हजरत अमीर खुसरो

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प्रत्येक मानव में गुण और प्रतिभाओं का एक प्रच्छन्न स्त्रोत होता है जैसे पृथ्वी के गर्भ में रत्न से लेकर पत्थर तक भरे हैं। जैसे सोने की खानों के पास रत्नों की खानें और अन्य जीवनदायी खनिजों के भण्डार प्रायः नहीं पाए जाते, वैसे ही अपने अनेक गुणों और प्रतिभाओं का संगम भी दुर्लभ होता है। कोई मानव संगीतकार हो तो प्रायः काव्य कला से वंचित रह जाता है। संगीत और काव्य कला-यदि दोनों ही उसमें हो तो शौर्य नहीं मिलेगा। कोई एक भाषा में पारंगत है तो दूसरी में कठिनाई से ही उतनी सशक्त अभिव्यक्ति रखता होगा। यदि किसी में इन सभी गुण, स्वभाव और प्रतिभाओं का संगम है तो वह व्यक्ति सचमुच एक विलक्षण विभूति है। ऐसी ही एक विभूति थे, खड़ी बोली के प्रथम ज्ञात लोक प्रिय कवि और तुर्की, अरबी तथा फारसी के प्रतिभा सम्पन्न कलमकार अमीर खुसरो, जो संगीत और वाद्य विद्या के धनी होने के साथ-साथ इतिहासकार, राजनीतिज्ञ एवं एक सिद्धस्त शूरवीर भी थे। किसी एक ही व्यक्ति में इतनी कलाओं और इतनी प्रतिभाओं का समन्वय देखना है तो केवल एक ही व्यक्ति का नाम याद आता है और वह है अमीर खुसरो।
अमीर खुसरो का बचपन का नाम ’अबुल हसन यमीनुद्दीन‘ था। ’सुल्तानी‘, ’तुर्क‘ उनके उपनाम थे। ’अमीर‘, ’तूती-ए-हिन्द‘ ’मुलिक्कुशोअरा‘ पदवियां थीं जो बादशाहों ने खुश होकर उन्हें दी थीं, पर साहित्य और जनता के बीच वह ’खुसरो‘ नाम से सबने ज्यादा विख्यात हैं जो कि उनका तखल्लुस या उपनाम था।
अमीर खुसरो के पिता का नाम अमीर सैफुद्दीन महमूद था, जो तुर्की के लाचीनी कबीले के सरदार थे। इस तरह उनका संबंध एक उच्च कुल (वंश) से था, जो भारत आने से पूर्व वलख के आस-पास रहता था। वहां चंगेजी पाशविकता और अमानुषिकता भरे अत्याचारों से तंग आकर अमीर सैफुद्दीन 13वीं सदी में भारत आया। उस समय यहां शमशुद्दीन ’अल्तमश‘ का राज्य था। अमीर सैफुुद्दीन भारत आकर दिल्ली से कुछ दूर उत्तर प्रदेश के एटा जिला के पदियाली गांव में बस गए और बादशाह का मन जीत लिया, और इसके फलस्वरूप जागीरदार बन गए।
खुसरो की मां एक ऐसे परिवार की थीं, जो मूलतः हिन्दू था और जिसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। इनकी मातृभाषा हिन्दी थी, इनके नाना का नाम रावेल इमादिल मुल्क था, जो दिल्ली के नवाब और सिद्ध पुरूष के नाम से प्रसिद्ध थे। वे बलबन के युद्ध मंत्री थे। मुसलमान बनने के बावजूद इनके नाना के घर में रस्मों रिवाज हिन्दुओं के थे। नाना राजदरबारी होने के नाते दिल्ली में ही रहते थे। खुसरो की मां हिन्दू रस्मों-रिवाज में पलकर बड़ी हुई थीं, इसलिए अपनी मां की हिन्दू संस्कारी छाप खुसरो पर भी पड़ी थी।
कुछ विद्वानों का मत है कि खुसरो के पिता भारत में आकर सबसे पहले दिल्ली में बसे क्योंकि यही उस समय भारत के शासन और राजसत्ता का केंद्र बिन्दु था और सबसे आकर्षक शहर था। अमीर सैफुद्दीन के आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही नवाब इमादिल मुल्क के अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दिया था।
