मशहूर शायरा अन्जुम रहबर

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हिन्दुस्तान हो चाहे विदेश की धरती, जहां कहीं भी मुशायरों का आयोजन किया जाता है वहां एक शायरा के मंच पर आते ही लोगों में सुनने की बेताबी बढ़ जाती है। यह शायरा हैं अन्जुम रहबर, जो कि मशहूर शायर राहत इन्दौरी की शरीके हयात भी हैं।
अन्जुम रहबर को बचपन से ही मुशायरों में रूचि रही है। उनके वालिद साहब बहुत अच्छे शायर थे उनका नाम मरहूम डॉ. एम एस रहबर था। पिता के शायर होने के कारण घर में शायरी का माहौल रहा। वो बहुत बड़े-बड़े मुशायरे कराते थे। अन्जुम रहबर बचपन से ही अपने पिता के साथ मुशायरों में जाया करतीं थीं और अपने पिता की ग़$जलों को तरननुम में पढ़ा करती थीं। इस प्रकार मुशायरे के प्रति उनका शौक बढ़ता ही गया।
अन्जुम रहबर सन्ï 1977 से बाकायदा मुशायरों में जाने लगी थीं। उन्होंने सबसे पहला मुशायरा म.प्र. के हरदा में पढ़ा था। उसके बाद उनको शायरी से इतनी मुहब्बत, दिलचस्पी हो गयी कि वह इसी में रम गईं। उन्होंने जब पहला मुशायरा पढ़ा तो उनकी उम्र लगभग 15-16 वर्ष की थी। मुशायरा पढ़ते हुये अब उनको लगभग 28 वर्ष हो गये हैं।
अन्जुम रहबर भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी जहां-जहां मुशायरे होते हैं लगभग सभी जगहों में मुशायरा पढ़ चुकी हैं। उनको अनेकों सम्मानों से नवा$जा गया है जिनकी तादाद भी उन्हें याद ही नहीं।
पुराने शायरों और नये शायरों के कलाम में फर्क पर अन्जुम रहबर कहती हैं कि शायरी एक जैसी होती है इन्सान की सोच बदलती है ये बात सच है। हमने ग़ालिब को पढ़ा, मीर को पढ़ा है। वे कहती हैं कि मीर और ग़ालिब की शायरी को हम मुशायरे में नहीं पढ़ सकते उसको पढऩे के लिए बहुत ज्य़ादा $जहीन होना $जरूरी हो जाएगा।
अन्जुम रहबर बतातीत हैं कि हमारे वालिद साहब के $जमाने के शायरों की शायरी में और आज की शायरी में बहुत ज्यादा फर्क है। उस $जमाने की शायरी में महबूब से ज्य़ादा बातें हुआ करती थीं। मेहबूब से बिछडऩे-मिलने की बातें ही हुआ करती थीं। लेकिन आज जो शायरी हो रही है उसमें हालात को लेकर की, क्या हो रहा है $ग$जल लिखी जा रही है। उनका मानना है कि शायरी आज सिर्फ इश्क की शायरी ही नहीं रह गई है कि सिर्फ मेहबूब की ही बातें करें। आज वो $िजन्दगी की बात करती है, $िजन्दगी में अमीरी गरीबी की बात करती है। भूख की, अत्याचारों की बात करती हैं। हिन्दू-मुस्लिम फसादों की बात करती है। आज की शायरी को काफी हद तक हम लोग हालात के साथ जोड़ते जा रहे हैं।
