सवाल- डॉ. नवाज़ देवबंदी साहब आपको शायरी करने का ख्याल कैसे आया आपके यहां कोई और भी शायरी करता है या इसकी शुरूआत आपने ही की?
उत्तर- मेरा एकेडमिक नाम मोहम्मद नवाज़ खान है लेकिन कलमी दुनियां (साहित्य जगत) में मेरा नाम डॉ. नवाज़ देवबंदी है, इसलिए कि मैं देवबंद का रहने वाला हूं। मैंने चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी से उर्दू सहाफत में पीएचडी की थी, इसके साथ ही जामिया उर्दू अलीगढ़ ने एजाज़ी डीलिट् की डिग्री (मानद उपाधि) भी दी है, इसलिए लोग डॉक्टर भी कहते हैं।
बचपन में मैं स्कूल में एसेम्बली प्रेयर (प्रार्थना) कराता था। क्योंकि मेरी आवाज़ अच्छी थी, लोग पसंद किया करते थे। इसलिए वहां के टीचर्स ने मुझे ये जिम्मेदारी दी थी। एसेम्बली में लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी, सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, और जन गण मन अधिनायक जय है राष्ट्रगान आदि पढ़ा करते थे। जब स्कूल में कोई कल्चरल प्रोग्राम होता था तो लोग मुझसे कहा करते थे कि गज़़ल या नज़्म याद करके लाना तो मैं उसको पढ़ता था तो मेरे साथी उसकी तारीफ किया करते थे। मेरा मानना है कि जब हौसला अफज़ाई (तारीफ) ही से इन्सान के मुस्तकबिल (भविष्य) की तस्वीरें बनती हैं।
मैं मानता हूं कि लोगों में ये रूझान होना चाहिए कि अपने आस-पास अगर आप किसी में कोई सलाहियत, कोई टेलेंट, लियाकत देखें तो उसके कांधे पर हांथ रखकर अच्छा ज़रूर कहा करें, क्योंकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का भी फरमान है कि नेमतों की कद्र किया करो। लोग मुझे अच्छा कहते थे तो उस स्टेज से मुझे हौसला मिला। मेरे बड़े भाई उमर दराज़ खां ‘उमर जो मेरे उस्ताद भी थे शायरी किया करते थे। हमारे देवबंद में मकामी नशिस्त (स्थानीय गोष्ठियां) होती थीं जिनको मैं सुनने जाया करता था। किसी ने सच ही कहा कि स्टेशन पर रहते-रहते लोग कुली हो जाते हैं, ऐसा मेरे साथ भी हुआ, मुशायरे सुनते-सुनते हम भी शेर कहने लगे तब मैं छठी क्लास में पढ़ता था।
सवाल- मैंने सुना है कि शायरी के साथ-साथ आप तालीम के लिए भी काफी काम कर रहे हैं?
जवाब- असल में मुझे बचपन से ही पढऩे के साथ-साथ पढ़ाने का भी शौक बहुत था। जब मैं पांचवीं क्लास में पढ़ता था, तब पहली क्लास केे दो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था, जिसके मेहनताने के तौर पर मुझे अठन्नी मिला करती थी। इससे मेरी ज़रूरतें भी पूरी हो जाया करती थीं क्योंकि उस ज़माने में अठन्नी की बहुत कीमत हुआ करती थी। यहां से मुझे पढ़ाने का, तालीम देने का शौक पैदा हो गया। लेकिन ट्यूटशन पढ़ाना मेरी जि़न्दगी का कारोबार नहीं था। मेरा तो मकसद था, मुआशरे और समाज को तालीम याफ्ता (शिक्षित) करना। मैं पढ़ाने के साथ-साथ खुद भी पढ़ता रहा और धीरे-धीरे जि़न्दगी की तालीमी ऊंचाईयों (शैक्षणिक योग्यताओं) को हासिल किया।
मेरे ज़हन में एक बात थी कि मुआशरे और समाज में कोई बड़ी तब्दीली (परिवर्तन) आयेगी या इन्कलाब आयेगा तो वो बेटियों की तालीम (शिक्षा) से आयेगा। इसलिए मैंने तालीम की तरफ तवज्जो रखी और खासतौर से बेटियों की तरफ तवज्जो रखी। इसके लिए मैंने 26 स्कूल खुलवाए हैं, इन सभी स्कूलों में बेटियों को तालीम दी जाती है। इनमें से एक स्कूल मेरा निजी है बाकी कुछ ट्रस्ट के हैं, और बाकी दीगर लोगों के हैं।
सवाल- आप बच्चियों की शिक्षा के लिए नया स्कूल खुलवाने को लेकर लोगों को कैसे प्रेरित करते हैं?
