’’शकील‘‘ बदायूंनी 20 अगस्त 1916 ई. को मौलवी जमील अहमद साहब कादरी के घर बदायूं जैसे मर्दूमखेज जिले में पैदा हुए। उनके पिता भी शायर थे, और ’’सोखता‘‘ तखल्लुस फरमाते थे। ’’शकील‘‘ साहब ने प्रारंभिक उर्दू, फारसी, अरबी और अंग्रेजांे की घरेलू शिक्षा मौलवी अब्दुल गफ्फार, मौलवी अब्दुल रहमान और बाबू रामचन्द्र आदि से प्राप्त की। 1937 ई. में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और वहां से 1942 ई. में बी.ए. पास किया। 1946 ई. में ’’शकील‘‘ देहली की मुलाजिमत से इस्तीफा देकर बम्बई चले गये।
शुरू में गीतकार की हैसियत से कारदार स्टूडियो में मुलाजिम हो गये। जैसे-जैसे उनके गीतों की प्रसिद्धि बढती गई, फिल्मी दुनिया में उनकी मांग और कद्र बढती गई।
’’शकील‘‘ को साहित्य की अच्छी सूझबूझ और शेर-ओ-शायरी से प्राकृतिक लगाव था। शुरू में अपने निकटतम संबंधी जियाउल कादरी साहब से इस्लाह लेते रहे। मगर हजरत ’’जिगर‘‘ मुरादाबादी से बहुत प्रभावित थे और उनके अनुयायियों में से थे। ’’शकील‘‘ उन कुछ शायरों मे से थे जो ’’जिगर‘‘ साहब से करीबतर थे और उनकी शऊरी इस्लाह से लाभान्वित हुए।
’’शकील‘‘ ने अपने जाती तर्जुबात व मुशाहिदात से उर्दू शायरी को एक अलग राग-रंग बखशने की कामयाब कोशिश की है। उनके कलाम में हर तरफ जिन्दगी और उसका शऊर बिखरा हुआ था।
’’शकील‘‘ मुशायरों के अति प्रसिद्ध शायरों में से थे। दिलकश कलाम और जादू जगाती आवाज से सुनने वालों को बेखुद करके प्रशंसा प्राप्त करते रहते थे। गीतकार की हैसियत से फिल्मी दुनिया की अजीम तरीन शख्सियात में गिने जाते थे।
उनकी शोहरत का सूर्य उस समय उदय हुआ जब उर्दू भाषा व शायरी पर पतन के बादल मण्डरा रहे थे। ऐसे नाजुक समय में ’’शकील‘‘ ने अपनी बेहतरीन शायरी, जादू जगाते नग्मात और दिल की गहराईयों में उतर जाने वाले गीतों का जादू जगा कर न केवल उर्दू-दां वर्ग को झंझोडा बल्कि गैर उर्दू-दां वर्ग से भी उर्दू भाषा की अफादियत, मिठास और नाजुकी का लोहा मनवा लिया।
यह उनका एक ऐसा कारनामा है जो उनको जिन्दा रखेगा और रहती दुनिया तक याद किया जायेगा। केवल 54 वर्ष की आयु में यह खुशमिजाज इन्सान, प्रसिद्ध गीतकार, जाना-पहचाना नगमाकार और महबूब गजलकार-शायर 20 अप्रैल 1970 ई. को हमेशा-हमेशा के लिए सो गया।
शकील बदायूंनी की रचनाएं
रंग-ए-सनमकदा जो जरा याद आ गया,
टूटी वो बिजलियां कि खुदा याद आ गया।
हर चन्द दिल को तर्क-ए-मुहब्बत का था ख्याल,
लेकिन किसी का एहद-ए-वफा याद आ गया।
जैसे किसी ने छीन ली रंगीनी-ए-बहार,
क्या जानिए बहार में क्या क्या याद आ गया।
रहमत नजर बचा के निकलने को थी मगर,
वो इरतेआश-ए-दश्त-ए-दुआ याद आ गया।
अल्लाह रे सितम कि उन्हें मुझको देख कर,
सब कुछ मौहब्बतों के सिवा याद आ गया।
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कतआत
पुर कैफ बहारें आ न सकीं, पुरलुत्फ नजारे हो न सके,
दौर-ए-मय रंगी चल न सका, फितरत के इशारे हो न सके।
आलम भी वहीं है दिल भी वही, तकदीर को लेकिन क्या कहिये,
हम आप के थे हम आपके हैं, हां आप हमारे हो न सके।
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जो एक नजर की जुंबिश से सब दिल की बस्ती लूट गया,
वो जिससे आंखें चार हुईं और हाथ से सागर छूट गया।
दिल उस का भी है मेरी भी, है फर्क ‘शकील’ इतना लेकिन,
वो पत्थर था जो साबित है, ये शीशा था जो टूट गया।
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उनकी याद, उनकी तमन्ना, उनका गम,
कट रही है जिन्दगी आराम से।