हजरत फैज बहादुर शाह ने अपने दरवेशी की बिना पर रियासत का माहौल युद्ध की ओर से मारफत और रूहानियत की ओर मोड दिया था। इनके देहांत के पश्चात मांजी साहिबा की सलाह से इनके भाई हयात मोहम्मद खान को रियासत की बागडोर सौंपी गई। इन्होंेने दीवान छोटे खान को रियासत का दीवान बनाया।
दीवान छोटे खान के 14 विशेष प्रशिक्षित जासूस थे, जो पल-पल का समाचार उन तक पहुंचाते थे। उन्होंने इंदौर, ग्वालियर और नागपुर के राजाओं से भी संपर्क साधा जो कि सदैव भोपाल रियासत के दुश्मन रहे थे और भोपाल पर आक्रमण करते रहते थे। इसके साथ उन्होंने रियासत के अंदरूनी विवादों को भी निपटाया।
दीवान छोटे खान ने भोपाल के उत्तरी क्षेत्र में एक बांध बंधवाया जो इनके नाम से छोटा तालाब कहलाया, और इसके ऊपर एक कच्चा पुल भी बनवाया। बाद में इस पुल को नवाब शाहजहां बेगम ने अपने शासन काल में पुख्ता (पक्का) करवाया और इसका नाम पुल पुख्ता पडा।
दीवान छोटे खान ने शहर के चारों ओर खाईयां भी खुदवाईं और फतेहगढ किले की मरम्मत (सुधार कार्य) भी करवाई। इसके पश्चात इन्होंने पिण्डारों की लूटमार पर अंकुश लगाया।
दीवान छोटे खान ने अपने कार्यकाल में रियासत की भलाई के लिए बहुत से कार्य करवाये। सन् 1794 में इनका देहांत हो गया और इन्हें किला फतेहगढ में दफ्न किया गया। इसी साल मांजी साहिबा केा भी इंतकाल हो गया। इन दोनों जिम्मेदारों के इंतकाल के बाद रियासत अंदरूनी झगडों में घिर गई।
दीवान छोटे खान के पुत्र अमीर मोहम्मद खान को रियासत का नया दीवान बनाया गया। मगर वो गद्दार साबित हुआ और रियासत से विद्रोह कर रातों रात एक लाख रूपया लेकर भाग निकला और नागपुर पहुंच कर राघवजी को हमले को उकसाया।
सखराम पंडित और नूरखान की सिपहसालारी (नेतृत्व) में 40 हजार की एक फौज ने होशंगाबाद पर हमला कर दिया, जो कि रियासत भोपाल का हिस्सा था। वहां के किलेदार शेख मुकीम ने नवाब साहब से सहायता मांगी, भोपाल से 10 हजार फौज की टुकडी भेजी गई। घमासान युद्ध हुआ और अंततः नागपुर की सेना ने होशंगाबाद पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात नवाब साहब ने हिम्मत राम को दीवान बनाया, परंतु वो भी अपने काम को ठीक ढंग से नहीं कर सका।
नवाब साहब की पत्नी अस्मत बीबी जो बहुत समझदार और होशियार थीं और परदे में नूरजहां की तरह शासन पर अपनी पकड रखती थीं, नवाब साहब भी इनको बहुत प्रेम करते थे। इन्हीं की सलाह से मुरीद मोहम्मद खान को राहतगढ से बुलवा कर रियासत का दीवान बनाया गया।
प्रारंभ में उसने नरम एवं मीठी बातों से सभी का दिल जीत लिया, मगर अधिकार मिलते ही उसने जुल्म व ज्यादती शुरू कर दी। बेगम साहिबा ने वजीर मोहम्मद खान को बुला भेजा और चैनपुर बाडी की ओर रवाना किया, जहां पिण्डारों ने उत्पात मचा रखा था। वजीर मोहम्मद खान को वहां सफलता मिली। इस बीच दीवान मुरीद मोहम्मद खान ने रियासत से विद्रोह करके बेगम साहिबा को शहीद कर दिया और महल से दस लाख रूपये लेकर राहतगढ भाग गया।
दूसरी ओर मुरीद खान ने बाडी के शासक को वजीर मोहम्मद खान के कत्ल का पत्र लिखा। यह पत्र वजीर मोहम्मद खान के हाथ लग गया, इसलिए वो वहां से शीघ्र ही भोपाल के लिए रवाना हुए। इन परिस्थितियों में में नवाब साहब ने कोए खान को मदद के लिए बुलाया, यह दोनों भोपाल पहुंचे।
उधर मुरीद खान ने और साजिशें कीं, इसने बालाराव अंगलिया जो सिरोंज का सूबेदार था को इस्लामनगर और एक लाख रूपये देने के आश्वासन पर सहायता के लिये तैयार कर लिया। जब किला इस्लामनगर पर बालाराव ने हमला किया तो नवाब साहब की बहन मोती बीबी ने इस पर अधिकार नहीं होने दिया, इसलिए रायसेन का किला इसके हवाले कर दिया गया।
इसके बाद बालाराव 30 हजार की फौज और 40 तोपें लेकर भोपाल पर आक्रमण के लिए बढा। वर्तमान ऐशबाग, फरहत अफजा के मैदान पर दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ, इसमें बालाराव परास्त हुआ और बाद में वजीर मोहम्मद खान की कैद में हीरा खा कर आत्महत्या कर ली।
इस जीत की खुशी में नवाब साहब ने वजीर मोहम्मद खान को ’’वजीरूद्दोला‘‘ का खिताब दिया और रियासत का प्रशासक बना दिया। वजीर मोहम्मद खान ने रायसेन के किले पर दोबारा 1792 में अधिकार कर लिया, और होशंगाबाद के किलेदार को मिला कर उसे भी प्राप्त करने में सफल रहे।
नागपुर के राजा ने 40 हजार की सेना के साथ भोपाल पर आक्रमण कर दिया, वजीर खान ने 5 हजार की फौज के साथ संघर्ष किया और अपनी सेना को उनके घेरे से निकालने में सफल रहे। इसी युद्ध के दौरान वजीर खान अपने घोडे ’’पंखराज‘‘ पर 12 गज की लंबी खंदक को फांदने का अद्भुत कारनामा किया।
नवाब हयात मोहम्मद खान के पुत्र गौस मोहम्मद ने भयभीत होकर दौलतराव सिंधिया से मदद मांगी, परंतु सिंधिया ने हकीम असद अली को भेज कर दोनों के बीच संधि करा दी। इन समस्त परिस्थितियों से दो-चार होते हुए नवाब हयात मोहम्मद खान का 73 वर्ष का आयु में 1808 में देहान्त हुआ।
नवाब हयात मोहम्मद खान एक इबादतगुजार और नेक इंसान थे, इनके दौर में रियासत को कई बार संकटों से गुजरना पडा। इनको सरदार दोस्त मोहम्मद खान की कब्र के पास ही दफ्नाया गया। इनके बाद इनके पुत्र गौस मोहम्मद खान ने रियासत की जिम्मेदारी संभाली।