स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की कुर्बानियां

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आलमे हिन्द के इस्लाम धर्म से ताल्लुक रखने वाले अल्पसंख्यकों पर मादरे वतन के साथ गद्दारी करने का इल्जाम लगाया जाता रहा है। लेकिन आलमे हिन्द के इतिहास में वर्णित अल्पसंख्यक मुस्लिमों की कुर्बानियों के किस्से आज भी इस बात का प्रमाण पेश कर रहे हैं कि अल्पसंख्यकों को गद्दार कहने वाले खुद गद्दार हो सकते हैं। आलमे हिन्द का मुसलमान न तो गद्दार था, न है और न होगा। मुसलमान अपनी मातृभूमि के प्रति इतना वफादार है कि जिस पाक मिट्टी (धरती) पर जन्म लेता है मरने के बाद भी उसी मिट्टी की गोद में समा जाता है।
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलसितां हमारा
जैसे लोकप्रिय दिल की गइराईयों में उतर जाने वाले क़ौमी तराने लिखने वाले हिन्दुस्तान के महशूरों मारूफ़ शायर अल्लामा इक़बाल की उन तहरीरों को भी नजऱ अंदाज़ नहीं किया जा सकता जो दिल को धड़कानों से शब्दों के रूप में या गज़़लों और तरानों के रूप में परिवर्तित होकर आज भी इस बात का स्पष्ट प्रमाण पेश कर रही हैं कि हिन्दुस्तान का मुसलमान वतन परस्त और मादरे वतन पर मर मिटने वाली क़ौम है।
इस्लाम और देशभक्ति
यह बात अलग है कि मुसलमानों को मज़हबे इस्लाम के सिवा किसी और के सामने नतमस्तक (सजदा) होने की इजाज़त नहीं देता है। क्योंकि खु़दा के सिवा किसी और के सामने माथा टेकना (सजदा) मज़हबे इस्लाम के अंदर हराम है। यहां यह बात भी स्पष्ट की जानी ज़रूरी है कि किसी मुसलमान के यह कह देने मात्र से कि हम ‘वंदेमातरमÓ नहीं कहेंगे और भारत माता का सम्मान नहीं करेंगे। मुस्लिम क़ौम को गद्दार कहना कम अक़ली का सुबूत देना है। साफ़ ज़ाहिर है, लेकिन इस बात को भी अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि जिस इस्लाम धर्म ने अपने मानने वालों को खुदा के सिवा दूसरों के आगे सिर झुकाने (सजदा करने) से और नतमस्तक होने (माथा टेकने) से मना किया है। उसी इस्लाम धर्म ने अपने मानने वालों को मादरे वतन (मातृभूमि) की हिफ़ाजत के लिए मर मिटने के निर्देश भी दिये हैं। इन निदेर्शों के परिपालनों में प्रत्येक मुसलमान का फर्ज (परम कत्र्तव्य) है कि वह अपने क़ौमी नारे ‘वंदेमातरमÓ का उतना सम्मान करें जितना एक क़ौमी नारे का होना चाहिए और ऐसा हर मुसलमान करता आया है, करता रहेगा।
यहां यह बात भी कहनी ज़रूरी है कि आज भी हिन्दुस्तान में कुछ मुसलमान ऐसे हैं जो हिन्दुस्तान में रहते हुए दूसरे मुस्लिम देशों की बात करते हैं और अपने मादरे वेतन हिन्दुस्तान की अपेक्षा मुस्लिम देशों को तरजीह देते हैं। ऐसे मुसलमानों को गद्दार कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वे ऐसे करके जहां क़ौम को बदनाम करने वालों में शुमार होते हैं। वहीं अपने मज़हब की खिलाफवर्जी करने के मुजरिम भी करार दिये जाते हैं।
मुसलमान कितना वतन परस्त है इसका एक छोटा सा नमूना जिगर मुरादाबादी के एस कलाम से मिलता है जो उन्होंने साक़ी को खि़ताब करते हुए कहा है।
आलमे हिन्द के मुसलमानों ने मुल्क की आज़ादी और अमनो-अमान के लिए बड़े-बड़े मुजाहिदे किये हैं। ये बात अलग है कि उनके मुजाहिदों को, कुर्बानियां को नजर अंदाज़ किया जाता रहा है, क्योंकि …..
