पहली कड़ी
शीला अपने मायके गयी हुई थी। मैं घर में अकेले ही था। एकाकीपन के बोझ को दूर करने के लिये मैं नियमित रूप से क्लब भी जाने लगा। इसके पहले मैं क्लब की फीस तो हर महीने देता, पर मुश्किल से हफ़्ते में एकाध दिन वहां जा पाता था, एक तो मेरी उपस्थिति में अन्य अफसर उन्मुक्त और सहज नहीं हो पाते थे। कलेक्अर होने के नाते जो विशेषता मुझ पर आरोपित थी, उसे अन्य लोग एक क्षण भी नहीं भूल पाते थे। ये लोग मेरे सामने दिल नहीं खोलते थे। एक अजीब-सा संकोच, शिष्टïाचार का वातावरण मेरे पहुंचते ही क्लब में बन जाता था। न तो दिल खोलकर ठहाके लगते और न ही सहज मजाकों का दौर चलता। मैंने ही बीच का रास्ता अपनाया, न तो क्लब की पूर्ण उपेक्षा की और न ही घनष्ठिïता स्थापित की सप्ताह में एकाध दिन पहुंंचाता, एक दो गेम टेबिल टेनिस के खेलता। कभी कभी ब्रिज भी। कभी पुलिस कप्तान के साथ हल्की-फुल्की मजाक भी कर लेता था।
शीला और बच्चों के न होने से शाम होते ही अजीब सी उदासी छाने लगती, बच्चों से भरा घर कितना सुख देता है,उसे अनुभवी ही समझ सकता है। बच्चों की किलकारी, उनकी, प्रश्र पूछती आंखें तथा शोर मचाती मुद्राएं उदासी के कुहांसे को तोड़ देती हैं, एक अवर्णनीय हल्कापन आ जाता है बच्चों से बात करने में, लगता मानों बोझ सिर से उतर गया।
उस दिन घर पहुंचा तो चपरासी ने सूचना दी, कोई उमा मेम साहब आयी हुई है। उन्हें गेस्ट रूम में ठहरा दिया है।
क्या अकेली है
हां सर अकेली है
मैं गेस्ट रूम में गया। उमा पलंग पर लेटी कोई पाकिट बुक पढ़ रही थी। मैंने दरवाजे पर आहट की तो वह उठकर बैठ गई।
‘आ गये आपÓ, उसने खड़े होते हुये मेरा स्वागत किया। ‘कब आईÓ? मैं पलंग के पास रखी कुर्सी पर बैठ गया।
‘अभी एक्सप्रेस से ‘अच्छाÓ, दीदी कहां है? वह शीला को दीदी ही कहती थी। अपने मायके गई हैं- भाई की शादी है, मैंने गौर से उसे देखा शादी के बाद वह कुछ स्थूल सी हो गई थी पर रंग निखर आया था तथा रूप भी आकर्षक हो गया था।
सर खाना लगाऊँ?
मैंने उमा की तरफ देखा, आंखों ही आंखों में उसने मौन स्वीकृत दी। चपरासी को खाना लगाने का संकेत कर दिया। खाने के बाद हम बेडरूम में आ गये। कमरे में दृष्टिï डालते ही नई ताजगी सी महसूस हुई। हर चीज झाड़-पोंछकर करीने से सजा दी गई थी। कमरे में लगी पेंटिंग भी साफ कर दी गई थी। बिस्तर की चादरें बदल दी गई थीं। दो तकिये अलग-अलग किन्तु साथ-साथ रखे थे। तकियों पर नजऱ डालने के बाद न$जर उमा की तरफ डाली। उसने आंखें नीची कर लीं। उसके गालों पर अरूणाई फैल गई थी। मुझे आश्चर्य हुआ। कालेज की शर्मीली लड़की का यह रूप? जो एकान्त में दो क्षण भी किसी लड़के के साथ नहीं बैठी, वह विवाह के पश्चात्ï इस प्रकार व्यवहार करेगी। यह सोचा नहीं जा सकता था।
क्या उमा इस बात की जानकारी के बाद ही यहां आई है, कि मैं अकेला हूँ और शीला बाहर गयी हुई हैï? उमा का शीला की अनुपस्थिति में आना, जिसे मैं मात्र एक संयोग समझ रहा था, बेडरूम की साज सज्जा देखते हुये पूर्व नियोजित षडयंत्र सा लगने लगा। घर आये मेहमान को भगाया भी नहीं जा सकता और न ही उसकी बदनियती को उजागर कर उसे अपमानित किया जा सकता था।
चपरासियों के चेहरों पर भी अजीब की चुलबुलाहट थी। जैसे कह रहे हों कलेक्टर साहब अब खुले।
बेडरूम में उमा की ही एक पेंटिंग लगी थी। खजुराहों का प्रणय युग, उसने उसे देखा तो बोली मैं तुम्हारी यादों से दूर नहीं हुई, अनिल, यह पेंटिंग तुम्हारे बेडरूम में देखकर मुझे बहुत संतोष हो रहा है- कहते हुे वह मेरे निकट सरक आई। लगा जैसे आमंत्रित कर रही हो। मैंने उसे कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुये कहा- बैठो न अभी हम कुछ बातें करें। मैंने उसके चेहरे की ओर देखा। उसकी आंखों में सुर्खी छा रही थी। ओठों पर लाली की परतें गाढ़ी हो गयी थीं।
