। कैफी साहब जब भी लखनऊ आते थे मैं उनके साथ रहता था। वो जहां भी जाते थे मुझे साथ रखते थे।
उनके गांव में एक लाईब्रेरी तकरीबन 2000 किताबों की कायम की गई है, जिसमें मैंने अपने हाथ से सारी किताबें तरतीब से जमवाई और इसको तैयार करवाया। कैफी साहब मुझे बहुत चाहते थे।
दिल्ली में एक प्रोग्राम मेें मुझे अवार्ड मिला। उस प्रोग्राम में सुनील दत्त साहब, रामानंद सागर साहब वगैरह आये हुए थ। मैं सबसे कम उम्र का इंसान था जिसे यह अवार्ड मिला था। प्रोग्राम के बाद वापस होते वक्त रामानंद सागर ने मुझसे कहाकि मैं तुम्हें सुनना चाहता था पर मेरी फ्लाइट है। उन्होंने अपना कार्ड दिया और कहाकि मुम्बई आओ तो मुझसे मिलना। इसके बाद हुये प्रोग्राम में मैंने अपना कलाम सुनाया, इसमें से कुछ अशआर सुनील दत्त साहब ने भी नोट किये और मेरे कलाम को पसंद करते हुए तारीफ की।
रईसा- अपनी मसरूफियत (व्यस्तता) की वजह से घर में आप कम वक्त दे पाते हैं, इसको लेकर कोई परेशानी तो नहीं होती?
काज़मी साहब- पहले तो ऐसा नहीं था पर अब मैं घर पर बहुत कम रुक पाता हूं क्योंकि अब मेरे प्रोग्राम लगातार चलते रहते हैं। मेरे घर वालों का सहयोग मुझे हमेशा से रहा। शुरू में में वालिद-वालिदा ने मुझे बहुत सहयोग किया और अब घर के सभी लोग समझते हैं और मुझे सहयोग करते हैं। मेरे घर वालों का भरोसा मुझ पर कायम है और हमेशा मेरा साथ देते हैं। मेरे घरवालों ने मेरी परवरिश बहुत सख्तियों के साथ की थी, जिसका नतीजा है कि मैं दुनिया की तमाम बुराईयों से बचा रहा।
रईसा- अभी तक आपको कितने अवार्ड मिल चुके हैं?
काज़मी साहब- मुझे इतने अवार्ड मिल चुके हैं कि तादाद याद नहीं है। मेरे घर में ढेरों अवार्ड रखे हैं। मेरा मानना है कि अवार्ड छोटा हो बड़ा बहुत कीमत रखता है और यह लोगों की मोहब्बत और इज्जत जो मेरे लिए लोगों के दिलों में है को दिखाता है।
मुझे किताबें भी बहुत तोहफे के तौर पर मिलती है। इस तरह से हजारों किताबें भी इकट़ठी हो गई हैं। इनमें से कुछ मैंने अपने रिश्तेदरों को दे दीं ताकि वो पढ़ सकें। अब तो मैं ऐसा करता हूं कि मेरे मिलने वालों को यह किताबें बतौर तोहफा दे देता हूं।
रईसा- मैं यह जानना चाहती हूं कि ऐसी कौनसी जगह है जहां आपने मुशायरा नहीं पढ़ा, क्योंकि मेरे हिसाब से तो आपने पूरी दुनिया में बहुत मुशायरे पढ़े हैं?
काज़मी साहब- आपने सही कहा मैं काफी जगहों पर मुशायरे सारी दुनिया में और हिन्दुस्तान के कई शहरों में पढ़ चुका हूं। लेकिन मेरी ख्वाहिश थी कि कश्मीर में कोई मुशायरा पढ़ूं, लेकिन इत्तेफाक से अभी तक ऐसा कोई मौका नहीं मिला। उम्मीद है मुझे आगे मौका मिलेगा।
रईसा- आपकी $गज़लों में जो आपको ज्यादा पसंद हैं कौनसी हैं?
काज़मी साहब- वैसे तो मुझे अपनी सभी $गज़लें-नज़्में पसंद हैं, क्योंकि जिस तरह मां-बाप को अपनी सभी औलादें पसंद होती हैं उसी तरह शायर को भी अपने सभी कलाम पसंद होते हैं। लेकिन कुछ $गज़लें हैं जो कि गायकों ने गाईं हैं और मुशायरों में भी बहुत पसंद की जाती हैं और अक्सर मुझसे इनको सुनाने की फरमाईश की जाती है।
कुछ $गज़लें के चुनिंदा अशआर सुना देता हूं-
खूबसूरत हैं आंखें तेरी, रात को जागना छोड़ दे।
खुद ब खुद नींद आ जायेगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे।।
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मैं तेरी आंख में आंसू की तरह रहता हूं।
जलते-बुझते हुए जुगनू की तरह रहता हूूं।
सब मेरे चाहने वाले हैं, मेरा कोई नहीं।
मैं भी इस मुल्क में उर्दू की तरह रहता हूं।
यह शेर पाकिस्तान में बहुत पसंदीदा रहा और आज भी यह शेर और $गज़ल हर मुशायरें में सुनाने की फरमाईश की जाती है।
दोस्ती की कोई $कीमत नहीं मिलने वाली।
बेवफा तुझसे मोहब्बत नहीं मिलने वाली।
मां के कदमों के तले ढूंढ ले जन्नत अपनी
वरना तुझकों कहीं जन्नत नहीं मिलने वाली।
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हमसफर तुम हो अगर तो रास्ता कुछ भी नहीं।
फासला कुछ भी हो लेकिन फासला कुछ भी नहीं।।
मैंने माना आईना भी एक ह$की$कत है मगर।
सामने तुम हो अगर तो आईना कुछ भी नहीं।।
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गांव लौटे शहर से तो सादगी अच्छी लगी।
हमको मिट्टी के दिये की रोशनी अच्छी लगी।।
बासी रोटी सेंक कर जब नाश्ते में मां ने दी।
हर अमीरी से हमें यह मुफलिसी अच्छी लगी।।
रईसा- आने वाले नये पत्रकारों को कोई संदेश आप देना चाहते हैं?
