(सातवीं किश्त)
हब्शा की हिजरत
फिर कुरैश ने हर मुमकिन कोशिश की कि किसी तरह यह मिशन रूक जाए, इस्लाम की दावत पर बंद बांध दिया जाए, सच्चाई की यह आवाज दब जाए, लेकिन-
फूंकांे से यह चिराग बुझाया न जाएगा।
फिर भी हर मुसीबत की कोई हद होती है। इम्तिहान की जिन, कठिन घडियों का मुसलमानों को सामना करना पडा रहा था, उन्हें झेलने और अडिग रहने का उन्होंने एक यादगारी नमूना कायम कर दिया था, लेकिन जुल्म व सितम की चक्की का दौर भी खत्म होने का नाम न लेता था। मुसलमान पिस रहे थे, दबाए कुचले जा रहे थे। हजरत मुहम्मद सल्ल. अपने साथियों का हाल देख-देख कर कुढते, पर कोई जोर न चलता था। सहारा था तो खुदा के ईमान का था, आखिरत के यकीन का था, सच्चाई की आखिरी जीत की मजबूत उम्मीदों का था।
हुजूर सल्ल. अपने साथियों को तसल्ली देते कि खुदा कोई न कोई रास्ता निकालेगा। मुसलमान बेचैन थे कि अल्लाह की मदद कब आएगी, इन हालात में हुजूर सल्ल. ने साथियों को मश्विरा दिया कि जमीन में कहीं निकल जाओ, खुदा जल्द ही तुम को किसी जगह इकट्ठा कर देगा। पूछा गया कि किधर जाएं? हुजूर सल्ल. ने हब्शा की तरह इशारा कर दिया।
नुबूवत के पांचवे साल इजाजत मिलने के बाद एक छोटा-सा काफिला 12 मर्दों और औरतों का रात के अंधेरे में निकला और जिद्दा के बन्दरगाह से जहाज में सवार हो कर हब्शा को रवाना हो गया।
इस छोटे से काफिले के सरदार हजरत उस्मान बिन अफ्फान रजि. थे। हजरत रूकय्या रजि. (हजरत मुहम्मद सल्ल. की बेटी) उन के साथ थीं। नबी सल्ललाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया हजरत लूत और हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के बाद यह पहला जोडा है, जिन्होंने खुदा की राह में हिजरत की।
इस काबिले के निकलने के बाद जब कुरैश की खबर हुई तो उन के पीछे आदमी दौडा दिए मगर जब वे बन्दरगाह (जिद्दा) पहुंचे तो मालूम हुआ कि उनको ठीक वक्त पर जहाज तैयार मिल गया था और वे अब पहुंच से बाहर हैं।
ये मुहाजिर कुछ ही दिनों (रजब से शव्वाल तक) हब्शा में ठहरे कि एक अफवाह पहुंची, यानी यह कि कुरैश ने इस्लाम कुबूल कर लिया है। ये सभी पलट आए, पर मक्का के करीब पहुंचने पर ही मालूम हो गया कि अफवाह गलत थी।
दोबारा बहुत बडा काफिला 85 मर्दों और 17 औरतों का हब्शा की तरफ रवाना हुआ। हब्शा में अम्न और सुकून के साथ जिन्दगी गफजारने लगे। इन में नबी सल्ल. के चचेरे भाई हजरत जाफर तैयार भी थे।
हब्शा में मुसलमानों का अम्न और सुकून के साथ रहना कुरैश की और ज्यादा बेचैनी की वजह बन गया। वे एक जगह जमा हुए, सारे मामले पर गौर करके स्कीम बनाई और अब्दुल्लाह बिन रबीआ और अम्र बिन आस को हब्शा के बादशाह के पास अपना खास दूत बनाकर भेजने का फैसला दिया। इस मक्सद के लिए नाजशी ओर उसके दरबारियों के लिए कीमती-कीमती तोहफे तैयार किये गए और बडे साज व सामान के साथ इन दूतों को हब्शा रवाना किया गया।
