सामाजिक सोच रखने वाले देश का प्रत्येक बुद्धिजीवी व साधारण नागरिक भी आज शासकीय स्कूलों में शिक्षा की गिरती हुई गुणवत्ता को लेकर खासा चिंतित है। इन्होंने अपनी यह चिंता विभिन्न माध्यमों से सरकार व जनता के समक्ष व्यक्त भी की है।
विभिन्न गैर-सरकारी व सरकारी संगठनों के सर्वेक्षणों से स्पष्ट हो चुका है कि शासकीय स्कूलों में कक्षा आठवीं के 65 प्रतिशत छात्रों की शैक्षणिक योग्यता कक्षा दूसरी के स्तर की भी नहीं है। यही कारण है कि कक्षा नवमी के बाद 50 प्रतिशत से अधिक छात्र हताश होकर पढ़ाई छोड़ रहे हैं। इससे अनेक कारणों में से एक कारण ‘नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 ((The Right of children to free and compulsory educatiion.) की धारा -16 है। इस धारा के तहत यह अनिवार्य प्रावधान रखा गया है कि प्राथमिक शिक्षा (कक्षा-1 से कक्षा-8) में किसी भी छात्र को किसी भी कक्षा में रोका ना जायेगा। जबसे यह अधिनियम लागू हुआ तब से कक्षा-1, से कक्षा-8 तक के सभी छात्र बिना परीक्षा पास किये अगली कक्षा में प्रमोट किये जाने लगे। उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण होने का जब भय ही समाप्त हो गया तो विशेष रूप शासकीय स्कूलों के शिक्षक, छात्र व पालक सभी पढ़ाने व पढऩे के प्रति लापरवाह हो गये। इस लापरवाही के नतीजे में 5-6 वर्षों में ही शिक्षा के गिरते हुए स्तर के रूप में सामने आ गये हैं।
संभवत: इसी कारण से केन्द्र सरकार द्वारा जारी किये गये नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में आरटीआई 2009 की धारा-16 को संशोधित किया जाकर कक्षा-1 से 8 तक के स्थान पर ‘रोके ना जानेÓ की नीति केवल कक्षा-1 से 5 तक लागू करने का निर्णय लिया गया। नई शिक्षा नीति के लिये प्रस्तावित यह प्रावधान भी शिक्षा के क्षेत्र में गंभीर रूप से दुर्भाग्यजनक है। यदि नई शिक्षा नीति में यह प्रावधान कक्षा-पांचवी तक पुन: लागू किया गया तो अगले 5 वर्र्षों में इसके परिणाम कक्षा-पांचवी के बाद ही छात्रों के बड़े ड्राप-आउट के रूप में सामने आने लगेंगे। इसके कारण बहुत स्पष्ट हैं। आवश्यकता है केवल प्राथमिक शिक्षा की प्रकृति को समझने की।
वास्तव में प्राथमिक शिक्षा अपने आपमें एक विज्ञान है। कोई भी बालक महाभारत के अर्जुन सुत अभिमन्यु की तरह अपनी माता के गर्भ से शैक्षणिक ज्ञान को साथ में लेकर जन्म नहीं लेता है। प्रत्येक बालक कक्षा दर कक्षा अक्षर, मात्रा, शब्द, वाक्य, पाठ और अंत में पुस्तक पढऩे तथा इसी क्रम में गणित की विभिन्न क्रियायें समझने और उन्हें हल करने की योग्यता अर्जित करता है। तभी वह आगे विभिन्न विषयों की पुस्तकें, पढऩे के योग्य हो पाता है।