उत्तर- मैं अपने दोस्त, अहबाब, चाहने वाले साहबे हैसियत (क्षमतावान) लोगों से बात करउनको तैयार करता हूं कि वो बच्चियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोलें, बेलौस (बिना लालच) होकर उनके स्कूलों को चलवाने में हम उनकी पूरी मदद करते हैं। लेकिन उनके मैंनेजमेंट और फाइनेंशियल (वित्तीय) मामले में हम शामिल नहीं होते। क्योंकि लोगों को एक ही डर होता है कि उनके मेंनेजमेंट में शामिल होकर हम उनके स्कूल पर कब्ज़ा न कर लें, और कहीं फाइनेंशियल (वित्तीय) मामले में हम हिस्सेदार न बन जाएं। तो उनका यह डर हम पहले ही निकाल देते हैं। इस तरह से हम अपने मकसद (प्रयास) में कामयाब हो जाते हैं कि एक नया स्कूल खुल जाता है। हमारा म$कसद स्कूल खुलवाकर बच्चियों को तालीम देना है कोई भी स्कूल खुलता है तो हमें लगता है वो हमारा ही स्कूल है।
सवाल- लोग कहते हंै कि एक बच्चा पढ़ता है तो सिर्फ एक ही पढ़ता है लेकिन जब एक बच्ची पढ़ती है तो दो खानदान पढ़ते हैं इस पर आपका क्या कहना है?
जवाब- मैं आपकी इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहता हूं कि जब बच्ची पढ़-लिख लेगी तो एक बेहतरीन बेटी होगी, जब बेहतरीन बेटी होगी तो वह बेहतरीन बीवी होगी, और जब बेहतरीन बीवी होगी तो वह बेहतरीन माँ भी होगी। इसी तरह आगे के रिश्ते जैसे बहू, नन्द, और सास, देवरानी, जिठानी, आदि सभी रिश्ते अच्छे से निभा सकेगी। जिन घरों में इन सभी रिश्तों में मोहब्बत होगी तो मेरा मानना है वैसे मैंने जन्नत देखी तो नहीं लेकिन मुझे लगता है कि वो घर जन्नत का नमूना होगा। ऐसा सुन्दर सुकून भरा समाज बनाने का मेरा म$कसद है और मैं उसे बनाने में लगा हुआ हूं।
सवाल- किन-किन शहरों में आपके इस तरह के स्कूल चल रहे हैं?
जवाब- चूंकि मैं देवबंद का रहने वाला हूं तो देवबंद में इस तरह के कई स्कूल बनाये हैं मुजफ़्फ़रनगर में, खुरजा, रूढ़की, टापुर स्टेट इस तरह मुखतलिफ (विभिन्न) जगहों पर मुखतलिफ (अलग-अलग) स्कूल खुलवाये हैं। यह सभी बहुत अच्छे तरीके से चल रहे हैं। अच्छा काम कर रहे हैं। बेटियों की तालीम से आने वाली खुशबू से लगता है कि समाज बहुत अच्छे से तरक़्की कर सकता है बल्कि कर रहा है। सामाजिक, सोशल और पोलिटिकल (राजनीति) तीनों जगहों पर पढ़ी-लिखी बेटियां बहुत अच्छे से काम कर सकती हैं। बेहतरीन बेटी बेहतरीन घर, बेहतरीन समाज, और बेहतरीन मुल्क बना सकती है। तो सभी से गुज़ारिश है कि अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखा कर बेहतरीन बनायें।
सवाल- लोगों का कहना है कि उर्दू धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है इस पर आप का क्या कहना है?
जवाब- स्क्रिप्ट जिसे रस्मुलखत कहते हैं। वो खत्म होता जा रहा है। एहलियाने उर्दू को इसे जि़न्दा रखने के लिए इसकी फिक्र और मेहनत दोनों ही करनी पड़ेगी। इसके साथ ही साथ जद्दो-जहद की ज़रूरत ही नहीं इबादत यानि साधना की ज़रूरत है। इसके लिए तो बहुत ही जबरदस्त काम करना पड़ेगा। कोई भी ज़बान इतनी जल्दी नहीं मर सकती, मैं नहीं मानता कि उर्दू ज़बान इतनी जल्दी मर जायेगी। उर्दू तो बहुत ही सख्तजान, प्यारी बहुत शीरी भी है। मेरा मानना है कि मुआशरे के अन्दर हम ऐसी ज़बान को जि़न्दा रखें जो पढ़ी समझी और बोली भी जा सके और जिसे सुनकर लोग मुतास्सिर (प्रभावित) भी हों। आजकल एक चलन बहुत चल गया है कि हम उर्दू में बहुत ज्य़ादा फारसी और हिन्दी वाले बहुत ज्य़ादा संस्कृत के शब्दों को इस्तेमाल करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे भाषा के साथ ज्यादती कर रहे हों, जबकि देश में बोली जाने वाली भाषा बहुत ही सरल और सौम्य होनी चाहिए। हमारी जि़म्मेदारी है शोअरा (कवियों) की, उदबा (साहित्याकारों) की, पढ़े-लिखे लोगों की कि हम ऐसी ज़बान बोलें जिसे आम लोग समझ सकें और मुतास्सिर हों। खासतौर से हिन्दुस्तान में हम ऐसी ज़बान बोलें कि जिससे हमारे ऐहले वतन हजऱात (देशवासी) हैं हमारे दोस्त हैं वो खुद इस ज़बान को पसंद करते हैं और जि़द मेें इन्कार करते हैं इस ज़बान से। उर्दू ज़बान में बड़ी मखनातीसियत (चुम्बकीय प्रभाव) है और उर्दू की तो वो तासीर है कि इसे सभी सुनना पसंद करते हैं। अगर आप उर्दू से मोहब्बत करते हैं तो हमारी ये जिम्मेदारी है कि मोहब्बत के साथ, अख्ला$क के साथ ये ज़बान हम अपने दोस्तों तक पहुंचायें।
सवाल- उर्दू की तासीर है कि दो लोग जब आपस में बात करते हैं तो सुनने वाले खुद ब खुद उनके बातों को सुनकर ज़बान की शीरीं से मुतास्सिर होते हैं इस बारे में आपका क्या कहना है?
