मशहूर शायर स्वर्गीय ज़फर गोरखपुरी साहब के पुत्र और मशहूर शायर, पत्रकार इम्तियाज़ गोरखपुरी साहब पिछले दिनों भोपाल आये, इस मौके पर रईसा मलिक ने उनका साक्षात्कार लिया। प्रस्तुत है उनसे बातचीत-
सवाल- आपके नाम के आगे गोरखपुरी है तो आप गोरखपुर से मुम्बई कैसे पहुंचे?
जवाब- मुम्बई पहुंचने के पीछे एक कहानी है मुम्बई से गोरखपुर का सफर बड़ा लम्बा है। गोरखपुर से मुम्बई जाने का वाकया अगर मैं आपको सुनाऊं तो 1929 में हमारे दादा रहम अली साहब मुम्बई आये, मुम्बई उस वक्त टैक्सटाइल और मिल का शहर था। उस वक्त लोग नौकरी और काम की तलाश में कलकत्ता और मुम्बई जाना पसंद करते थे। हमारे दादा मुम्बई आए और उन्होंने एक मिल में नौकरी की और फिर कपड़े का कारोबार करना शुरू किया, यह कारोबार अच्छी तरह से जब जम गया तभी बर्मा में जंग शुरू हो गई तो सारे लोग वापस गांव चले गये। चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल था।
जब जंग खत्म हुई उसके बाद वालिद साहब की पैदाइश 1935 मई में गोरखपुर में हुई। उसी समय वहां पर हैजा की बीमारी फैल गई और लोगों में फिर अफरा-तफरी का माहौल पैदा हो गया। तब हमारे दादा-दादी ने फैसला किया कि क्यं न हम मुम्बई वापस जाएं। इस तरह मेरे दादा मेरे वालिद के साथ वापस मुम्बई आ गये।
मेरे वालिद ज़फर गोरखपुरी साहब की तालीम मुम्बई में अंजुमन इस्लाम स्कूल में हुई। इसके बाद वो फिर गांव चले गये। क्योंकि बर्मा में फिर से जंग शुरू हो गई थी। इस तरह से हमारे वालिद की तालीम कुछ मुम्बई में और कुछ गांव में हुई। इस के बाद 1947 में देश आजाद हुआ और देश का बंटवारा हुआ। इस वजह से फिर कई मसले हमारे वालिद के सामने आ गए और कुछ न कुछ परेशानियां चलती रहीं।
1950 में हमारे वालिद साहब फिर मुम्बई आ गए। 1954 में तरक्की पसंद तहरीक मुम्बई में ज़ोरों पर थी। इसकी सदारत सज्जाद रहीम साहब कर रहे थे और इस तहरीक से साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे नामवर लोग जुड़े हुए थे। इस तहरीक से जुड़कर मेेरे वालिद साहब को इन अज़ीम लोगों की सोहबत मिली।
मेरे वालिद साहब को स्कूल के ज़माने से ही लिखने पढ़ने का और शायरी का शौक था। यह हकीकत है कि शायर बनता नहीं बल्कि पैदा होता है। मेरे वालिद ज़$फर गोरखपुरी साहब का रूझान शायरी की तरफ था और उनको तरक़्की पसंद तहरीक में बड़े शायरों का साथ मिला। इस तहरीक़ में उन्हें सबसे कम उम्र नौजवान शायर का खिताब मिला, उस वक्त उनकी उम्र 16-17 साल थी। इस तरह वालिद साहब की अदबी और शायरी जि़न्दगी का आग़ाज़़्ा हो गया। उस दौरान हर 15 दिन या एक महीने में अदबी नशिस्त हुआ करती थीं जिसकी सदारत सज्जाद ज़हीर साहब, कैफी आज़मी साहब या मजरूह सुल्तानपुरी में से कोई किया करता था। इस माहौल में अदबी बातें हुआ करती थीं।
मेरे वालिद साहब ने अपने साथियों से कहाकि मैं चाहता हूं कि मेरी एक किताब छपवाऊं इसपर उनके साथियों ने कहा कि अभी नहीं पहले अदब को और पढ़ो फिर उसके बाद किताब के बारे में सोचो अभी आपकी उम्र ज़्यादा नहीं हुई। कैफी आज़मी साहब ने मश्विरा दिया कि आप अपना पूरा मसविदा लाकर मुझे दिखाओ। देखते हैं अगर छपवाने जैसा है तो इसको छपवायेंगे वर्ना नहीं । इस तरह 1962 में उनका पहला शेरी मजमुआ (काव्य संग्रह) ‘टीसा’ छपा।
सवाल- कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि जब तक कोई चोट नहीं खाये शायर नहीं बनता, इस बारे में आपका क्या ख्याल है?
