श्रावण मास शिव की आराधना और वृक्षारोपण से जुड़ा है। शिव-पूजा बिना बिल्व-पत्र, धतूरा, दूब के अधूरी है। हमारी संस्कृति पर्यावरण से जुड़ी हुई है और उसकी रक्षा का संदेश हर त्यौहार, रीति-रिवाज के माध्यम से देती है। बेल के पेड़ काट देंगे तो बेल पत्र कैसे चढ़ायेंगे? पीपल की परिक्रमा के बिना शनि देव की शांति कैसे होगी? शमी वृक्ष, गूलर, बड़, आम, नीम सबको धर्म के साथ जोडऩे का निहित पर्यावरण सुरक्षा है।
एक हरा पेड़ काटने से ब्रह्म-हत्या का पाप लगता है। पीपल-बड़ पर किसी भी धर्म का व्यक्ति कुल्हाड़ी चलाते डरता है-भूत-प्रेत का भय जुड़ा है। कितने पक्षी-कीट-पतंगे, गिलहरी- सांप सब बेघर हो जाते हैं। पूरा ईको-सिसटम नष्ट होता है।shradhdha
आधुनिक होने की पहचान है-घरों में टाइल्स, बरामदे में, फुटपाथ पर, कहीं भी मिट्टी नहीं दिखनी चाहिए। मिट्टी से दूरी का नुकसान हम भोग रहे हैं। मिट्टी में ताकत होती है गरमी सोखने की, मिट्टी में पक्षी, गिलहरी के लाये या गिराये बीज स्वत: ही अंकुरित हो जाते हैं। इसीलिए चिडिय़ा को दाना डालना धर्म से जोड़ दिया है, चिडिय़ा अपने साथ बीज भी लाती है। बढ़ता तापमान और घटती हरियाली परिणाम है हमारी मिट्टी से दूरी का।
वृक्षारोपण का कार्य वृहद पैमाने पर किया जाएगा। क्षिप्रा-नर्मदा जैसी बड़ी नदियों के किनारे पेड़ लगाएं जाने की घोषणा मुख्यमंत्री जी ने भी की है। पर क्या हमारा शासकीय वानिकी विभाग इतने पौधे तैयार कर पाएगा? कितना अच्छा होता यदि हमारे सारे साधू-संत अपने प्रवचनों में अपने भक्तों को गुरूमंत्र देते हुए उनसे पौधे लगाने और साल भर तक उनकी रक्षा का वचन लें। कांवड़ यात्राओं में, चुनरी चढ़ाने की यात्राओं में हर प्रतिभागी पेड़ लगाए।
अमावस्या-पूर्णिमा पर्व पर नदियों में स्नान से पुण्य मिलता है। नदियों को भी धर्म से जोड़ा जाना पर्यावरण से धार्मिक जनता को जोडऩा है। नदियों को पवित्र या पूज्यनीय भी इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य उसे पूजें और गंदा न करें।
प्रश्न यह भी है कि वृक्षारोपण के नाम पर हम कौन से पेड़ लगाएं। आजकल सुंदरता के लिये ‘पाम ट्रीÓ लगाना फैशन में है। कबीरदास जी कितने साल पहले कह गए-
‘बड़ा भया तो क्या भया,
जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं,
फल लागे अति दूरÓ।
न तो फल, न छाया, न लकड़ी, किसलिये पाम ट्री लगाना है? हमारे वातावरण के लिए तो आम, जामुन, नीम, बड़, पीपल, बेल, सागौन, चन्दन, इमली, अशोक आदि के देसी पेड़ ही होने चाहिए। जो फल, छाया, लकड़ी के साथ ही पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन दें और कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस का अवशोषण कर सकें। पर्यावरण सुरक्षा हो और ओजोन परत की रक्षा।
अभी नगर-निगम भोपाल ने भी मिसरोद से हवाई-अड्डे तक ‘पाम ट्रीÓ से सौन्दर्यीकरण की घोषणा की है। कितना अच्छा हो कि हम आम, नीम, जैसे पेड़ लगाएं। यदि हम ऐसा कर पायें तो दस साल बाद का भोपाल कितना सुन्दर होगा? कल्पना कीजिए। रीवा-सतना रोड, मेरठ से हरिद्वार का रास्ता कितना मनोरम है, दोनों ओर घने आम के पेड़ गरमी के दिनों में आम की बौर की खुश्बू। याद कीजिये ‘आहÓ फिल्म का आखरी गाना जो रीवा-सतना रोड पर बग्गी पर जाते हुए राजकपूर जी ने गाया और दोनों तरफ आम के घने पेड़। सीजनल फूल सुन्दर लगते हैं पर वृहद पैमाने पर लगाना क्या उचित है? उनके रख-रखाव बहुत खर्चीला है। पेड़ को केवल एक साल देखभाल की आवश्कता होती है।
लाल परेड मैदान से एयरपोर्ट तक हर खम्बे पर प्लास्टिक के गमलों में प्लास्टिक के फूल सजे हैं। हम आज नहीं जागे तो वह दिन दूर नहीं कि इन्हीं प्लास्टिक के फूलों में रजनीगंधा, मधुमालती, गुलाब का इत्र लगाकर आनंदित होना होगा। जैसे अगली पीढ़ी के लिये हम घर बनाते हैं, धन-दौलत इक_ी करती हैं, उसी प्रकार उनके लिये प्राण वायु का भी प्रबंध करना होगा
– डॉ. श्रद्धा अग्रवाल
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