हर शाख पे उल्लू बैठा है।
अंजामें गुलिस्तां क्या होगा।।
लेकिन भारत का इतिहास आज भी इस अमिट सच्चाई को अपने आंचल में समेटे हुए है और भारत की पाक मिट्टी आज भी मुस्लिम मुजाहिदों के पसीने और शहीदों के खून को अपने दामन मेें समेटे इस बात का साक्ष्य बनी हुई है कि मुसलमान वतन परस्त है।
कुछ जानने योग्य तथ्य
भारत की आज़ादी के लिए जो मुजाहिदे हुए और तहरीके चलीं उनमें से हम यहां केवल उन तहरीक़ों का उल्लेख कर रहे हैं जिनके बानी (जन्मदाता) रहनुमा आलमे हिन्द के मुसलमान ही था। सन् 1919 में जमाते उल्माए हिन्द का गठन किया गया। जिसके बानी (जन्मदाता) मुफ्ती किफ़ायतुल्लाह थे। सन् 1919 में ही खि़लाफत कमेटी का गठन हुआ जिसके जन्मदता थे मौलाना मुहम्मद अली जौहर, सन् 1920 मेें कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस का गठन हुआ। बानी थे शेख मुहम्मद अब्दुल्लाह, सन् 1922 में काबुल कांफ्रेंस का गठन हुआ जिसके जन्मदाता मौलाना उबैदुल्लाह खां थे। 1924 मेेें खुदाई खिदमतगार का गठन हुआ जिसके जन्मदाता थे खान अब्दुल गफ्फार खान, सन् 1929 में गठन हुआ मजलिसे अहरार का जिसके जन्मदाता थे मौलाना हबीबुर्रहमान, सन् 1940 में आल इंडिया मुस्लिम मजलिस का गठन हुआ जिसके बानी थे शेख़ जान मुहम्मद। उक्त सभी तहरीके हिन्दुस्तान को अंग्रेजों के शासन से निजात दिलाने के लिए बनीं और इन तहरीकों के बानियों का अल्पसंख्यक मुसलमानों का होना इस बात का सुबूत है कि मुसलमान वतन परस्त है।
इतना ही नहीं बल्कि हजऱत मौलाना अब्दुल बारी फिरंगी महल (लखनऊ) से लेकर हजरत मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद व हजऱत मौलाना मदनी तक तीन सौ पचास मुस्लिम उलमाओं को जि़ला बदर किया गया और सन् 1857 से 1957 तक मुफ्ती सदरूद्दीन देहलवी, जलियांवाला बाग कांड के शोहदा डॉ. सैफुद्दीन (अमृतसर) और मौलाना मुर्तज़ा अहमद खां तक साढ़े पन्द्रह लाख मुस्लिम मुजाहिदीन को फांसी दी गई।
इसके अलावा भारत देश में आल इंडिया कांग्रेस का गठन हुआ जिसमें सन् 1887 में बदरूद्दीन तैय्यबजी (मद्रास) सदर बने और सन् 1996 मेें कलकत्ता के मुहम्मद रहमतुल्लाह सयानी को अध्यक्ष बनाया गया। सन् 1913 मेें नवाब सैय्यद बहादुर को और 1918 मेेें सैय्यद हसन इमाम (बम्बई) को, सन् 1921 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (देहली) को, सन् 1923 में डाक्टर मुख्तार अहमद अंसारी (मद्रास) को और सन् 1940 से लेकर 1946 में मौलान अब्दुल कलाम आजाद (रामगढ़) आल इंडिया कांग्रेस के सदर रहे।
सन् 1929 से 1945 तक फिरंगी मजलिस के कैदियों में सूफी इनायत मुहम्मद पेशावरी, राव मुहम्मद कलीम खां (उत्तर प्रदेश) खान महमूद अली खां (उत्तर प्रदेश) अल्लामा अरशद (भावलपुर) और इनके एक सौ साथी गिरफ्तार किये गये थे।
सन् 1857 में बहादुर शाह जफ़ऱ की जिलावतनी, ज़ीनत महल की जंग, लाल किले की ज़ब्ती, शहज़ादों का कत्ल आदि। सन् 1857 के दौरान शहीद होने वाले मुसलमानों में नवाब अब्दुर्रहमान खां,नवाब मुस्तफा खां, नवाब फ़रूर्खाबाद, मोहसिन खां, अहमद खां देहलवी मजीद उद्दीन खां, अज़ीमुल्लाह, रिसालदार सफदरजंग, निज़ामुद्दीन खां, मौलाना अहमद शाह (मद्रासी) मौलाना अहमदुल्लाह फ़ैज़ाबादी, मौलाना इमाम बख्त, काज़ी फैज़़उल्लाह, डॉ. गुलाम रसूल, दीवान….. हिकमतुल्लाह, हकीम मुहम्मद खान गुलाम मुहम्मद, शेर अली खां, सैय्यद अली, बादशाह बेगम, जीनत महल, बेगम हजऱत महल और बाकी बेगमात अवध और देहली सहित एक सौ की तादाद में मुस्लिम शहीद हुए।