काज़मी साहब- आजकल तो पत्रकारिता का कोर्स करके लोग पत्रकारिता में आ रहे हैंं, लेकिन जो कंटेंट निकल कर आना चाहिए वो नहीं आ रहा। पहले के दौर में कोई कोर्स या ट्रेनिंग नहीं होती थी, लेकिन पत्रकारिता जो स्तर था वो आज नजर नहीं आता। पत्रकारिता के दौरान हमारे सीनियर ने कहाकि कोई भी चीज लिखना है तो अपने शब्दों में लिखो, कंटेट को समझ कर लिखो। किसी प्रोग्राम में जाना है तो यह समझें कि हम किस तरह के प्रोग्राम में जा रहे हैं। उसी तरह के कंटेट को समझ कर लिखना चाहिए। हूबहू बात लिख देना पत्रकारिता नहीं है, ऐसा तो ड्रामों में होता है कि डायलाग दोहरा दिये जाते हैं। आप यह समझें कि किस विषय पर प्रोग्राम हैं और कहने वाला जो कहा रहा है उसकी भावना क्या है, उसे समझें और उस पर रिपोर्ट बना कर पेश करें।
मेरी पत्रकारिता के दौर में भी अगर मुझसे कहीं कोई गलती हो जाती थी तो मेरे सीनियर एडिटर मुझे बुला कर बताते थे और समझाते थे कि कहां मैंने गलती की और मुझे उसे कैसे सुधारना है। मैं उस पर काम करता और अपनी गलतियां सुधारने की कोशिश करता था। मुझे हमेशा से सीखने की ललक थी, चाहे शायरी का मैदान हो या पत्रकारिता का मैं हमेशा सीखने की कोशिश करता रहा। इसी तरह से आज के पत्रकारों को पत्रकारिता के मकसद को समझ कर ईमानदारी से अपना काम करना चाहिए। नये लोगों से मैं यह कहना चाहूंगा के आप जो चाहेंगे कर सकते हैं। आप इस क्षेत्र में आये हैं जितना समझ सकते हैं समझें और पढ़ें यह सब आपके काम आयेंगी।
रईसा- नये शायरों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
काज़मी साहब- मैं आज के दौर में देखता हूं कि आज के लोगों को व्हाट्सएप और फेसबुक के प्लेटफार्म मिल गये हैं। उस पर कुछ भी लिख कर पोस्ट कर देते हैं और 100-200 लाइक मिल गये तो वो समझने लगते हैं कि हमने बहुत अच्छा लिखा है। हमारे दौर में तो हम लोगों को शायरी कैसी की जाती है समझने में बरसों लग जाते थे। दस साल हमने प्रेक्टिस की है तरही मुशायरों की तब कहीं जाकर बड़े मुशायरे पढऩे का मौका मिला।
शायरी के मैदान में जो नये लोग आ रहे हैं उनको मेरी सलाह है कि पहले आप अच्छे से पढिय़े। उस्ताद शायरों को पढिय़े क्योंकि बिना पढ़े कुछ हासिल नहीं होता। तमाम बड़े शायरों का लिटरेचर हासिल कीजिए और पढिय़े। इससे आपको समझ में आयेगा कि ख्याल तो एक है लेकिन उसको पेश करने के सभी के तरीके अलग-अलग हैं, सबके अंदाज़े बयां अलग हैं। नये तरीके से किये गये प्रेजेंटेशन से ही निदा फाज़ली, कैफी आज़मी, शहरयार जैसे शायरों ने अपना अलग मुकाम बनाया है।
अपने लिये आपको नये रास्ते बनाना होंगे, पुराने शायरों के रास्ते पर चल कर आप शोहरत नहीं पा सकते और न ही अपना मुकाम बना सकते हैं। आप पढ़ेंगे तो फायदा यह होगा कि कोई शेर आपके ज़ेहन में आता है तो आप सोंचेंगे कि इस बात को ग़ालिब ने ऐसे कहा है, मीर ने ऐसे कहा, ज़ौक ने ऐसे कहा है, जिगर ने ऐसे कहा है, यह सब सोच कर फिर आप उसे अपने तरीके से पेश करेंगे तो ही बात बनेगी। नये लोगों से यही कहना है कि खूब पढ़ें और समझें। पढऩे के साथ याद भी रखें कि किस मौज़ू (विषय) पर किसने क्या कहा ताकि जब उस ख्याल को आप पेश करें तो आपके सामने सारे उस्ताद शायरों के अशआर हों कि उन्होंने किस तरह इस ख्याल को पेश किया है, अब आप उसे अपने अंदाज़ में इस तरह से पेश कर सकें कि आपकी अलग पहचान कायम हो सके।