अन्जुम रहबर कहती हैं कि आजकल के शायरों की शायरी से कभी-कभी मैं मुतमईन नहीं हो पाती हूँ। उनका मानना है कि हो सकता है कभी-कभी कोई मेरी शायरी से भी मुतमईन न होता हो। लेकिन फिर सरासर झूठी बातें करना जैसे हम रहते तो महलों में हैं लेकिन झोपड़ी की बातें करते हैं। तब, वो $जमाना और था कि शायर जब झोपड़ी में रहता था तो झोपड़ी की ही बात करता था। तो आज का शायर महलों में रहता है गाडिय़ों में चलता है और कहता है कि मैं धूप में चल रहा था और मेरे पैरों में छाले पड़ गये। अन्जुम रहबर कहती हैं कि गालिब ने अगर शराब की शायरी की तो वो वाकई में पीते थे। उन्होंने इश्क किया तो किया और उसी पर शायरी भी की। कई लोग तो ऐसे होते हैं कि उनके साथ कोई हादसा हो जाता है तो वो उसे ही शायरी में पिरोकर शायरी बनाने लगते हैं। बहुत से ऐसे लोग हैं। वे कहती हैं कि तब वहां पर मुझे परेशानी होती है कि हम इतने सारे सामयीन के साथ क्यों खिलवाड़ कर रहे हैं। क्यों म$जाक कर रहे हैं। उनका मानना है कि शायरी शायरी की तरह पेश की जाये क्योंकि कितने लोगों के एहसासात आपकी शायरी के साथ जुड़ रहे हैं। इतना कह कर उन्होंने एक शेर पढ़ा-
कि मिलना था इत्तफाक बिछडऩा नसीब था,
वो इतनी दूर हो गया जितना करीब था।
इसके बाद वे बोलीं कि जो चार लोग सुन रहे हैं तो जरूरी नहीं है कि वो चारों अपने मेहबूब से ही बिछड़े हों, कोई अपने बाप से भी, कोई बहन से, कोई माँ से, अपने भाई से भी बिछड़ा हो सकता है। तो शायरी में सच्चाई होना चाहिये।
अन्जुम रहबर कहती हैं कि शायरी तो खुदादाद या ईश्वर प्रद है। यह सीखने से आती। अल्लाह तआला ने एक ऐसा एहसास दिया है अर्थात्ï हर इन्सान के अन्दर एक इन्सान छिपा होता है जिसने उस इन्सान को पहचान लिया वो शायर हो गया। अगर किसी से प्रेरणा लेकर या प्रेरित होकर शायरी की जाती तो हो सकता है हर गली में हर आदमी शायर होता और लोग अन्जुम रहबर को क्यों पहचानते। तो शायरी शायर की सोच है।
उन्होंने हायरसेकेण्ड्री भोपाल से और हिन्दी साहित्य में एम.ए. गुना से किया। वे कहती हैं कि शायरी शौक के साथ-साथ ज़रूरत का एक हिस्सा भी बन गयी है। शायर अपनी रो$जी-रोटी से भी जुड़े हुये हैं। एक ज़माना वो था जब 100 रूपये देते थे लेकिन आज एक शायर या कवि 20 हजार और 25 हजार रूपए तक भी लेता है। अन्जुम रहबर का मानती हैं कि शायरी तो बहुत अच्छी ची$ज है लेकिन शायरी के साथ वफादार होना भी बहुत $जरूरी है जो कुछ भी कहो सच्ची बात कहो।
अन्जुम रहबर अपने विवाह की बात को एक खूबसूरत हादसा बताते हुये कहती हैं कि मैं तो हादसे को भी खूबसूरत कह रही हूँ कि मोहब्बत कर बैठी और राहत इन्दौरी साहब से मेरा निकाह हो गया और एक बेटा हो गया। उन्होंने कहा कि यही ऐसी घटना है जिसे मैं $िजन्दगी के किसी हिस्से में भूल ही नहीं सकती। वैसे अल्लाह का शुक्र है कि अल्लाह तआला ने मेरे साथ हमेशा अच्छा-अच्छा ही किया है।
अन्जुम रहबर ने बताया कि शायरी से मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। मैं अपने आपको बहुत खुश नसीब मानती हूँ कि मैं मुशायरा और कवि सम्मेलन दोनों में ही जाती हॅँू और पढ़ती हूँ। जितना मुशायरा पढ़ती हूँ उससे कहीं ज्यादा कवि सम्मेलनों में कविताएं पढ़ती हूँ। लोग मुझे वही इ$ज्जत देते हैं जैसी की उर्दू शायरी में। कभी-कभी तो मैंने जो कलाम उर्दू मुशायरे में जो $गज़ल या शायरी पढ़ी वही हिन्दी मंच में भी जाकर पढ़ा तो भी लोगों ने मुझे बहुत इज्जत दी बहुत सराहा। इसलिए मुझे तो कभी ऐसा लगा ही नहीं कि हिन्दी उर्दू अलग से है।