जवाब- आपके कहने का मतलब मैं समझ रहा हूं लेकिन शायरी जो है वो अपने अन्दर होने वाली वारदात से पैदा होती है, वो किसी भी रूप में हो सकती है। मेरे वालिद के साथ भी कुछ ऐसे हालात रहे जैसे कि मां-बाप से दूर मुम्बई में अकेले रहना, रिश्तेदारों के ज़रिये ज़मीन हड़प लेना, मुम्बई में खुद का मकान न होने की वजह से किराये से रहना और पास में पैसे नहीं होने के बावजूद रिश्तेदारों, बहनों की जि़म्मेदारी निभाना। इन सभी हालात में इनके अन्दर के जज़्बात को जगा दिया।
उसी दौरान सज्ज्जाद ज़हीर साहब ने उनसे कहा रूमानी शायरी से कुछ नहीं होगा, आप जिस तहरीक़ में हो वहां भूखे की भूख को समझो, प्यासों की प्यास को समझो, मज़़दूरों के दर्द को समझो इन सभी चीज़ों को फिर अपनी शायरी में लेकर आओ। इस तरह के तमाम हालात और वाकयात इन्सान को शायर बना देते हैं।
सवाल- मैं आपसे ये जानना चाहती हूं कि शायरी की तरफ जो आपका रूझान हुआ क्या वो आपके वालिद साहब की वजह से हुआ?
जवाब- हां आपका कहना ठीक है मेरे वालिद साहब की वजह से ही मेरा रूझान शायरी की तरफ हुआ, क्योंकि बचपन से ही घर में अदबी माहौल देखने को मिला। हमारे यहां अदीबों (साहित्यकारों) और शायरों (कवियों) का आना-जाना रहता था। इस दौरन में आने वाले अदीबों से सीखने की कोशिश करता था। मैं बचपन में सरदार जाफ़री साहब की उंगली पकड़कर चला। कैफी आज़मी साहब और उनकी बेगम शौकत आज़मी साहिबा अक्सर हमारे घर आया करते थे। मजरूह सुल्तानपुरी साहब, ज़ोया अन्सारी साहब भी हमारे यहां आते थे। हम लोग भी अक्सर उनके घर जाया करते थे। इसलिए मुझे बचपन से ही अदबी (साहित्यिक) माहौल मिला और मेरे अन्दर भी शायरी का शौक पैदा हुआ।
मेरे सामने मेरे वालिद की विरासत को आगे बढ़ाने का सवाल था। मेरी ये सोच थी कि भले ही मैं इसके बहुत ऊंचाईयों तक न ले जा पाँऊ लेकिन इसको कायम तो रखूं। मेरे लिए वालिद साहब के नाम को जि़न्दा रखना बहुत अहम था।
सवाल- अक्सर ऐसा होता है कि बच्चे अपने माँ-बाप के किये जा रहे कामों में जाना पसंद नहीं करते लेकिन आपने उसी मैदान को चुना। अब मैं आपसे ये जानना चाहती हूुं कि आपने किस उम्र से शायरी शुरू कर दी थी?