हब्शा पहुंच कर ये लोग दरबारियों और पादरियों से साजिश करने में लग गए। इनको खूब-खूब रिश्वतें चढाईं लालच दिए और उनके सामने यह शक्ल रखी कि हमारे शहर में कुछ सर-फिरे लोगों ने एक मजहबी फित्ना खडा कर दिया है और यह तुम्हारे मजहब के लिए भी उतना ही खतरनाक है, जितना हमारे बाप-दादों के धर्म के लिए। हमने इनको निकाल दिया था, तो अब ये आपकी पनाह में आ पडे हैं। इनको यहां टिकने नहीं देना चाहिए। इस मक्सद में आप हमारी मदद करें।
उनकी असल कोशिश यह थी कि दरबार में सारा झगडा खुल कर न आने पाए और मुहाजिरों को सिरे से बात करने का मौका हो न मिले। बादशाह यकतरफा बात सुन कर मुसलमानों को हमारे हवाले कर दे। इसी मक्सद के लिए रिश्वत और जोड-तोड के तरीके अपनाये गये थे।
ये लोग जब दरबारियों और पादरियों को मक्खन लगा चुके, तो नजाशी के सामने तोहफे लेकर पेश हुए, फिर अपना तकसद बयान किया कि मक्का के शरीफों ने हम को आप की खिदमत में इसलिए भेजा है कि पादरियों ने भी ताईद की। पर नजाशी ने यकतरफा दावे पर कार्रवाई करने से इन्कार कर दिया और साफ कहा कि इन लोगों से हालात मालूम किये बगैर मैं उनको तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता।
दूसरे दिन दरबार में दोनों फरीक तलब किए गए।
मुसलमानों को जब तलबी का पैगाम पहुुंचा, तो उनके दर्मियान मश्विरा हुआ कि बादशाह ईसाई है और हम लोग अपने एतकाद और ख्याल के लिहाज से उस से इख्तिलाफ ही रखते हैं, तो आखिर क्या कहा जाए? लेकिन फैसला यही हुआ कि हम दरबार में वही कुछ कहेंगे जो कुछ खुदा के नबी सल्ल. ने हम को सिखाया है, नतीजा जो भी निकले।
फिर जब ये लोग दरबार में पहुंचे तो दरबार के आदाब के मुताबिक नाजाशी को सज्दा नहीं किया।
दरबारियों ने इसे बुरा जाना सवाल किया, गया कि आखिर तुम लोगों ने सज्दा क्यों नहंी किया।
हजरत जाफर ने पूरे यकीन के साथ जवाब दिया कि हम लोग अल्लाह कि सिवा किसी को सज्दा नहीं करते और खुदा के सिवा अल्लाह के रसूल सल्ल. को भी सीधे-सादे तरीके से सलाम करते हैं।
अब मक्का के दूतों ने अपना दावा पेश किया कि ये मुहाजिर भगोडे मुजरिम हैं, इन्होंने अपना एक नया दीन गढ लिया है और हमारे देश में फित्ने और बिगाड की जड बन गये हैं, इस लिए इन को हमारे हवाले किया जाए।
नजाशी ने मुसलमानों से पूछा यह क्या मामला है और ईसाई धर्म और कुल परस्ती के मुकाबले में वह कौन सा धर्म है जिसे तुम लोगों ने अख्तियार कर रखा है।
हजरत जाफर रजि. मुसलमानों की तरफ से उठे, उन्होंने नजाशी से इजाजत तलब की कि वह पहले मक्का के दूतों से कुछ पूछ लें, फिर अपनी बात कहे। इजाजत मिलने पर उन्होंने पूछा‘
क्या हम किसी के गुलाम हैं, जो मालिक को बे‘इजाजत भाग आए हों? अगर ऐसा है तो हमें वापस किया जाना चाहिए।
अम्र बिन आस बोला नहीं ये लोग किसी के गुलाम नहीं, आजाद शरीफ लोग हैं।
पूछा, क्या हम किसी को ना‘‘हक कत्ल कर के आए हैं? अगर ऐसा हो तो हम उसे अदा करने को तैयार हैं।
जवाब में कहा नहीं इन के जिम्मे किसी की एक पाई नहीं।
इस जिरह से जब मुसलमानों की अख्लाकी पोजीशन साफ हो गई तो हजरत जाफर रजि. ने यह तकरीर की।