रमजान मुबारक के खत्म होने पर अल्लाह तआला ने ईद मुकर्रर फरमायी और इसका मकसद माह सियाम की सआदतों अैर बरकतों से फायदा उठाने के लिए शुक्रे खुदाबन्दी का इजहार बताया। इस दिन गुस्ल करके अपनी हैसियत के मुताबिक कपडे पहनना चाहिए, खुश्बू लगाना चाहिए। कुरआन करीम में इस दिन का मकसद यह बताया गया है कि अल्लाह तआला की बडाई और किब्रियाई का इजहार और उसकी नेमतों का शुक्रिया। इस लिए ईद का चांद देखते ही तकबीरें शुरू कर देना। रसूल उल्लाह सअद का इरशाद है। अपनी ईदों को तकबीरों से सजाओ। तकबीर बुलन्द आवाज से कहना चाहिए। (सुनन बेहकी)
ईद की नमाज खुले मैदान में होना चाहिए और खुतबा सुनना चाहिए। ईद की नमाज के बाद सहाबाए किराम आपस में मुलाकात करते थे। ईद का हकदार वह नहीं जो नए कपडे पहन लेता है बल्कि हकदार तो वह है जो रोजे रख कर तकवा की जिन्दगी गुजारे। ईद की मुबारकबादी का मुस्तिहिक वह है जो अल्लाह से डरे और उसकी नेमतों का शुक्र अदा करे। ईद उसकी नहीं जो खुश्बू बसा लेता है, ईद उसकी है जो तौबा व अस्तगफार करके फिर गुनाह न करें। रमजान आता रहेगा और जाता रहेगा जिस तरह बारिश बरसती है और रूक जाती है। मगर जरखेज जमीन को फायदा होता है मगर बंजर जमीन जो सख्त होती है उसे बारिश से फायदा नहीं होता। इसी तरह उस आदमी को भी कोई फायदा नहीं होता जो रमजानुल मुबारक जैसा बरकतों वाला महीना पाए मगर मगफिरत न करा सके।
ईद राहत व फरहत मर्सरत व शादमानी, इनाम व इकराम का दिन है। इसकी खुशियों में शरीक होेने वाले अपने आमाल का जायजा मुहासिबा भी कर लेंे कि उन्होंने कितने रोजे रखे और कितने छोडे अच्छे खाने, कपडे पहनन,े दोस्तों से मिलने, गले मिलने और दुआ देने और लेने में ईद का मकसद पूरा नहीं होता। नेक आमाल, तकवा, परहेजगारी, जिक्रे इलाही, हमदर्दी, गम ख्वारी, इन्सानियत, कुरबानी, खैरात, पाकी व तहारत, इत्तिफाक व इत्तहाद, मुहासिबा व इनाम, अखुब्बत, दुआ, तकबीर व शुक्र का नाम ईद है। गुनाहों से तौबा करके हमेशा नेकी व तकवा की जिन्दगी गुजारने का नाम ईद है।
रमजानुलमुबारक का अदब व एहतराम किस हद तक किया? दूसरों को इसके लिए कितनी तलकीन की। कुरआन की कितनी तिलावत की और एक-एक आयत पर गौर करने के लिए कितना वक्त निकाला। मस्जिद में कितना वक्त जिक्र व इबादत में गुजारा और अपने गुनाहों की माफी मांगी। कितनी तौबा की? अगर इसका जवाब नफी में है तो फिर ईद मनाने का हक कैसे पहुंुचता है ईद के दिन अपने रमजान के महीने के अमाल का मुहासिबा जरूर करें ताकि रोजों का मकसद पूरा हो और नेकियां कबूल हो। अगर हम ठंडे दिल से गौर करें तो मालूम होगा कि हम आखिरत के सफर की राह में हैं और जिन्दगी की सफर खत्म होकर एक न मिटने वाली जिन्दगी की तरफ जारी है, मगर आरजी जिन्दगी को इन्सान हमेशा वाली समझ रहा है।