उनके कलाम को काफी गाने वालों ने भी गाया। जिनमें अनूप जलोटा, पंकजदास, आरजू़़ बानो, पाकिस्तान की मुन्नी बेगम तक शामिल हैं। अपनी पसंदीदा $ग$जल के बारे पूछने पर उन्होंने कहा कि मुझे तो मेरी सारी $ग$जलें अच्छी लगती हैं बकौल बशीर बद्र के कि माँ को अपनी सारी औलादें अच्छी लगती हैं। लेकिन फिर भी किसी न किसी से ज्यादा प्यार होता बेटे से या बेटी से ज्य़ादा प्यार होता ही है तो उसी तरह मुझे मेरी वो शेर कि-
मिलना था इत्तफा$क बिछडऩा नसीब था,
वो इतनी दूर हो गया जो इतना करीब था।
द$फना दिया गया मुझे चांदी की कब्र में,
मैं जिसको चाहती थी वो लड़का गरीब था।
ये शेर बहुत मशहूर हुए थे इसके बाद बहुत सारे शेर ऐसे जिन्हें उन्होंने लिखा और लोग पसंद करते थे। उन्होंने बताया कि जहां से मैं मशहूर हुई वो एक $ग$जल थी मेरे वालिद साहब की कि-
बर्क़ पर बकऱ् गिरा आसमां तकता क्या है,
आशियां और बना लेंगे समझता क्या है।
इसे लोगों ने बहुत पसंद किया। उसके बाद मैंने गीत पढऩा शुरू किया उसमें मेरा एक गीत बहुत पसंद किया गया वो है-
गलियों में गाता घूमें इक बंजारा रे।
जीवन नदिया तो मौत है किनारा रे ॥
यह पूछने पर कि आप दोनों मशहूर शायर है तो आपमें कभी टकराव की नौबत तो नहीं आई। वे बोलीं कि लोग सोचते हैं कि हमारे और राहत इन्दौरी के बीच में इगो को लेकर विवाद होता होगा, लेकिन अल्लाह का शुक्र है कि हमारे साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बल्कि हम दोनों ये सोच कर बैठते थे कि अगर आज तुम कमजोर पढ़ रही हो तो मैं अच्छा पढूंगा। कभी किसी मुशायरे में अगर मुझे तालियां कम मिलती थीं तो वो मुझसे साफ कह देते थे कि देखो यार अन्जुम आज म$जा नहीं आया देखो अब मैं करके दिखाता हूँ। मतलब कभी हम लोगों के बीच में इगो कभी नहीं आया उसकी एक वजह ये भी थी कि जब मैंने शादी की तब तक मैं अपना एक मुकाम बना चुकी थी। अगर मैं उनकी $िजन्दगी में आने के बाद शायरा होती तो शायद वो ये कहते कि नहीं मैं तुम्हें लेकर आया तो ईगो की बात आ सकती थी लेकिन मुशायरों के दौरान ही हमारी मुलाकात हुई, इश्$क हुआ और शादी भी हो गई।
आजकल जो शायरों के आपसी झगड़ों पर उन्होंने कहा कि ये अच्छी बात नहीं है जिस मुशायरे से ये शुरूआत हुई उसमें मैं खुद भी थी। हमें क्या कहना है कहां कहना है। हम क्या कह रहे हैं इन सब बातों का ध्यान रखना चाहिए। वर्ना हम तो आम लोगों की तरह हो गये। वैसे देखा जाये तो ये लड़ाई क्यों हुई, जब कोई शायर 25 सालों से एक शेर पढ़ रहा है तब तो बुरा नहीं लगा। अब क्यों ऐसा किया जा रहा है सब समझते हैं क्योंकि इतना बेवकूफ कोई भी नहीं है।