जवाब- मैं शायरी तो बचपन से ही कर रहा हूं लेकिन वक्त के साथ मैंने काफी कुछ सीखा भी है। नशिस्तों (गोष्ठियों) को सुन-सुन कर मेरे अन्दर भी कुछ लिखने के ख़्यालात (विचार) आते थे। लेकिन ख़्यालात आना ही सब कुछ नहीं होता, उनको शेरों में ढालना अलग चीज़ है। ये एक फन है इसको सीखना पड़ता है। ख्यालात आना अलग है और उसको शेर और शायरी में ढालने के लिए और वज़न-बहर में लाने का फन अलग है। ख्यालात आपके अन्दर से पैदा होते हैं लेकिन उनको शेरों में ढालने के लिए आपको काफी सीखना पड़ता है। उसकी बारीकी को भी समझना पड़ता है। इसके लिए अभ्यास भी करना पड़ता है।
किसी उस्ताद का एक मिसरा लेकर उस पर अपना मिसरा लगाने के अभ्यास करना ज़रूरी है। ये हमने बहुत मुश्किल से सीखा है। हमने अपने वालिद साहब, उनके दोस्तों से भी सीखा। शायरी करना बहुत मुश्किल काम है। आजकल लोग इसे बहुत आसान समझते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। मेरा ऐसा मानना है कि शायरी एक प्रोसेस (प्रक्रिया) का नाम है। इसमें कोई शार्टकट (छोटा रास्ता) नहीं होता। शायरी करने के लिए आपको पहले सीखना है, अभ्यास करना है तब जाकर आप अच्छी शायरी कर सकते हैं।
सवाल- मुशायरों में आपने कब पढ़ना शुरू किया?
जवाब- मुशायरों में पिछले दस-पन्द्रह साल से पढ़ना शुरू किया है। पिछले दो दशकों से जो मुशायरों के हालात हो गए हैं उसको देखकर अब मैं कम ही मुशायरों में पढ़ता हूं। मुशायरा अब ऐसा लगता है जैसे कुश्ती का मुकाबला या ज़ोर आज़माई की जगह बन गये हैं। मेरा बैकग्राउंड और मेरी सोच मुझे इसकी इजाजत नहीं देता कि मैं ऐसी जगहों पर जाऊं जहां पर सस्ती शायरी हो और सस्ती शोहरत के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार हों।
पहले जब मैं अपने वालिद साहब के साथ मुशायरों में जाया करता था तो वहां अपने ज़माने के नामचीन शायर मौजूद रहा करते थे। और म्यारी (स्तरीय) शायरी हुआ करती थी। अब वो दौर खत्म हो गया। अब सब कुछ बनावटी हो गया है। सब ए आई की तरह हो गया है । आजकल ये चलन हो गया है शायरी लिख कोई रहा है और मंच पर कोई और अपने नाम से पढ़ रहा है। ये सब चीजें़ देखने में आ रही हैं। हालांकि सिर्फ कुछ शायर ऐसा कर रहे हैं, सब ऐसे नहीं हैं। इसी वजह से आज के दौर के मुशायरों की तरफ मेरी दिलचस्पी कम है।
सवाल- शायर होने के साथ-साथ आप पत्रकारिता भी कर रहे हैं, इस क्षेत्र में आपका कैसे आना हुआ?