अमीर खुसरो कुल तीन भाई थे। इन तीनों में यमीनुद्दीन ही सर्वाधिक विवेकशील, कुशाग्र और मेधावी था। अमीर खुसरो की जन्म तिथि विभिन्न पुस्तकों में अलग-अलग मिलती है। उन पुस्तकों में खुसरो का जन्म 1252, 1253, 1254 या 1255 ई. दिया गया है। वस्तुतः उनका जन्म 652 हिज्री में हुआ था जो 1253-1254 ई. में पड़ता है।
खुसरो प्रकृति से कवि थे। कवि प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। वह बचपन से ही आशुकवि थे। उन्होंने स्वयं ’तोहफस्सफर‘ की भूमिका में लिखा है-मेरे वालिद मुझे मदरसा भेजा करते थे, लेकिन मैं ’रदीफ‘ और ’काफिये‘ के चक्कर में ही रहता था। मेरे काबिल उस्ताद सअदुद्दीन मुहम्मद जो आमतौर पर काज+ी के लकब से मशहूर थे, मुझे खुशनसीबी सिखाने की कोशिश करते रहे, लेकिन मैं महज+बिनों के खत की तारीफ में शेर कहता था।
काज+ी सअदुद्दीन ने एक बार खुसरो की परीक्षा लेने की इच्छा की। उन्होंने ’मोर‘, ’बाजा‘, ’तीर‘ और ’खरबूजा‘- चार असमान वस्तुओं पर शेर कहने के लिए कहा। खुसरो ने तुरंत दो फारसी के शेरों में इन चारों चीज+ों को बुद्धिमत्ता से बांधकर सुनाया, जिस पर काज+ी साहब दांतों तले उंगली दबा कर रह गए।
पिता की मृत्यु के बाद खुसरों दिल्ली में ही अपने नाना इमादिल मुल्क के पास रहने लगे। इनके नाना हजरत निजामुद्दीन औलिया के परम भक्त थे। हजरत निजामुद्दीन उन दिनों सूफी संतों में सबसे बड़े माने जाते थे। नाना के साथ ही खुसरो का हजरत निजामुद्दीन औलिया के पास आना-जाना हो गया। हजरत निजामुद्दीन के नजदीक रहकर खुसरो ने काफी कुछ सीखा। इससे उन्हें साधु संतों के पास रहने का मौका भी मिला, और साहित्य अध्ययन करने का भी। खुसरो ने उन्हें ’गुरू‘ बना लिया, और उनसे अरबी व फारसी का अपार ज्ञान प्राप्त किया।
हजरत निजामुद्दीन खुसरो को प्राणों से प्रिय मानते थे। वह कहा करते थे कि मैं सबसे ऊब जाता हूं पर खुसरो से कभी नहीं ऊबता। वह खुसरो से काफी प्रभावित थे। इसीलिए उन्होंने एक बार कहा था- ’इस तुर्क के दिल में जो आग सुलग रही है, कयामत के दिन इससे मेरा ’नाम-ए-कमाल‘ (कर्मलेखा) पवित्र हो जायेगा।‘
खुसरो की विद्वता और साधु-संतों में उसकी अत्यधिक रूचि देखकर हज+रत निजामुद्दीन उसे दिल से प्यार करते थे और प्यार में उसे ’तुर्क‘ कह कर पुकारते थे। वह बड़े गर्व के साथ कहा करते थे कि परमात्मा जब उनसे पूछेगा कि तुम मेरे लिए क्या लाये हो। तो मैं अमीर खुसरो को पेश कर दूंगा।
खुसरो के प्रति उनका प्रेम अतुतिल था, तभी तो उन्होंने अपने मरने से पूर्व अपनी इच्छा इन शब्दों में जाहिर की थी- ’’अगर कब्र में दो व्यक्तियों को दफन किया जाता तो मैं चाहता कि खुसरो को मेरे साथ दफन किया जाए।‘‘
गुरू की इस अंतिम इच्छा के मुताबिक यद्यपि अमीर खुसरो को उनकी बगल में दफन नहीं किया गया, पर खुसरो को उनके सन्निकट ही दफनाया गया। यह खुसरो की गुरू भक्ति, विलक्षण मेधा और आध्यात्मिकता का द्योतक है।