वह कुर्सी पर अनमने भाव के साथ बैठ गई। मैं भॉप गया। उसके एक रिश्तेदार का मामला मेरे विचाराधीन था। मैंने उसके रिश्तेदार का जिक्र छेड़ा लगभग 5 लाख की सम्पत्ति का प्रकरण था। उसके रिश्तेदार ने अवैध रूप से सरकारी भूमि पर कब्जा कर लिया था। भाग्य से वहां से सड़क निकल गई और उस भूमि के पास ही बस स्टेण्ड बनते ही रातों रात लाखों की हो गई। उमा का रिश्तेदार उसमें निर्माण कार्य कराके कई दुकानें तथा मकान बनाकर हजारों रूपये। महीने का किराया वसूलने लगा। वह येनकेन प्रकारेण इस मामले को दबाये रखता। अब चाह रहे थे कि मैं उनके इस मामले को कानूनी रूप दे दूं। जमीन को उन्हें लीज पर दे दूं जिससे कि उन्हें जमीन के मामले को दबाने के लिये जो जुगाड़ लगानी पड़ती, उससे मुक्ति मिल जाये और मुझे लगा कि इसी के लिए फेबर गेन करने को उसके रिश्तेदारों ने उमा को मेरे पास भेजा है।
पैसा क्या नहीं करवाता जिसकी न कभी कल्पना होती है और न अनुमान उमा-एम सुसंस्कृत घर की बेटी खानदान की इज्जत को सर्वोपरि मानने वाले परिवार की बहू रात के दस बजे अकेली मेरे बेडरूम में, समर्पण की तैयारी के साघ्थ आश्चर्य कितना महत्व बढ़ गया है धन का? कितनी नीचता पर उतार आए हैं हम लोग-इस धन के पीछे ।
मन में आया कि कसकर उमा के गालों पर थप्पड़ जड़ दूं, उसे कमरे के बाहर कर दूं- कमीनी तू किस भरोसे मेरे पास आई है? क्या मुझे भी अन्यों व अपनी तरह चरित्रहीन समझ बैठी है? पर क्या यह मेरे लिए, जिले के कलेक्टर के लिए संभव था, शायद नहीं। मैं सोचने लगा बंगले में किसी घटना का होना अर्थात्ï पूरे जिले में उसका प्रचार होना होता है। अगर उमा ने ही मुझे ब्लेकमेल करना चाहा तो मैं क्या करूंगाï? यदि मैं चुप रहकर उमा का समर्पण स्वीकार करता हूँ तो वह करना होगा जो मैं नहीं करना चाहता। और फिर उमा के आने व रात गुजारने की बात जब शीला सुनेगी तब चपरासियों को तो गलत फहमी हो ही गई थी वे शायद उमा के आने का प्रयोजन समझ गए थे। कितना निरीह होता है ऊंची कुर्सी पर बैठा आदमी-कितना निर्बल-कितना शक्तिहीन? अचानक फोन की झघ्घण्टी बज उठी। मैँ उठकर अपने स्टडी रूम में आया। फौन राजधानी से आया था-एक गुप्त जानकारी मांगी गयी थी। स्टडी से वापस बेडरूम आते-आते मुझे समस्यसा का निदान मिल गया। मैंने अपने चेहरे पर उतावली के भाव बनाए तथा लगभग हड़बड़ाहट के साथ बेडरूम में घुसते हुए कहा- सॉरी उमा यह नौकरी क्या है, गुलामी है कहने को तो कलेक्टर हूँ जिले का मालिक पर चैन दो क्षण का भी नहीं, अभी-अभी मेसेज मिला है कि एक कस्बे में कल सुबह कुछ हंगामा होने वाला है। बेचारा तहसीलदार बुरी तरह घड़ा रहा है, मुझे तत्काल वहां पहुंचना है। मैं अभी जा रहा हूँ तुम कल तक तो रूकोगी न।
मुझे भी लौटना है मैं तो केवल शला दीदी से मिलने चली आई थी उसने भौंचकेपन से कहा।
अरे अभी हमारी बातें भी नहीं हुई- खैर वेट करती तो ठीक होता। कल तो आ ही जाऊंगा और हां, वह तुम्हारे रिश्तेदारों का प्रकरण देखा है। मैंने तहसीलदार को कमेंट के लिए भेज दिया है केस की स्टडी कर लूं और मैं बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बाहर निकल आया।
जीवन में अक्सर जब हम सामान्य नागरिक होते हैं तो हमारा अस्तित्व नगण्य रहता है। जो अपने हमारी स्थिति को नगण्य समझते हैं किसी पद पर आसीन होते ही किस प्रकार हमको साधन प्राप्ति का अस्त्र समझने लगते हैं व हर प्रकार से कर्तव्य विमुख करने का प्रयत्न करते हैं। यही सोचते हुए मैं तहसील मुख्यालय की ओर बढ़ा।