(तीसरी किश्त)
काबे की तामीर का काम
काबे की दीवारों को सबसे पहले हजरत इब्राहीम अलै. ने हजरत इस्माईल अलै. के साथ मिल कर तैयार किया था, फिर बनी जरहम, बनू अमालका, कफसई और कुरैश ने उस की मरम्मत की। इस बार फिर बारिश की ज्यादती की वजह से काबे की दीवारें फट गई थीं। उस वक्त हजरत मुहम्मद सल्ल. की उम्र 35 साल की थी, जब कुरैश ने काबे की इमारत की जिस की दीवारें काफी फट गई थीं, फिर से तैयार करने का प्रोग्राम बनाया। कुरैश के तमाम कबीलों ने मिल कर काम शुरू कर किया। इमारत के बनाने में तो सभी शामिल थे, मगर जब हजरे असवद (काला पत्थर) के दीवार में चुनने का मौका आया, तो बडा झगडा उठ खडा हुआ, इसलिए हर एक यही चाहता था कि यह खिदमत हमीं अंजाम दें।
हजरे असवद एक पत्थर है जो काबे की दीवार में एक कोने में लगा हुआ है। इसी पत्थर से तवाफ शुरू और खत्म होता है। यह सिर्फ एक पत्थर है, जिस के बारे में एक बार हजरत उमर रजि. ने उसे खिताब करके कहा था कि, ’तू एक पत्थर है, न किसी को नफा दे सकता है, न नुकसान पहुंचा सकता है।‘
कुरैश का यह झगडा चार दिन तक बराबर चलता रहा, नौबत यहां तक पहुंचती कि तलवारें निकल-निकल आतीं और खून-खराबे का खतरा पैदा हो जाता। आखिर में पांचवें दिन अबू उमय्या बिन मुगीरा ने जो कुरैश में सब से बडी उम्र का था, यह राय दी कि किसी को ’हकम‘ बना कर उसके फैसले पर अमल करें, इस राय को मान लिया गया और तै किया गया कि जो कोई सुबह सवेरे सब से पहले हरम मे आएगा, वही सब का हकम (फैसला करने वाला) समझा जाएगा।
अल्लाह की कुदरत कि दूसरे दिन सुबह-सबेरे ही सब से पहले जिस शख्स पर नजर पडी, वह हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम ही थे। आप को देखना था कि ’हाजल अमीन रजीनाहु‘ के नारे लग गये। आपने अपनी सूझ-बूझ से ऐसा फैसला किया कि सब खुश हो गये। आं हजरत सल्ल. ने एक चादर बिछायी, उस पर पत्थर अपने हाथ से रख दिया। फिर हर कबीले के सरदार को कहा कि चादर को पकड कर उठाएं। इस तरह इस पत्थर को वहां तक लाये, जहां कायम करना था। आंहजरत सल्ल्ल. ने फिर उसे उठा कर कोने पर और तवाफ के सिरे पर लगा दिया।
आप की इस खूबसूरत तद्बीर से एक भयानक लडाई का सिल-सिला शुरू होते-होते रूक गया, वरना उस वक्त के अरबों में रेवड के पानी पिलाने, घोडों के दौडाने, शेर-शायरी में एक कौम से दूसरी कौम को अच्छा बताने जैसी छोटी-छोटी बातों पर ऐसी भयानक लडाईयां छिडती थीं कि बीसियों वर्ष तक खत्म होने का नाम न लेती थीं।
नबूवत मिली
पैगम्बरे इस्लाम सल्ल ल्लाहू अलैहि व सल्लम की जिन्दगी में अब एक नयी तब्दीली पैदा हो चली थी। अब आप की तवज्जोह तन्हाई में बैठ कर अल्लाह की इबादत करने और अपने माहौल की अख्लाकी और मजहबी गिरावट पर गौर करने की तरफ बढने लगी थी। आप बराबर सोचा करते, मेरी कौम के लोग बुतों को क्यों पूजते हैं, उन की यह बुराई कैसे दूर हो? उन्हें कैसे बताया जाए कि सच्ची खुदापरस्ती की राह क्या है?