अमीर खुसरो जन्मजात कवि थे। इसलिए साहित्य रचना ही उनकी जीविका का मुख्य साधन थी। साहित्यकार के साथ-साथ व्यावहारिकता से भी वह परिपूर्ण थे। जीवन की प्रेरक परिस्थिति के अनुसार वह अपने को ढाल लेते थे। अपनी काव्य प्रतिभा से एक बार भी जिस राज दरबार से जुड़े फिर उससे सदैव जुड़े ही रहे, भले ही उस राज दरबार में बादशाह कोई भी रहा हो। यह खुसरो की बुद्धि का ही कमान था कि प्रत्येक बादशाह उन्हें अपने दरबार में रखने में गौरव महसूस करता था।
दिल्ली का बादशाह गयासुद्दीन बलबन अमीर खुसरो की काव्य प्रतिभा से परिचित था, खुसरो ने बलबन की प्रशंसा में भी काव्य रचना की, पर साहित्य प्रेमी न होने के कारण बलबन ने खुसरो की ओर ध्यान नहीं दिया। पर गयासुद्दीन के भतीजे अलाउद्दीन विशलू खां बारकब ने खुसरो की काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर उसे अपने दरबार में नौकरी दे दी। विशलू खां इलाहाबाद का हाकिम था और मालिक छज्जू के नाम से प्रसिद्ध था। खुसरो को अभी यहां नौकरी करते दो वर्ष ही व्यतीत हुए थे। एक दिन उसके दरबार में बादशाह बलबन का पुत्र नासिरूद्दीन बुगरा खां अपने दोस्तों के साथ आया। खुसरो ने बुगरा खां की प्रशंसा में कसीदा कहा। खुसरो की कविता से प्रसन्न होकर बुगरा खां ने उन्हें चांदी के थाल में रूपये भरकर पुरस्कार रूप में दिये। मलिक छज्जू इस पर नाराज+ हो गया। खुसरो ने उसे खुश करने की बहुत कोशिश की, पर जब इसमें भी सफलता नहीं मिली तो खुसरो बुगरा खां की शरण में चले गए।
बुगरा खां ’सामाना‘ में बलबन की छावनी के शासक थे। उन्हांेने खुसरो का उचित आदर-सत्कार किया और उन्हें अपना ’नदीम खास‘ (मुख्य साथी) बनाकर रखा।
खुसरो को यहां अभी कुछ ही दिन बीते थे कि लखनौती के शासक तुगरिल ने विद्रोह कर दिया। बादशाह बलबन की सेना के साथ बुगरा खां उसके मुकाबले के लिए गए तो खुसरो को भी उनके साथ जाना पड़ा। लड़ाई में तुगरिल मारा गया और बुगरा खां को लखनौती और बंगाल का शासक बना दिया गया। खुसरो ने फतहनामा लिखा। राजनीतिक दस्तावेज तैयार करने का यह उनका प्रथम प्रयास था, जिसे सराहा गया। खुसरो का वहां दिल नहीं लगा तो वह बादशाह बलबन के साथ दिल्ली लौट आये।
बादशाह बलबन ने अपनी जीत के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया। इस अवसर पर बादशाह का बड़ा लड़का सुल्तान मुहम्मद जो कि सुल्तान का हाकिम था, उत्सव में शामिल हुआ। खुसरो ने सुल्तान मुहम्मद को अपनी कविता सुनाई। वह खुसरो की काव्य प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुआ और वह इन्हें अपने साथ मुल्तान ले गया।
सुल्तान मुहम्मद साहित्य प्रेमी और कलानुरागी था। वह खुसरो का बहुत सम्मान करता था, पर फिर भी खुसरो का मन यहां कभी नहीं लगा। मुल्तान में वह पांच वर्ष रहे पर प्रति वर्ष दिल्ली आते रहे। जब मंगोलो ने मुल्तान पर हमला कर दिया तो बादशाह के साथ खुसरो भी लड़ाई में शामिल हुए। युद्ध में बादशाह तो मारे गए, और खुसरो बंदी बना लिए गए। दो वर्ष बाद किसी प्रकार अपने कौशल और साहस के बल पर वे वहां से छूटकर गयासुद्दीन बलबन के दरबार में दिल्ली आए, और सुल्तान मुहम्मद की मृत्यु पर बड़ा करूण मर्सिया पढ़ा। उसे सुनकर बादशाह इतना रोए कि उन्हें बुखार ही आ गया, और तीसरे दिन वह स्वर्ग सिधार गए।