जवाब- जब आप लिखने-पढ़ने के मैदान में काम कर रहे होते हैं तो आपके लिए बहुत सारे रास्ते खुल जाते हैं। शायरी के शौक की वजह से ज़बान पर अच्छी पकड़ बनी और पत्रकारिता की तरफ हमारा रुख हुआ। इस दौरान हम जावेद सिद्दीकी साहब, ज़ोया अन्सारी साहब और हसन कमाल साहब के आलेख पढ़ते थे तो हमको लगता था कि शायरी के अलावा मज़मूनों (लेखों) के ज़रिये भी अपनी बात कही जा सकती थी। जो बात शायर दो लाईन में अपने शेर के माध्यम से कहता है वही बात मज़मून (लेख) के ज़रिये एक अच्छा लेखक लोगों के बीच पहुंचा सकता है। इसी वजह से मुझे मज़मून लिखने का शौक हुआ।
हमने कोशिश की और हमने अपने ख्यालात और जज़्बात को अखबारों और रिसालों (पत्रिकाओं) तक लिख कर पहुुंचायें। आज के दौर में लोग सच लिखने और पढ़ने को तैयार नहीं हैं। तो हमने सोचा कि हम अपने तरीके से अदब को लिखे और पेश करें। हमारी ये कोशिश है कि जो लोग सही मायनों में कुछ लिख-पढ़ रहे हैं, उसे लोगों के सामने लाया जाये। इस तरह हम सहाफत (पत्रकारिता) के क्षेत्र में आ गये।
सवाल- पत्रकार के रूप में आप क्या काम कर रहे हैं?
जवाब- मैं पहले कई मैग्ज़ीनों (पत्रिकाओं) से जुड़ा हुआ था लेकिन ख्यालात के मेल न खाने की वजह से मैंने सबको छोड़ दिया है। मैं बहुत जल्द अपनी पत्रिका शुरू करने जा रहा हूं। हमारे साथी असलम शेख साहब ने एक संस्था बनाई है ‘याराने उर्दू मुम्बई। इसी संस्था के बैनर तले बहुत जल्द हम एक अदबी रिसाला (पत्रिका) नवम्बर या दिसम्बर में हम शाया (प्रकाशित) करने जा रहे हैं। जो मेरे इदारत (संपादन) में शाया (प्रकाशित) किया जाएगा। इस रिसाले के ज़रिये हम नये अदीबों (साहित्यकारों) की हौसला अफज़ाई (प्रोत्साहन) करेंगे और उनके कलाम (रचनाओं) को शाया (प्रकाशित) करेंगे।
सवाल-क्या आप अपनी रिर्पोटिंग में सच्चाई को अहमियत देंगे और बिना लाग-लपेट के हक़ीकत को सामने लायेंगे?
जवाब- जी हां मेरी यही कोशिश है कि हम सच को सच लिखें और जो सही मायनों में अदब की खिदमत कर रहे हैं उनको आगे बढ़ायें। हम ऐसे लोगों को कतई आगे नहीं बढ़ायेंगे जो सस्ती शोहरत के लिए किसी से भी हाथ मिला लेते हैं। ऐसे लोगों से हम दूरी बनाते हुए कोशिश करेंगे कि ऐसे लोगों कि सच्चाई सामने ला सकें।
मैं अभी भी बहुत कुछ सीखने की कोशिश कर रहा हूं। मेरे वालिद साहब के पुराने दोस्तों से मिलकर सीखने की कोशिश करता रहता हूं। सीखने का अमल (कार्य) हमेशा जारी रहना चाहिए, जब आपको लगता है सब मुकम्मल (पूर्ण) हो गया है। तो आपका ज़वाल (पतन) शुरू हो जाता है। हमें हमेशा एक सीखने वाला बनकर लोगों से मिलना चाहिए।
मैं आज भी किताबें खरीदकर पढ़ता हूं, तोहफे में किताबें नहीं लेता। मुझे किताबें पढ़ने का बहुत शौक है। मेरे पास घर में हज़ारों किताबें हैं, और जिन किताबों को मैं पढ़ चुका हूं उनको पूरे देश की अलग अलग लायब्रेरियों (पुस्ताकालयों) को भेज देता हूं ताकि इन किताबों को पढ़कर दूसरे लोग भी फायदा उठा सकें।
लोगों के बीच में इल्म (ज्ञान) तकसीम (बांटना) करना बहुत अच्छा मक़सद है। आप अच्छे लिखने वालों को किताबें तोहफ़े में देकर, उनकी लिखी किताबों को छपवाने में मदद कर या प्रोग्रामों में शिरकत करवा कर उनकी हौसला अफज़ाई (प्रोत्साहन) कर सकते हैं। हमारी संस्था ‘याराने उर्दू मुम्बई का मकसद भी यही है कि हम इस तरह के कामों को आगे बढ़ायें। मैं कई बार अच्छे शायरों की पचास-साठ किताबें खरीदकर लोगों में बांट देता हूं ताकि उनका कलाम ज़्यादा से ज़्यादा लोगों पहुंच सके।
सवाल-सीखते रहने को लेकर नौजवानों से आप क्या कहना चाहते हैं?
