(दूसरी किश्त)
पैदाइश और बचपन
हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के वालिद का नाम अब्दुल्लाह था, दादा का नाम अब्दुल मुत्तलिब था, जो हाशिम बिन अब्ने मुनाफ बिन कुसई के बेटे थे।
वालिद अब्दुल्लाह की शादी कबीला जोहरा में वह्ब बिन अब्दे मुनाफ की लडकी से हुई, जिनका नाम आमना था।
आप के खानदान का नाम कुरैश था जो अरब के तमाम खानदानों से कितनी ही पीढियों से इज्जत और शोहरत वाला माना जाता था। हश्मे काबा के मुतवल्ली होने की वजह से कुरैश को तमाम अरब में बडी इज्जत और अहमियत हासिल हो गयी थी।
हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम दोशंबा (सोमवार) के दिन 12 रबीउल-अव्वल, मुताबिक 23 अप्रैल 571 को मक्का मुअज्जमा में, सूरज निकलने से पहले सुबहे सादिक में पैदा हुए। वालिद का इन्तिकाल आपके जन्म से पहले ही हो चुका था। दादा अब्दुल मुत्तलिब की देख-रेख में आप की परवरिश शुरू हुई।
सब से पहले आाप की वालिदा हजरत आमिना ने दूध पिलाया, इसके बाद अबूूलहब की लौंडी सुवैबा ने भी दूध पिलाया।
उस जमाने में यह आम रिवाज था कि शहर के बडे लोग अपने बच्चों को दूध पिलवाने और बढने-पलने के लिए देहात और कस्बों में भेज देते थे, ताकि वहां की खुली हवा में रह कर उनकी सेहत अच्छी हो जाए और वे बहुत अच्छी जफबान भी सीख जाएं। अरब में शहरों के मुकाबले में देहातों और कस्बों की जुबान प्यारी और अच्छी मानी जाती थी। इस रिवाज के मुताबिक देहात की औरतें शहर में आया करती थीं और बच्चों की परवरिश के लिए अपने साथ ले जाती थीं। चुनांचे हजरत मुहम्मद सल्ल. की पैदाइश के कुछ दिनों बाद ही कबीला हवाजिन की कुछ औरतें बच्चों की खोज में मक्के आयीं। उन में हलीमा सादिया भी थीं। यही वह खुशनसीब औरत हैं, जिनको जब कोई दूसरा बच्चा न मिला, तो मजबूर होकर उन्हीं ने आमिना के यतीम बच्चे को ले लेना ही मंजूर कर लिया।
आप की उम्र चार साल की हुई तो आप की वालिदा ने आपको अपने पास रख लिया। आप छः साल के हुए तो आपकी मां बीबी आमना का इन्तिकाल हो गया।
जब हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की उम्र आठ साल की हुई, तो दादा अब्दुल मुत्तलिब ने भी इन्तिकाल फरमाया। मरते वक्त उन्होंने आपकी परवरिश की जिम्मेदारी अपने लडके अबूतालिब को सुपुर्द की, जिन्होंने अपनी इस जिम्मेदारी को बहुत अच्छी तरह निभाया। अबू तालिब हजरत मुहम्मद सल्ल. के सगे चाचा थे।
बहीरा राहिब की मुलाकात
अक्सर किताबों में बयान किया गया है कि आहरजरत सल्ल. जब बारह साल के हुए तो अपने चचा अबू तालिब के साथ, जब कि शाम की तिजारत की गरज से जा रहे थे, सफर में गए। बसरा में बहीरा राहिब ने आपको पहचान लिया कि जिन नबी की पेशीनगोइयां किताबों में मिलती हैं, वह नबी यही हैं। इससे जाहिर होता है कि वह नबी के आने के इन्तिजार में थे।
हजरत खदीजा रजि. से निकाह
जब नबी सल्लाहु अलैहि वसल्लम जवान हुए, तो आपका ख्याल पहले तिजारत की तरफ हुआ, मगर घर का रूपया पास न था। मक्का में निहायत शरीफ खानदान की एक बेवा औरत खदीजा थीं। वह बहुत मालदार थीं। अपना रूपया तिजारत में लगाए रखती थीं। उन्होंने आंहजरत सल्ल. की खूबियां और आप की सच्चाई, दयानतदारी का हाल मालूम करके खुद दख्र्वास्त कर दी कि उस के रूपए से तिजारत करें। आंहजरत सल्ल. उन का माल ले कर तिजारत को गए। इस तिजारत में बहुत नफा हुआ और आप की बहुत-सी खूबिया भी जाहिर हुयीं।
इन खूबियों को मालूम करके हजरत खदीजा रजि. ने आपसे निकाह की दख्र्वास्त की, हालांकि हजरत खदीजा रजि. इससे पहले बडे बडे सरदारों के निकाह की दख्र्वास्त को रद्द कर चुकी थी। दख्र्वास्त आपने मंजूर कर ली, तारीख तय हो गयी। अबू तालिब ने निकाह का खुत्बा पढा और पांच सौ तलाई दिरहम पर निकाह हो गया। शादी के वक्त हजरत खदीजा की उम्र चालीस साल थी और आप सिर्फ पच्चीस साल के नव जवान थे।
अनेाखा समझौता
इस्लाम से पहले अरबों में लडाईयों का एक न खत्म होने वाला सिलसिला जारी था। इन्हीं लडाईयों में से एक निहायत खतरनाक और मशहूर लडाई फिजार की लडाई है। फिजार की लडाई से अम्न पसन्द लोगों का तंग आ जाना बिल्कुल फितरी बात थी। आप को भी इन लडाईयों से बडी तकलीफ होती थी। चुनांचे आप सल्ल. ने अक्सर कबीलों के सरदारों और समझदार लोगों की मुल्क की बे-अम्नी, रास्तों का खतरनाक होना, मुसाफिरों का लुटना, गरीबों पर जबरदस्तों के जुल्म का हवाला देकर इन सब बातों में सुधार लाने पर तवज्जोह दिलायी। आखिर एक अंजुमन कायम हो गई, जिसमें बनू हाशिम व अब्दुल मुत्तलिब बनू असद, बनू जोहरा, बनू तमीम शामिल थे। इस अंजुमन के मेम्बरों ने नीचे लिखे अहद् किए थे-
1. हम मुल्क से बे-अम्नी दूर करेंगे,
2. हम मुसाफिरों की हिफाजत करेंगे,
3. हम गरीबों की इमदाद करेंगे,
4. हम जबरदस्त को कमजोरों पर जुल्म करने से रोका करेंगे,
5. किसी जालिम को मक्का में न रहने देंगे,
आप नबी होने के बाद इस की याद ताजा करते हुए फरमाया करते थे कि-
’इस समझोते के मुकाबले में अगर मुझ को सुर्ख रंग के ऊंट भी दिए जाते, तो मैं उससे न फिरता और आज भी ऐसे समझौते के लिए कोई बुलाए, तो मैं हाजिर हूं।‘
इस समझौते का असर यह हुआ कि इन्सानों की जान व माल की बडी हद तक हिफाजत हो गई।
ऐसे ही नेक कामों की वजह से उन दिनों में लोगों के दिलों पर आप सल्ल. की नेकी और बुजुर्गी का इतना असर था कि ये आंहजरत सल्ल. को नाम लेकर नहीं बुलाते थे, बल्कि ’अस्सादिक‘ (बेहद सच्चा) या ’अल-अमीन‘ (बे-हद अमानतदार) कह कर पुकारा करते थे।