इसके बाद खुसरो दो वर्ष तक अवध के सूबेदार अमीर अली सरणांदार के दरबार में रहे जहां उन्होंने अमीर की प्रशंसा में’अल्पनामा‘ पुस्तक की रचना की। इसके बाद 1288 ई. में खुसरो दिल्ली लौट आए। यहां बुगरा खां के पुत्र मुइजुद्दीन कैकूबाद जब गद्दी पर बैठे तो बाप-बेटे में किसी बात पर अनबन हो गई, और दोनों युद्ध की तैयारी कररने लगे। इस अवसर पर अमीर खुसरो के बीच-बचाव के कारण लड़ाई टल गई और दोनों में समझौता हो गया। बाप-बेटा मिल गये। इसी खुशी में कैकूबाद ने खुसरो को राज्य सम्मान दिया और दोनों के इस मिलन पर एक मसनवी लिखने को कहा। खुसरो ने मसनवी किरानुस्सादैन(बाप-बेटे का मिलन) उसी के कहने पर शुरू की जो 6 मास में पूरी हुई। 1290 ई. में कैकूबाद की मृत्यु के साथ ही गुलाम वंश के शासन का अंत हो गया और राजसत्ता खिलजी वंश के हाथ में आ गयी। (क्रमशः)
शम्सुद्दीन कैमुरम कुछ दिन बादशाह रहे, पर आखिर में 70 वर्षीय जलालुद्दीन खिलजी ने दिल्ली की हुकूमत हथिया ली। खुसरो से इनका सम्बंध पहले से ही था जलालुद्दीन खिलजी ने अमीर खुसरो की काव्य कला से प्रभावित हो उन्हें सम्मानित किया और ’अमीर‘ की पदवी दी। तभी से वह ’मलिक्कुशोअरा अमीर खुसरो‘ कहे जाने लगे। इनका सालाना वजीफा 12 हजार तनख्वाह तय हुआ और बादशाह के यह खास मुसाहिब हो गए।
सन् 1296 में अलाउद्दीन खिलजी अपने चाचा और ससुर जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर सिंहासन पर बैठा। इस हत्या से लोगों के भड़कने की सम्भावना थी। शेख निजामुद्दीन चिश्ती के गुरू भाई सीदी मौला की हत्या सार्वजनिक रूप से कराने वाले जलालुद्दीन खिलजी का वध चिश्ती परम्परा के अनुरागियों को तो अच्छा लगा परंतु उन कलन्दरों को बुरा लगा जो सूफियों के सबसे बड़े दुश्मन कहे जाते हैं। उस युग के महान प्रतापी कलन्दर शेख बू अली कलन्दर की सम्भावित विरोध भावना को शांत करने के लिए तथा उन्हें गा-बजाकर रिझाने के लिए अमीर खुसरो की प्रतिभा का इस्तेमाल किया गया। इसी संदर्भ में शेख अली कलन्दर की निम्न उक्ति बहुत प्रसिद्ध है-
सजन सकारे जायेंगे, नैन भरेंगे रोय।
बिधना ऐसी रैन कर भोर कभी ना होय।।
शेख निजामुद्दीन चिश्ती जन्म से विशुद्ध भारतीय थे। उनके मुख्य शिष्य महान कवि, लेखक और संगीतज्ञ खुसरो भी जन्म से भारतीय तो थे ही, मातृपक्ष से भी उनमें विशुद्ध भारतीय रक्त का मिश्रण हुआ था। उनके प्रयत्नों से भारतीय मुसलमान भारत को अपनी आध्यात्मिक भूमि मानने लगे। अजमेर में मुईनद्दीन-चिश्ती, दिल्ली में कुतुबुद्दीन बख्तयार काकी और पाकपट्टन में बाबा फरीदुद्दीन गजशंकर की समाधि उनके लिए पवित्र तीर्थस्थल तथा श्रद्धा व प्रेरणा का कंेद्र बन गई।
न तो अलाउद्दीन ही काजियों और मौलवियों के फतवों से बंधा हुआ था और न ही चिश्ती-परम्पराओं की नीति ही मुल्लाओं और काजियों के दृष्टिकोण से मेल खाती थी। इसीलिए मिश्रित रक्त और विशुद्ध भारतीय रक्त के मुसलमानों में अधिक भारतीयता आई। इसका सारा श्रेय अलाउद्दीन खिलजी को जाता है।