जवाब- हमारे वालिद ज़फर गोरखपुरी साहब नये शायरों को बुला कर उनके कलाम सुनते थे और उनकी इस्लाह (सुधार) किया करते थे। इस तरह उनको नये ख्यालात (विचार) और इस दौर में क्या चल रहा है कि जानकारी मिलती थी। उन्होंने कई नज़्में, क्रिकेट और साइंस पर लिखी हैं।
नये लोगों से आप जब भी मिलेंगे तो आपको उनसे बहुत सी नई चीजें सीखने को मिलेंगी। आज कल कुछ लोगों को लगता है कि हमारा नाम और शोहरत बहुत है और ऐसा सोचकर वो नौजवान लोगों से मिलना पसंद नहीं करते। जबकि होना ये चाहिये कि आप उनसे मिलिये उनकी सुनिये और अपनी उन्हें सुनाइये। इससे अदब में नये ख्यालात मिलेंगे।
सवाल- क्या आपकी कोई किताब छपी है?
जवाब- मेरी दो-तीन किताबें छप कर आने वाली हैं, इनमें रूमानी गज़लों का इन्तख़ाब (संकलन) ‘ये इश्क नहीं आसां, जिसमें पूरी दुनियां से दो सौ शायरों की गज़लें ली गई हैं। एक नज़्मों का इन्तखाब (संकलन) ‘मोड़ यहां है शामिल हैं। वालिद साहब की भी कुछ कुल्लियात भी मैं शाया (प्रकाशित) कर रहा हूं।
मेरे एक दोस्त हैं जर्मनी के अनवर ज़हीर रहबर जिन्होंने 1942 के दूसरे विश्व युद्ध में ज़िन्दा बचे लोगों से बातचीत कर उस दौर के हालात को जानने की कोशिश की है। ये किताब इंग्लिश और जर्मनी में छप चुकी है और मैं इसका उर्दू एडिशन (संस्करण) निकालने जा रहा हूं। अमृता प्रीतम की बायोग्राफी (आत्मकथा) भी बहुत जल्द मैं छपवाने जा रहा हूं।
सवाल- मुझे ऐसा लगता है कि आप ज्यादा से ज्यादा लोगों को अदब से जोड़ना चाहते हैं?
जवाब- जी हां बिल्कुल ठीक कहा आपने हमारी कोशिश यही है कि ज्यादा से ज्यादा लोग अदब (साहित्य) से जुड़ें। हालांकि आजकल लोगों में पढ़ने की आदत कम हो गई है, इसलिए हम सोच रहे हैं कि हम किताबों का पीडीएफ बनाकर या इन किताबों को आडियों की शक्ल में लोगों तक पहुुंचायें ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग देखें-सुनें।
हमारे एक दोस्त हैं फिल्म राइटर जावेद सिद्दकी साहब वो कहते हैं कि अगर लोग नहीं पढ़ रहे हैं तो किसी अच्छी आवाज़ में उसको ऑडियो कि शक्ल में रिकॉर्ड कर ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचायें। किसी भी तरीके से कानों में उर्दू अदब जाना चाहिये।
सवाल- उर्दू अदब से जुड़ने पर क्या फायदे मिल सकते हैं?