शिक्षा की इसी अनिवार्य प्रकृति के कारण शिक्षा मनीषियों ने प्रारंभ से ही प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को इस प्रकार तैयार किया और उसे कक्षा दर कक्षा इस प्रकार विभाजित किया कि कक्षा-पहली के पाठ्यक्रम में दक्षता प्राप्त करने के पश्चात की उससे अगली (कक्षा-दूसरी) कक्षा के पाठ्यक्रम को सीखना संभव है। तात्पर्य कि अक्षर सीखे बिना शब्द पढऩा-लिखना संभव नहीं है। इसी क्रम से कक्षायें और उनका पाठ्यक्रम आगे बढ़ता है। छात्र धीरे-धीरे एक-एक कक्षा का पाठ्यक्रम सीखते हुए भाषा और गणित की प्रारंभिक क्रियाओं में दक्षता प्राप्त करते हैं। इतना सब कक्ष पांचवी तक संभव हो पाता है। इसके पश्चात ही विषयवार अध्ययन प्रारंभ होता है। प्राथमिक शिक्षा के कक्षा-1 से 5 तक के पाठ्यक्रम को क्रमवार कक्षाओं में दक्षता प्राप्त कर छात्र पूर्ण कर सकते हैं। किसी छात्र के लिये यह संभव नहीं है कि इस क्रम के बिना प्राथमिक शिक्षा (कम से कम कक्षा-1 से 5 तक) के पाठ्यक्रम में दक्षता प्राप्त कर सकें। इसीलिये शिक्षा व्यवस्था में हमेशा से वार्षिक परीक्षा का महत्व रहा है।
परीक्षायें लिये जाने का उद्देश्य केवल यह ज्ञात करना होता है कि कक्षा विशेष के पाठ्यक्रमों को छात्र ने कितना सीखा, कितनी दक्षता अर्जित की। यदि छात्र ली गई परीक्षा में औसत अंकों से भी उत्तीर्ण हो जाता है तो यह ज्ञात हो जाता है कि उसने अगली कक्षा के पाठ्यक्रम को समझने और सीखने योग्य दक्षता हासिल कर ली है। इसीलिये ऐसे छात्रों को उत्तीर्ण घोषित कर उनका अगली कक्षा में भेजा जाना प्रमाणित कर दिया जाता है। यदि कोई छात्र परीक्षा में औसत अंक भी प्राप्त नहीं कर पाता है तो यह सिद्ध हो जाता है कि किसी कारण से उक्त छात्र अपनी कक्षा के पाठ्यक्रम को ठीक से नहीं सीख पाया है और वह अभी इस योग्य नहीं हो पाया है कि अगली कक्षा का पाठ्यक्रम सीख एवं समझ सके। इसीलिये उसे पुन: एक वर्ष उसी पाठ्यक्रम को पढऩे का अवसर देने के लिये अनुत्तीर्ण घोषित कर उसी कक्षा में रोक दिया जाता है।
किसी कक्षा में छात्र को रोका जाना उसे अगली कक्षा के लिये आवश्यक दक्षता प्राप्त करने के लिए एक अवसर है, ना कि किसी प्रकार की भावनात्मक चोट पहुंचाना है। इसे भावनात्मक रूप से देखा जाना और इसी आधार पर कक्षा में रोके जाने का नियम बनाना पूरी तरह अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है, जो किसी भी कारण से कमजोर रह जाने वाले छात्रों को पुन: सीखने के प्राकृतिक अधिकार से वंचित करता है और न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। यदि शासन को अनुत्तीर्ण शब्द बच्चों के लिए अपमानजनक प्रतीत होता है तो इस शब्द को परिवर्तित किया जा सकता है। वार्षिक परीक्षा में उत्तीर्ण व अनुत्तीर्ण शब्द को कक्षोन्नति व कक्षा पुनरावृत्ति शब्द में परिवर्तित किया जा सकता है, जो इसका वास्तविक अर्थ भी होगा।
विचारणीय है कि पांचवी तक रोके न जाने की नीति का सर्वाधिक नुकसान शासकीय स्कूलों में पढऩे वाले सभी वर्गों के गरीब, ग्रामीण, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा-अल्पसंख्यक वर्गों के बच्चों को अधिक होगा। यह नियम इनके शैक्षणिक भविष्य को रोके जाने का कारण बनेगा। निजी स्कूलों में पढऩे वाले धनाढ्य वर्ग के बच्चे इससे बहुत कम प्रभावित होंगे, क्योंकि निजी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों की शैक्षणिक प्रगति बिलकुल अलग संस्कृति में ढली होती है। ये सभी बच्चे धनाढ्य और शिक्षित माता-पिता की संतान होते हैं। इन बच्चों के माता-पिता लगभग 1.5 वर्ष की आयु से ही बच्चे को अक्षर व अंकों का ज्ञान मौखिक रूप से सिखना प्रारंभ कर देते हैं, 2.5 से 3 वर्ष का होते ही ये बच्चे पूर्व प्राथमिक स्तर पर नर्सरी, के.जी.-।, के.जी.।।, में भेजे जानो लगते हैं। 6 वर्ष तक कक्षा पहली में आते-आते ये बच्चे काफी अच्छा बेसिक ज्ञान अर्जित कर चुकते हैं, जबकि शासकीय स्कूल सीधे कक्षा-पहली से प्रारंभ होते हैं।