अलाउद्दीन खिलजी ने 20 वर्ष शासन किया। इस अवधि में निजामुद्दीन ने अपने प्रचारक समस्त भारत में भेजे। उधर अनेक युद्धों में विजयी होने पर हजारों संगीत पे्रमियों को बंदी बना कर दिल्ली में लाया गया, जिन्हें मुस्लिम आचार-विचार और कव्वाली की शिक्षा दी गई। अमीर खुसरो, हसन अलासजरी, सैयद मुहम्मद इमाम, सैयद मोहम्मद मूसा, अहमद आयाज+ आदि ने लोक भाषा में चिश्ती विचारों के प्रतिपादक गीतों की रचना निजामुद्दीन चिश्ती की पे्रेरणा से की। अमीर खुसरो ने खुरासान और भारत में कलाकारों की प्रतियोगिताएं आयोजित की, भारतीय रागों को मुकाम पद्धति में वर्गीकृत किया और ऐसे संकीर्ण रागों को जन्म दिया जिनमें भारतीय और अभारतीय रागों का मिश्रण था। निश्चित रूप से अमीर खुसरो के निर्देशन में अलाउद्दीन खिलजी की राजधानी भारत भर के संगीत की केंद्र स्थली बन गई थी।
अलाउद्दीन खिलजी के उत्तराधिकारी मुबारकशाह खिलजी (1316-1320ई.) के दरबार में भी खुसरो को वही सम्मान प्राप्त था। खुसरो ने ’नूहे सिपहर‘ नामक अपना अमर ग्रंथ इसी समय लिखा जिसमें खुसरो ने भारतीय ब्राम्हणों को ’अरस्तु‘ के समान विचारक और विद्वान, भारतीय संगीत को सर्वोत्तम और स्वयं को विश्व का अद्वितीय महाकवि घोषित किया। कैकूबाद के राज्य काल में लिखे अपने ग्रंथ ’किरानुस्सादैन‘ में अमीर खुसरो ने अपने को ईरानी संगीत का मर्मज्ञ कहा था, वहीं खिलती के युग तक उनका विकास ऐसे मुसलमान के रूप में हो चुका था जिसे अपने भारत और भारतीयता पर गर्व था।
कहा जाता है कि ’नूहे सिपहर‘ ग्रंथ की रचना से प्रसन्न होकर बादशाह कुतुबुद्दीन खिलजी ने अमीर खुसरो को हाथी के बराबर सोना दिया था।
अलाउद्दीन खिलजी के मारे जाने पर गयासुद्दीन तुगलक गद्दी पर बैठे। यह खुसरो के अंतिम आश्रयदाता थे। खुसरो ने अलाउद्दीन के बाद मुबारकशाह उसके बाद पटवारी ’तुगलक नामा‘ इन्हीं की प्रशंसा में लिखा।
अमीर खुसरो गयासुद्दीन तुगलक के साथ बंगाल पर चढ़ाई में साथ गए। बादशाह तो विजय के बाद बंगाल से सीधे दिल्ली आ गया। पर खुसरो लौटते हुए दिल्ली में आकर पटियाली (उ.प्र.) चले गए। इसी बीच उनके गुरू हजरत निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु हो गई जिसे सुनकर वह दिल्ली दौड़े। शोक में उन्होंने अपने कपड़े फाड़ डाले, मुंह पर कालिख मल ली, और उनकी याद में बिलख-बिलख कर रोते हुए उनकी कब्र पर यह दोहा पढ़ा ः
गोरी सोये सेज पर मुख पर डाले केश।
चल खुसरो घर आपने रैन भाई चहुं देश।।
गुरू की मृत्यु के गम ने खुसरो को बिल्कुल पागल बना दिया। गुरू के विरह में उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया और सब कुछ भूलकर वहीं गुरू की कब्र पर झाडू देने लगे। इसी दुःख में घुल-घुल कर गुरू की मृत्यु के 6 मास बाद 18 शिवाल 725 हिजरी (सन् 1324-25) को स्वयं भी स्वर्ग सिधार गए। हजरत पीर निजामुद्दीन की वसीयत के अनुसार खुसरो को भी उनकी कब्र के पास ही दफना दिया गया। इस तरह चिश्ती परम्परा के सूर्य और चन्द्र दोनों अस्त हो गए। – रईसा मलिक