(आठवीं किश्त)
हजरत उमर का इस्लाम-
कुरैश के जुल्म व सितम की दास्तान का एक हिस्सा उमर से भी मुताल्लिक है। उमर सत्ताईसवें साल में थे, जब मुहम्मद सल्ल. की नुबूवत की आवाज गूंजी। इस्लाम आप के घराने में भी पहुंच गया पहले आप के बहनोई सईद ने इस्लाम कुबुल किया। उनके असर से आप की बहन फातिमा भी मुसलमान हो गयीं। खानदान के एक और असर और इज्जत वाले शख्स नईम बिन अब्दुल्लाह ने भी इस्लाम कुबुल कर लिया।
पहले तो उमर को उनके इस्लाम की बात न मालूम हुई, ज्यों ही मालूम हुआ, यह आपे से बाहर हो गये और इस्लाम लाने वालों के दुश्मन बन गये।
लबीना उनके खानदान की लौंडी थीं, इस्लाम कुबूल करने की वजह से उन्हें इतना मारते कि मारते-मारते थक जाते तो दम लेने के लिए अलग खडे हो जाते, सांस लेने के बाद फिर मारना शुरू कर देते।
ृ आखिर एक दिन तै कर लिया कि क्यों न असल शख्स हजरत मुहम्मद सल्ल. ही पर हाथ साफ कर दिया जाए। वह इस गरज से तलवार लेकर निकले। रास्ते में नईम बिन अब्दुल्लाह से मुलाकात हो गयी। उन्होंने कहा, पहले अपने घर की खबर लो और बहन और बहनोई से निबट लो, फिर किसी और तरफ जाना।
फौरन पलटे और बहन के घर पहुंचे। वह कफरआन पढ रही थीं। आहट हुई तो मालूम हो चुका है कि तुम दोनों पुराने धर्म से फिर चुके हो। यह कह कर बहनोई पर टूट पडे। बहन बीच-बचाव के लिए आयीं तो आंखों के साथ, अपने ईमान को जाहिर करते हुए बोलीें-
ईमान को जाहिर करते हुए बोलीं-
उमर! जो कुछ कर सकते हो, करो, लेकिन इस्लाम अब दिल से नहीं निकल सकता।
बहन के इस ईमान व यकीन का असर उमर पर भी हुआ, कहा, जो आप पढ रही थीं, मुझे भी ला कर सुनाओ।
वह गयीं और कुरआन के पन्नों को निकाल लायीं। वह सूरः त्वाहा थी। आप ने पढना शुरू किया और जब इस आयत पर पहुंचे-
मैं हूं खुदा, मेरे सिवा कोई खुदा नहीं, तो मेरी बन्दगी करो और मेरी याद के लिए नमाज कायम करो।
तो यह असर हुआ कि फौरन पुकार उठे-
अश्हदुअल्लाइला-ह इल्लल्लाहू व अश्हदू अन-न मुहम्मदन अब्दुहू व रसूलुहू.
(मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और मैें गवाही देता हूं कि मुहम्मद उसके बन्दे और रसूल हैं।)
और सीधे आंहजरत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हजरत जो कि अरकम के मकान में ठहरे हुए थे। दरवाजे पर पहुंचे तो चूंकि तलवार हाथ में थी, सहाबा की चिन्ता हुई लेकिन हजरत हमजा रजि. ने फरमाया कि आने दो, अगर अच्छी नीयत से आया है, तो बेहतर है, वरना उसी की तलवार से उस का सर उडा दूंगा।
हजरत उमर रजि. ने अन्दर कदम रखा तो आंहजरत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बढ कर उन का दामन पकडा और फरमाया, क्यों उमर! किस इरादे से आए हो?