निजी स्कूलों की तरह नर्सरी, के.जी.-।, के.जी.।। जैसी पूर्व शिक्षा व्यवस्था शासकीय स्कूलों में अभी तक नहीं है। महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा 0 से 6 वर्ष के बच्चों के लिए संचालित आंगनबाडिय़ों केवल पोषण-आहार बांटने तक सीमित हैं। इस तरह शासकीय स्कूल की पहली कक्षा में प्रवेश लेने वाले गरीबों के बच्चे शैक्षणिक ज्ञान के मामले में कोरे कागज़ की तरह होते हैं। इन्हें जो भी पढऩा है वह सभी इन्हीं शासकीय स्कूलों में पढऩा है। परीक्षाओं के परिणाम का भय समाप्त हो जाने से ही इन स्कूलों में शिक्षा का स्तर खतरनाक रूप से गिरा है। पालकों के अशिक्षित होने के कारण इन बच्चों को घरों में भी शैक्षणिक मार्गदर्शन नहीें मिल पाता, ना ही इनके गरीब माता-पिता किसी ट्यूशन की व्यवस्था कर पाते हैं, जबकि धनाढ्य वर्ग अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति अत्याधिक सावधान रहते हैं। स्कूलों के स्तर पर भी नजर रखते हैं, जिसके कारण निजी स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरने नहीं पाता।
स्पष्ट है कि यदि सरकार द्वारा जारी नई शिक्षा नीति में भी आर.टी.ई. 2009 के समान कक्षा-1 से 5 तक रोके ना जाने की नीति पुन: लागू की जाती है तो उसका सबसे बड़ा नुकसान सभी वर्गों के गरीब, ग्रामीण, अनूसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग व अल्पसंख्यक वर्गों को ही होने वाला है, जिनकी जनसंख्या देश में 80 प्रतिशत से अधिक है। जिनके लिये हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 46 में कहा गया है ‘राज्य जनता के दुर्बल वर्गों के विशिष्टतया अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी के साथ अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।Ó
प्राथमिक शिक्षा का मजबूत होना बालकों की शिक्षा के लिये अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि प्राथमिक शिक्षा ही शिक्षा रूपी भवन की नींव होती है। अत: इस स्तर पर रोके ना जाने की नीति लागू करना दुर्बल वर्गों के बच्चों की शिक्षा के लिये अनिष्टकारी है, जो उन्हें आगे बढऩे से रोकने का कारण बनेगी। अत: जारी ड्राफ्ट में संशोधन कर प्राथमिक शिक्षा की सभी कक्षाओं में पूर्व की भांति वार्षिक परीक्षायें लेने और उसी आधार पर छात्रों को कक्षोन्नत करने की नीति लागू किया जाना ही उचित एवं आवश्यक है, ताकि सभी बच्चों को अच्छी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्राप्त हो सके और वे सब मिलकर भारत को महाशक्ति बनाने में अपना योगदान दे सकें।
– श्रीमती प्रभा बीसे
अध्यक्ष अ.भा. अनु. जाति परिषद म.प्र., भोपाल