सन् 1857 में तीन हज़ार मुसलमानों को अंडमान में नजऱबंद किया गया। और सन् 1914 की जंग में मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद, मौलाना हसरत मुहानी, मौलाना जफ़ऱ अली खां, के अलावा तीन हज़ार अली खां, नजऱबंद किये गये। सन् 1857 में पांच लाख मुसलमानों को सज़ाए मौत दी गई। और तकरीबन चालीस लाख मुसलमान दीवाना-ए-वतन जंगे आज़ादी की तहरीक में वक्त ब वक्त कुर्बानियां देते रहे तथा तीन सौ मुसलमानों को ‘किस्सा खवानीÓ बाज़ार में गोलियों से भून दिया गया था। सन् 1857 में ही मौलाना इस्माईल शिकोहाबादी, मुफ्ती इनायत काकोरवी, मुंशी अली करीम, मौलाना विलायत अली, मौलाना शाह अब्दुल अज़ीज लुधियानवी, मौलाना शाह अब्दुल्लाह, मौलाना लुधियानवी को बामुशक्कत क़ैद की सज़ा दी गई।
सन् 1866 में अम्बाला में गिरफ्तार किये गये मौलाना अब्दुर्रहीम, काजी मियांजान, मियां अब्दुल कादिर हजऱत जाफऱ आदि को काले पानी की सजा देकर अंडमान में मौत की नींद सुला दिया गया था। सन् 1870 में मालवा में मौलाना अमीरूद्दीन को गिरफ्तार कर उम्र कैद की सजा और जायदाद जब्त की गई। सन् 1870 में राजा महल के राजा इब्राहीम मंडल को उम्र कैद कर उनकी जायदाद जब्त की गई। सन् 1865 और 1871 में पटना में मौलाना अहमदुल्लाह और उनके साथियों को सजा दी गई। सन् 1919 से 1947 तक मजलिस अहरारे हिन्द के हाई कमान रहे रईसुल अहरार हबीबुर्रहमान लुधियानवी, मौलाना बशीर पेशावरी, चौधरी अफज़ल हक, सैय्यद मुहम्मद गज़ऩवी, अमीरे शरियत अताउल्लाह बुखारी, मु. कासिम अली और उनके तकरीबन एक सौ से ज्यादा साथियों को दस साल की बामुश्क्कत सजा दी गई।
सन् 1919 से 1947 तक जमाते उल्माए हिन्द के हाई कमान रहे मुफ्ती किफायतुल्लाह कदीर, बख्त, ताज मुहम्मद, मौलाना हबीबुर्रहमान, शेखुल इस्लाम मौलाना मदनी आदि को दस साल तक नजऱबंद रखा गया। तहरीके आजादी में जिन मुजाहिदीन मुस्लिम रहनुमाओं ने अहम तरीन भूमिका अदा की उनमें हाजी इमदादुल्लाह जो सियासी शयूब के सदर रहे मौलाना शाह अब्दुर्रहमान महमूदुल हसन, शेखुल हिन्द मौलाना उबैदुल्लाह, मौलाना कासिम नानौतवी, मौलाना शाह अब्दुल कादिर रायपुरी, रहमतुल्लाह, शेखुल इस्लाम मुहम्मद सैय्यद हुसैन अहमद मदनी ये सब सियासी लीडरों के रहनुमा रहे और इनकी कयाम गाहें तहरीके आजादी का मरकज बनी रहीं।
और ये वो मजाहिदीन-ए-आजादी हैं जिनको दस साल की कैद हुई और जिनके इरादों में शाहीन का अज्म और पहाड़ों की इस्तकामत रही। तहरीके शेखुल हिन्द के खामोश अली खां, वाली रियासत हैदराबाद नवाब वकारूल मुल्क आदि शामिल हैं। सन् 1885 में कांग्रेस का गठन हुआ और 1888 में उलमा लुधियाना ने कांगे्रेस में शामिल होने का फैसला किया।
यह है वह कड़वा सच जो हिन्दुस्तान के मुसलमानों को गद्दार कहने वालों के गले नहीं उतरता है लेकिन यह अपने आप में एक कटु सत्य और इतिहास में वणिज़्त एक सच्चाई है। और जिसे दबाते रहने की लाख कोशिशें करते रहने के बावजूद भी मिटाया नहीं जा सकता है। यहां यह भी स्पष्ट है कि इतिहास के पन्नों में वर्णित अमिट सत्य के कुछ अंशों पर आधारित रिपोर्ट ही प्रकाशित की गई है।