यह सुन कर हजरत उमर रजि. पर एक रौब सा छा गया और बडी गर्मी से बोले, ईमान लाने के लिए।
हजरत मुहम्मद सल्ल. बे-साख्ता पुकार उठे, अल्लाहू अक्बर और साथ ही तमाम साथियों ने नारा-ए-तक्बीर बुलंद किया।
हजरत उमर रजि. के इस्लाम लाने के बाद मुसलमानों की ताकत काफी बढ गयी, यहां तक कि मुसलमान अभी तक अपने मजहबी फर्जों को एलानिया अदा नहीं कर सकते थे और काबे में जमाअत के साथ नमाज पढना तो मुमकिन ही न था। हजरत उमर के इस्लाम लाने के बाद हालत बदल गयी। उन्होंने एलानिया अपने इस्लाम का इजहार किया, अगरचे इस पर बडा हंगामा हुआ, लेकिन आखिरकार मुसलमानों ने हरमे काबा में जमाअत के साथ नमाज पढना शुरू कर दी।
समाजी बाईकाट
हजरत उमर रजि. हजरत हमजा रजि. जैसे मशहूर और हौसला-मंद नव-जवानों के इस्लाम कुबूल कर लेने से कुरैश ने अच्छी तरह महसूस कर लिया कि अब इस्लाम की ताकत जिस तेजी से बढ रही है वह उनके खात्मे की वजह बन सकती है इसलिए उन्होंने जल्द और फैसला कर देने वाली चालों के बारे में सोचना शुरू किया।
मुर्हरम सन् 07 नबवी में मक्का के तमाम कबीलों ने मिलकर एक समझौता किया कि बनू हाशिम खानदान का बाईकाट किया जाए इसलिए कि मुसलमान न होने के बावजूद वह नबी सल्ल. का साथ नहीं छोडना कोई उनसे रिश्ता न कायम करे, न उन से शादी ब्याह का ताल्लुक रखे, न लेन-देन करे, न उनसे मिले-जुले, न खाने-पीने का सामान हमारे हवाले न कर दे।
यह समझौता लिख कर काबे के दरवाजे पर लटका दिया गया।
यह फैसला अबू तालिब से बहुत बार बात-चीत के बाद इस बात से मायूस हो कर किया गया था कि न अबू तालिब रसूलुल्लाह को अपनी सरपरस्ती से निकालने पर तैयार है और न उन की वजह से बनू हाशिम ताल्लुक तोड सकते हैं।
अब बनू हाशिम के लिए दो ही रास्ते थे, या तो आंहजरत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को काफिरों के हवाले कर दें या फिर इस बाईकाट की वजह से जो मुसीबतें आएं उन्हें झेलने के लिए तैयार हो जाएं।
चुनांचे अबू तालिब मजबूर हो कर अपने पूरे खानदान के साथ पहाड के एक दर्रे में नजरबंद हो गये, जो विरासत के तौर पर बनू हाशिम की मिल्कियत थी।
इस दर्रे में उन लोगों को आंहजरत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लाम के साथ 3 साल बडी सख्त जिन्दगी गुजारनी पडी। इस नजरबन्दी के दौर में जो हालात गुजरे हैं। उनको पढकर पत्थर दिल भी पिघलने लगता है। पेडों के पत्ते निगले जाते रहे और सूखे चमडे उबाल-उबाल कर और आग पर भून-भून कर खाए जाते रहे। हालत यह हो गयी कि बनू हाशिम के मासूम बच्चे जब भूख के मारे बिलखते थे, तो दूर-दूर तक उन की दर्द भरी आवाजें जाती थीं। कुरैश इन आवाजों को सुनते तो मारे खुशी के झूम-झूम जाते।
नाका बन्दी इतनी सख्त थी कि एक बार हकीम बिन हिजाम (हजरत खदीजा के भतीजे) ने कुछ अपने गुलाम के हाथ चोरी-छिपे भेजा, रास्ते में अबू अह्ल ने देख लिया और गेंहूं छीनने लगा।
इत्तिफाक से अबुल बख्तरी भी आ गया। उसके अन्दर किसी अच्छे इंसानी जज्बे ने करवट ली और उसने अबू जह्ल से कहा कि छोडो भी एक भतीजा, अपनी फूफी के लिए कुछ भेजता है, तो तुम उसे भी अब रोकते हो।
इसी तरह हिशाम बिन अम्र चोरी-छिपे कुछ गल्ला भेज देते थे।
तीन वर्ष तक नबी सल्ल. और उनके खानदान ने इसी तरह काटे और जो मुसलमान थे, वे भी अपने घरों में कैदी बन कर रहने लगे।
यह तो अल्लाह की मेहरबानी हुई कि हालात ऐसे पैदा हो गये कि दुश्मनों को यह बाइकाट खुद खत्म करना पडा।