जवाब- फिल्म इंडस्ट्री हो या गायकी, दोनों जगह आपको कामयाबी हासिल करने के लिए उर्दू जानना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि आपकी बोलचाल में जब तक उर्दू अल्फाज़ों (शब्दों) का तलफ़्फुज़ (उच्चारण) ठीक नहीं होगा तब तक न तो फिल्मों में आपको कामयाबी (सफलता) हासिल होगी और न ही आपकी गायकी ऊंचाईयों तक पहुंच पायेगी।
कामयाब फिल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर जैसे कि यश चौपड़ा और करण जौहर जैसे लोगों के यहां कई उर्दू जानने वाले लोग जुड़े रहते हैं। इन लोगों के ज़रिये ये लोग पैसा तो काफी बना लेते हैं लेकिन कभी इनको क्रेडिट नहीं देते। उर्दू ज़बान की बदौलत फिल्म इंडस्ट्री में कई लोगों ने बहुत पैसे कमाये हैं। बड़े अफसोस की बात है शायरों और उर्दू जानने वाले लोग जो उनके यहां काम करते हैं उनके साथ उनका रवैया बहुत खराब रहता है।
सवाल- मैंने बचपन से सुना है उर्दू ज़बान जब तक आपको नहीं आएगी आप कहीं भी कामयाबी नहीं हासिल नहीं कर सकते हैं, इसमें कितनी सच्चाई है?
जवाब- फिल्म इंडस्ट्री की मशहूर गायिका लता मंगेशकर ने भी अपनी गायिकी के लिए उर्दू ज़बान को नागपाड़ा में रहने वाले एक उस्ताद से सीखा था। उन्होंने उर्दू तलफ्फुज सीखने पर बहुत ध्यान दिया। उर्दू ज़बान से लोगों ने फायदा उठाया और बहुत कमाया है। उर्दू ज़बान की मिठास से आप लोगों के दिलों को जीत सकते हैं और ये खूबी और किसी दूसरी ज़बान में नहीं है।
सवाल- आजकल के नौजवान जो पत्रकारिता और अदब के मैदान में काम करना चाहते हैं उन्हें आप क्या संदेश देना चाहते हैं?
जवाब- मेरा उन लोगों से कहना है कि अपने सीनियर लोगों को पढ़ें अपने हमउम्र और जूनियर्स को पढ़े्। पढ़ना बहुत ज़रूरी है, बिना पढ़े कुछ भी नहीं आयेगा। मेरा नौजवान शायरों से कहना है कि शायरी लिखना शुरू करें तो गज़लें लिखने से पहले नज़्में लिखना शुरू करें। आज़ाद नज़्मों में आप अपनी बात को अच्छे से कह सकते हैं। दूसरी बात है कि नौजवान अपनी विरासत को संभालें और अच्छी बातों को आगे आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने की जि़म्मेदारी उठायें, इसे सिर्फ अपने तक ही मेहदूद (सीमित) न रखें।
मेरा कहना है कि जब आप बोलें जिस ज़बान (भाषा) में बोलें उस ज़बान पर आपको पूरा अधिकार होना चाहिए। मिली-जुली खिचड़ी ज़बान में काम करने से कोई फायदा नहीं मिलेगा। मिसाल के तौर पे मैं ये बताना चाहूंगा की फिराक गोरखपुरी साहब जब अंग्रेजी बोलते थे तो कोई ये नहीं समझ सकता था कि ये उर्दू के शायर हैं और जब उर्दू बोलते थे तो कोई ये शिनाख्त नहीं कर पाता था कि ये उनकी मादरी ज़बान नहीं है।
मैं लोगों से ये कहना चाहूंगा कि उर्दू को बढ़ावा देने के लिए अपने घरों में बच्चों से उर्दू में ही बात करें और उनको अपनी तहज़ीब और ज़बान से रूबरू करवायें।
सवाल- आपने मुझे कीमती वक़्त दिया इसके लिए मैं आपका शुक्रिया अदा करती हूं?
जवाब- मैंने आपको इसलिए वक़्त दिया कि उर्दू अदब को लेकर हम जो भी बातचीत करेंगे उससे लोगों को फायदा होगा और ये बातचीत किसी न किसी प्लेट फार्म के ज़रिये काफी लोगों तक पहुंचेगी