बसीरत की आंखों से देखकर हकीकतों पर नजर दौडाई जाए और मौत के वक्त तक नेक काम किए जाएं ताकि आने वाला कल खुशगवार और कामयाब हो। ईद का चांद हमें खुशी व कामरानी की नवेद सुनाकर हक व सदाकत पर मुस्तकिल मिजाजी के साथ जमे रहने का पैगाम दे रहा है कि महीना भर रोजे रखने वालों के दिल व दिमाग फिक्र व नजर कौल व अमल की तबीयत का जो सामान किया जा रहा है वह बेकार न जाए और रोजों की बदौलत तकवा व तहारत और अख्लाके हुस्ना की जो दौलत उन्हें हासिल हुई उसे इस तरह मेहपूफज कर लिया जाये। कितने ऐसे दिल हैं जिन्हें इस कीमती दौलत का एहसास है। रोजा रखने से कहीं ज्यादा मुश्किल यह है कि रोजे के जरिये रूहानियत को बेदार किया जाये। रमजानुल मुबारक तमाम महीनों का वह सरदार है कि रूख्सत होते हुए अपने नुकूश व असरात छोड जाता है। जिन्हें अगर महपूफज कर लिया जाये तो साल भर लुत्फ व निशान हासिल कर सकता है। लेकिन अब रमजान की अहमियत सिर्फ रस्मी रह गयी है। मस्जिदें बा रौनक होते हुए भी खाली ही खाली हैं। अफसोस इस बात का भी है कि आखिरत के बजाय फना होने वाली दौलत के पीछे वक्त खपाया जा रहा है। एक महीना भर रोजे रखे, मगर डर और खौफ और तकवा की सिफत पैदा नहीं हुई। एक माह नमाज तराबीह पढी और कुरआन सुना। मगर सोच और अमल में कोई तब्दीली नहीं हुई ऐसा क्यों? इसलिए कि रोजा सिर्फ एक रस्म समझ कर रखा है। अगर अपनी तरबियत के लिए और अल्लाह के डर से रखा तो नफ्रस का तजकिया होता। कुरआन सिर्फ सुनने की हद तक सुना। अगर इसे मायने व मतलब समझकर पढा होता तो कोई मकसद हासिल होता।
रमजानुल मुबारक असल में तमाम अहम तीन खूबियों बरकतों रहमतों और फजीलतों के नुजूल का महीना है इसी मुबारक माह में इन्सानों की हिदायत के लिए कुरआन मजीद नाजिल हुआ। इसी महीने में एक रात ऐसी है (लैलतुलकद्र) जो हजार महीनों से बेहतर है। इसी माह में इस्लाम का तीसरा रूक्न रोजा फर्ज इबादत का सवाब सतर फर्ज के बराबर कर दिया जाता है इस माह में जन्नत के दरवाजे खोल दिए जाते हैं, दोजख के दरवाजे बन्द कर दिये जाते हैं। शयातीन को जंजीरांे में जकड दिया जाता है यह महीना दिलों को फसाद से पाक करने वाला है। बेहतर होता कि हम आने वाले दिन इसी माह रमजान के छोडे हुए असरात व नुकूश और रोजे के समरात के जरिये गुजारते। एक महीने के मख्सूस तरीके मख्सूस तरबियत और तजकिये से कौल से सदाकत और तजकिये से कौल में सदाकत, झूठ से परहेज, अल्लाह का डर और बुराईयों से नफरत, नेकियों से रगबत पैदा की गयी।
ईद के दिन मुबारकबादी उन ही शरीफ नफ्रस लोगों को फरिश्तों के जरिये दी जाती है जिन्होंने ने रोजों से अपनी इस्लाह व तरबियत कर ली और अपने अंदर अच्छा अखलाक पैदा कर लिया। रूह की इस्लाह ही से तमाम आमाल दुरूस्त और सही होते हैं और अगर नफ्रस की तरबियत व इस्लाह नहीं हुई तो फिर जिस्म अमल की तरफ रागिब नहीं हो सकता। फलाह और कामरानी उन्हीं लोगों को लिख दी जाती है। जिन्होंने मन और जहन को पाक व साफ कर लिया। वह शख्स बरबाद व नाकाम रहा जिसने अपने नफ्रस की ख्वाहिशों को उभारा और उसे नेकियों की तरफ नहीं मोडा। ईदुल फितर का दिन इख्लास व ईसार जिक्र अल्लाह के इनामों के शुक्र आमाल का मुहासिबा एवं आपसी खुलूस, इत्तहाद, खैरात, सदका और खुशी व शादमानी का दिन है। आज के दिन सिर्फ शुक्राने की नमाज पढ लेने से कोई फायदा नहीं। जब तक कि जिन्दगी भर तमाम फर्ज इबादत अंजाम देने का एहद न करें और ईद के दिन बगलगीर होने से कोई फायदा नहीं जब तक कि मुसलमानों के दिल आपस में मुत्तहिद व मुत्तफिक न हो जाए। अल्लाह तआला तमाम मुसलमानों को सही शऊर और जिन्दगी का मकसद अता फरमाए। आमीन 0 रईसा मलिक