अन्जुम रहबर कहती हैं कि शायरी के अलावा मेरे शौक एक घरेलू महिलाओं की तरह ही हैं क्योंकि मैं भी बिल्कुल घरेलू हूँ। घर का पूरा काम करना खाना बनाने में ही मेरा पूरा टाइम निकल जाता है और अब तो अल्लाह ने इतना नवा$जा है कि मुशायरों से ही टाइम नहीं मिलता और तो और अब तो मैं छांटती हूँ कि कहां के मुशायरे में जाना चाहिए और कहां के मुशायरे में नहीं जाना चाहिए।
अन्जुम रहबर अब भोपाल में शिफ्ट हो गई हैं। वो पांच साल तक गुना में पार्षद भी रहीं। उनका कहना है कि अगर कोई मेरे लायक काम अल्लाह मुझसे लेना चाहता तो मैं करती हूँ पीछे नहीं हटती। मेरे दिल में ऐसा जज़्बा है कि अगर किसी के हम काम आ जाते हैं तो मुझे अच्छा लगता है।
उनका मानना है कि शायरी कोई गलत पेशा तो है नहीं इज्ज़त का पेशा है अच्छा पेशा है। और मेरी शायरी लोग कुबूल कर रहे हैं तो मैं अपनी शायरी उन तक क्यों न पहुंचाऊं। उन्हें क्यों न सुनाऊँ।
महिलाओं के लिए वे कहती हैं कि मेरा जो तर्जूबा है कि दुनिया अगर लाख कहे कि औरत मर्द के कांधे से कांधा मिलाकर चल रही है मैं इसे सच नहीं मानती क्योंकि महाभारत से लेकर आज तक औरत औरत ही है। औरत जहां औरत की सीमा को पार करने कोशिश करती है तो उसका ही सब कुछ छिन जाता है। औरत को औरत की तरह ही रहना चाहिए, फासला रहना चाहिए। घर की चौखट आज मैं भी पार करती हूँ, लेकिन मर्दों के दरम्याँ एक दायरा रखती हूँ और रखना भी चाहिए। एक ता$जा शेर मैंने लिखा था कि-
शाहिद जिस नाम से भी पुकारो मुझे
जिन्दगी हूँ तुम्हारी गुजारों मुझे
मैं तुम्हारी न$जर में तो इक खेल हूँ चाहे जीतो मुझे चाहो हारो मुझे।
इसलिए औरत औरत अपनी मर्यादा में रहे अपने दामन को सम्भाल के रखे वरना मर्द किसी को नहीं बख्शता। मैं ये नहीं कहती कि आप कुछ न करें। औरत दुर्गा है, औरत शक्ति का रूप है। मर्द से ज्य़ादा मैं उसे बहुत शक्तिमान मानती हूँ कि वो अपनी पे आ जाए तो बहुत कुछ कर सकती है। लेकिन हिन्दुस्तानी औरत हिन्दुस्तानी ही होती है।
आने वाली नई शायरात के बारे में अन्जुम रहबर कहती हैं कि वास्तव में तो वो शायरा ही नहीं हैं क्योंकि चार ग़$जलें किसी ने दे दीं और उन्होंने उसे पढ़ दीं। लेकिन उन्हें यही नहीं मालूम की मिसरा क्या होता है मक़्ता क्या होता है मतला क्या होता है। राहत इन्दौरी साहब ने ऐसी शायरात के लिए बहुत अच्छी बात कही है कि-
कारोबार में सबने बड़ी इमदाद की ।
दाद लोगों की गला अपना कलम उस्ताद की॥
उन्होंने बात के आगे बढ़ाते हुए कहा कि बहुत ऐसी-ऐसी शायरात है जिनका नाम मैं नहीं लेना चाहूँगी, लेकिन मैं मानती हूँ की वो शेर नहीं कह सकती तो तुम उसको बैठने उठने का तमी$ज तो सिखा दो। वो $जरूरी है लेकिन अपना नाम भी उर्दू में लिख दे तो बड़ी बात है। वो $ग$जल पढ़ती हैं लेकिन उसको नहीं मालूम की ग$जल कैसे लिखते हैं। तो बहुत अफसोसनाक हो जाता है। लेकिन खोटा सिक्का कब तक चलेगा। लेकिन आजकल शायरात मुशायरों में शौक बनता जा रहा है। पता नहीं क्यों उनको शायरी-वायरी से कोई मतलब नहीं उन्हें तो शायरात से मतलब है। उनका मानना है कि इसके खतावार हमारे बुजुर्गवार हैं जो उन्हें कलाम दे रहे हैं।
– रईसा मलिक