ये और इसी किस्म के सवाल आप के दिल व दिमाग को परेशान किए रहते। इस गौर व फिक्र का नतीजा यह निकला कि आप तहाई पसंद होते चले गये।
मक्का मुअज्जमा से तीन मील की दूरी पर एक गार था, जिसे हिरा कहते हैं। आप अक्सर वहां जाकर अकेले बैठने लगे। पानी और सत्तू लेकर जाते। इबादत करते, जिक्र में मश्गूल रहते, गौर व फिक्र करते और जब तक पानी और सत्तू खत्म न हो जाते, शहर में न आते।
एक दिन आप हिरा के गार में इबादत में लगे हुए थे, आप चालीस साल के हो चुके थे, 9 रबीउल अव्वल तारीख थी तारीख थी। (मुताबिक 12 फरवरी सन् 61 हि.) कि आप के सामने अल्लाह का भेजा हुआ फरिश्ता जाहिर हुआ। यह हजरत जिब्रील अलै. थे। रूहुल अमीन ने कहा, मुहम्मद! खुशखबरी कुबूल फरमाइए, आप अल्लाह के रसूल हैं और मैं जिब्रील हूं।
हजरत जिब्रील अलै. ने आंहजरत सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम से कहा, ’पढ‘। आपने फरमाया, मैें पढा हुआ नहीं हूं।‘ यह सुन कर हजरत जिब्रील अलै. ने आंहजरत सल्ल. को पकड कर इतना भींचा कि आप थक गये। फिर आंहजरत सल्ल. को छोड दिया और कहा, ’पढ‘ आपने फिर वही जवाब दिया और उन्होंने फिर आंहजरत सल्ल. को पकड कर भींचा और छोड कर कहा, ’पढ‘। आपने फिर फरमाया, मैं पढा हुआ नहीं हूं अब हजरत जिब्रील ने तीसरी बार वही किया और छोड कर कहा-
’इकरअ् बिस्मिरब्बिल्लजी खल्लक. क-ल-कल इंसा-न मिन अ-ल्लक. इकर्अ व रब्बुकल अक्र मुल्लजी अल्ल-म बिल क-लम अल्ल्मल इन्सा-न मा लम यअ्लम.
तर्जुमा- ’अपने रब के नाम से पढ, जिस ने इंसान को जमे हुए खून से पैदा किया। पढ और तेरा रब बडा बजुर्ग है, जिसने कलम के जरिए सिखाया, और इंसान की वह कुछ सिखाया, जो वह नहीं जानता था।‘यही सबसे पहली वह्य थी।
हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम इस वाकिए के बाद घर तश्रीफ लाए। उस वक्त आपके दिल की धडकनें बहुत तेज थीं। आप ने हजरत खदीजा से फरमाया, मुझे कम्बल उढाओ, मुझे कम्बल उढाओ। आप को कम्बल उढा दिया गया। जब आपको कुछ सुकून हुआ, तो आपने हजरत खदीजा से पूरा किस्सा सुनाया और फरमाया, ’मुझे अपनी जान का खतरा है।’
हजरत खदीजा रजि. ने फरमाया, नहीं, हरगिज नहीं। आप की जान को खतरा नहीं। खुदा आप को रूसवा न करेगा। आप रिश्तेदारों का हक अदा करते हैं। लोगों के बोझ को आप खुद उठाते हैं। फकीरों और मिस्कीनों की आप मदद करते हैं, मुसाफिरों की मेहमानी करते हैं, इंसाफ के लिए आप लोगों की मुसीबतों में काम आते हैं।‘
अब हजरत खदीजा को अपने दिल के इत्मीनान की जरूरत हुई इसलिए वह नबी सल्ल. को साथ लेकर अपने रिश्ते के चचेरे भाई वर्का बिन नोफुल के पास गयीं।
वर्का बिन नोफुल बूढे दीनदार ईसाई थे, जो अपने दीन की जाहिली बातों को छोड कर किसी नए नबी के आने का इन्तिजार कर रहे थे। तौरात पर उन की गहरी नजर थी।
हजरत खदीजा की दख्र्वास्त पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने वर्का बिन नोफुल के सामने जिब्रील के आने और वह्यय लाने का पूरा किस्सा सुनाया। वर्का झट बोल उठ- यही है वह नामूस (छिपे भेदों का जानने वाला फरिश्ता), जो मूसा अलैहिस्सलाम पर उतरा था। ऐ काश! मैं जवान होता, ऐ काश ! मैं उस वक्त तक जिन्दा रहता, जब कौम आप को निकाल देगी।‘
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम ने पूछा, ’क्या कौम मुझे निकाल देगी?‘
वर्का बोले, ’हां इस दुनिया में जिस किसी ने ऐसी तालीम पेश की, उससे (शुरू में) लोगों ने दुश्मनी ही की। काश! मैं हिजरत तक जिन्दा रहूं और हुजूर सल्ल. की खुली मदद करूं।‘
उस वक्त वर्का बहुत ही बूढे हो चुके थे, आंखों की रोशनी भी खत्म हो चुकी थी। इस वाकिए के कुछ ही दिनों बाद उनका इन्तिकाल हो गया।
इसके बाद हजरत जिब्रील का आना लगभग छः महीने तक रूका रहा। वह्यय का इन्तिजार आपको रहने लगा, यहां तक कि हजरत जिब्रील आए और फिर आते रहे और आप को इत्मीनान दिलाते रहे कि आप का चुनाव रसूल की हैसियत से कर लिया गया है