जवाब- हमने बहस तनाज़े के ज़रिये से उसको लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है। जैसे एक तरफ उर्दू को रखकर एक तरफ हिन्दी को रखकर दो लोगों की बहस के जरिये अपनी बात को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है। लेकिन याद रखिए कि जब आप किसी से बहसो मुबाहेसा (वाद-विवाद) करने लगते हैं तो वो आपकी अच्छी बात को भी तस्लीम (कुबूल) नहीं करता, इसलिए मेरे दोस्तों से, मेरे बच्चों से, मेरी आने वाली नस्लों से गुजारिश है कि आप मोहब्बत के पुल बनाईये। मेरे चार मिसरे हैं कि-
मोहब्बत के चरागों को जो आंधी से डराते हैं,
उन्हें जाकर बता देना कि हम जुगनू बनाते हैं।
ये दुनिया दो कनारों को कभी मिलने देती,
चलो दोनों किसी दरिया में मिलकर पुल बनाते हैं।
उर्दू और हिन्दी दोनों मिलकर एक ऐसा पुल बनाये जहां रिश्ते मज़बूत हो जहां ताल्लुक़ात मज़बूत हों जहां सियासत एक हो और मुल्क बड़ा बने और हमारा हिन्दुस्तान एक बेहतरीन हिन्दुस्तान बने।
सवाल- आपने कौन-कौन सी किताबें लिखी हैं?
जवाब- मेरा शेरी मज़मुआ पहला आसमान, पहली बारिश और दो शेरी मज़मुआ अभी आ रहे हैं। और मेरे ऊपर दुनिया के सौ बड़े लोगों ने आर्टिकल (लेख) लिखे हैं उसका नाम है ‘ज़र्रानवाज़ी वो कुछ दिन पहले मन्ज़रे आम पर आ गयी है और एक किताब हिन्दी में भी ‘जर्ऱानवाज़ी आ रही है।
मुझे गज़ल शीरी का अर्वार्ड रोटरी क्लब की तरफ से दिया गया था उस पर इण्डिया टीवी के चीफ एडिटर राणा यशवंत जी एक किताब तैयार कर रहे हैं ‘गज़्ाल शीरी नवाज़ देवबंदी के नाम से जिसमें मेरे ऊपर कई लोगों के आर्टिकल्स (आलेख) हैं वो भी हिन्दी में ही आ रही है।
यह खुशनसीबी होती है कि किसी भी शायर को, नगमा निगार को, तखलीक कार को साधु-संत, गाने वाले गाने लगें। तो मेरी खुशनसीबी ये है कि हिन्दुस्तान के बड़े गज़ल गायक जगजीत सिंह ने मेरे कलाम को गाना शुरू किया। मेरी एक ग़ज़ल बहुत सुपर-डुपर हिट रही कि-
तेरे आने की जब खबर महके,
तेरी खुशबू से सारा घर महके।
याद आये तो दिल मुन्नवर हो,
दीद हो जाये तो नज़र महके।
एक बहुत बड़े संत मुरारी बापू कथा करते हैं तो उसमें मेरे अशआर भी शामिल करते हैं। खास बात यह है कि जब कथा के बीच में वो मेरे शेर पढ़ते हैं तो वो ये नहीं कहते कि किसी ने कहा है या नवाज़देव बंदी ने कहा है बल्कि वो ये कहते हैं कि हमारे भाई नवाज़ देवबंदी ने कहा है। तो यही सही मायने में हिन्दुस्तान है। जब वो इस तरह से कहते हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने फैवीकोल के जोड़ से जोड़ दिया है हमको आपस में।
सवाल-मैं आप से गुजारिश करती हूं कि आप अपने पसंदीदा अशआर हमारे दर्शकों को सुनाएं।
जवाब- जी मेरी जि़न्दगी का पसंदीदा शेर है। अल्लाह तआला ने बड़ी मकबूलियत अता की-
वो रूला कर हंस न पाया देर तक,
जब में रोकर मुस्कुराया देर तक।
कि गुनगुनाता जा रहा था एक फकीर,
धूप रहती है न साया देर तक।
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक।।