तारीखे इस्लाम

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(16 वीं किश्त)
बद्र की लडाई
मदीना में मुसलमानों के कदम जमने की वजह से मक्का के कुरैश की तिलमिलाहट फितरी थी, मदीने के यहूदी अलग मुखालिफ हो गये थे, यह दूसरी बात है कि अभी बस एक समझौते में बंध हुए दीख पड रहे थे, मदीने के मुनाफिक गरचे अभी खुले नहीं थे और उतने उभरे भी नहीं थे, जितना बाद में उभरे, लेकिन बहरहाल वे भी घात में थे कि मौका मिले तो मुसलमानों को नुकसान पहुंचाए।
मक्का के कुरैश को मुसलमानों और नबी सल्ल. के साथ ऐसी दुश्मनी थी कि उनके वतन छोड कर 300 मील दूर चले जाने के बाद भी उनको चैन न आया, मदीने और हमलावर होने का इरादा कर लिया।
इसी बीच शाबान सन् 02 हि. (फरवरी या मार्च सन् 621 ई.) में कुरैश का एक बहुत बडा काफिला, जिस के साथ लगभग 50 हजार अशर्फी का माल था, शाम से वापस आते हुए उस इलाके के करीब आय जो मुसलमानों ने निशाने पर था। काफिले के साथ तीस-चालीस मुंहाफिजों से ज्यादा लोग न थे और इस बात का डर था कि कहंी मदीने करीब वाले इलाके में पहुंचने के बाद मुसलमान उस पर हमला न कर दें।
काफिले का सरदार अबू सुफियान था। उसने इस खतरे को महसूस करके एक शख्स को मक्के दौडाया कि वह वहां से मदद लेकर आये, चुनांचे उस शख्स ने मक्के में आ कर एक शोर मचा दिया कि काफिले को मुसलमाल लुटे ले रहे हैं। दौडो, मदद के लिए दौडो।‘
काफिले में जो माल था, उस से बहुत से लोगों का ताल्लुक था, फिर यह एक कौमी मस्अला भी बन गया। चुनांचे इस पुकार पर कुरैश के हजार जोशीले नव-जवानों की एक फौज तैयार हो गई। यह फौज इंतिहाई शान व शौकत के साथ मक्के से इस इरादे के साथ रवाना हुई कि अब मुसलमानों का खात्मा कर ही डालना चाहिए, ताकि यह रोज-रोज की झंझट ही मिट जाये।
एक तरफ माल बचाने की तमन्ना, दूसरी तरफ पुरानी दुश्मनी और तास्सुब का जोश, गरज यह कि ये लोग पूरी शान और पक्के इरादे के साथ मदीने पर चढाई के लिए रवाना हुए।
इधर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी इन हालात की इत्तिला बराबर पहुंच रही थी। आप ने यह महसूस फरमाया कि अब वह वक्त आ गया है कि अगर इस वक्त कुरैश को अपने इरादों में कामियाबी मिल गयी और उन्होंने मुसलमानों की इस नयी जमाअत को नीचा दिखा दिया, तो फिर इस्लाम और मुसलमानों के पनपने का सवाल बडा कठिन हो जाएगा और हो सकता है कि इस्लाम की आवाज हमेश के लिए दब आए।
इसलिए आंहजरत सल्ल. ने फैसला फरमाया कि इस वक्त जो ताकत भी मयस्सर है, उसे ले कर मैदान में निकले और यह फैसला हो जाए कि जीने का हक किसे है, किसे नहीं?
यह फैसला कर लेने के बाद नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुहाजिरों और अन्सार को जमा किया और पूरे हालात उनके सामने साफ-साफ रख दिए कि एक तरफ मदीने के उत्तर में तिजारती काफिला गुजर रहा है, दूसरी तरफ दक्खिन में कुरैश का लश्कर चला आ रहा है, अल्लाह का वायदा है कि इन दोनों में से कोई एक तुम्हें मिल जाएगा। बताओ तुम किस के मुकाबले पर चला चाहते हो? जवाब में बहुत से सहाबा ने यही ख्वाहिश जाहिर की कि काफिले पर हमला किया जाए, लेकिन नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सामने तो कुछ और था, इस लिए आप ने फिर अपना सवाल दोहराया। इस पर मुहाजिरों में से एक सहाबी मिक्दाद बिन अज्र रजि. ने उठ कर फरमाया-
’ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल.! जिधर आप को आप का रब हुक्म दे रहा है, उस तरफ चलिए, हम आप के साथ हैं। हम बनी इस्राईल की तरह यह कहने वाले नहीं है कि, ’जाओ तुम और तुम्हारा खुदा दोनों लडें हम यहां बैठे हैं।‘
बद्र की जंग
मगर इस मसअले में आखिरी राय कायम करने से पहले अंसार की राय मालूम करना जरूरी था, इसलिए हुजूर सल्ल. ने उन लोगों से सीधा सवाल करके अपनी बात दोहरायी। इस पर हजरत साद बिन मुआज रजि. उठे और फरमाया, ’ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल.! हम आप पर ईमान लाए हैं, आपकी तस्दीक कर चुके हैं, इस बात की गवाही दे चुके हैं कि आप जो कुछ लाए हैं, वह हक है, आप की इताअत का पक्का अहद कर चुके हैं, पस ऐ अल्लाह के रसूल! आपने जो कुछ इरादा फरमा लिया है, उसे कर गुजरिए। कसम है उस जात की, जिसने आप को हक के साथ भेजा है कि अगर आप व हम समुन्दर पर जा पहुंचे और उसमें उतर जाएं, तो हम आप का का साथ देंगे और हम में से एक भी पीछे न रहेगा, हम लडाई में जमे रहेंगे, मुकाबले में सच्ची जां-निसारी दिखाएंगे और ना-मुम्किन नहीं कि अल्लाह आप को हम से वह कुछ दिखा दे, जिसे देख कर आप की आंखें ठंडी हो जाएं। पस अल्लाह की बरकत के भरोसे पर आप हमें ले चलें।
इन तकरीरों के बाद फैसला हो गया कि काफिले के बजाए लश्कर ही में मुकाबले के लिए चलना है, लेकिन यह फैसला कोई मामूली फैसला न था। मुसलमानों की जमाअत कुरैश के मुकाबले में बहुत कमजोर थी। लडाई के काबिल लोगों की तायदाद तीन सौ से कुछ ही ज्यादा थी, जिनमें से दो-तीन के पास घोडे थे और ऊंट भी सत्तर से ज्यादा न थे। लडाई का सामान भी ना-काफी था। सिर्फ साठ आदमियों के पास जिरहें (कवच) थीं, इसी लिए मुसलमानों में थोडे से लोगों को छोडकर बाकी लोग दिलों में डर रहे थे अैर उन्हें ऐसा लग रहा था, जैसे जानते-बूझते मौत के मुंह में जा रहे हैं।
अपनी बे-सर व सामानी के बावजूद 12 रमजान सन् 02 हि. को नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के भरोसे पर लगभग 300 मुसलमानों को साथ लेकर मदीना से निकल खडे हुए और उन्होंने सीधी दक्खिन पश्चिम की राह ली, जिधर से कुरैश का लश्कर आ रहा था। 16 रमजान को बद्र के करीब पहुंचे। बद्र एक गांव का नाम है, जो मदीना मुनव्वरा से दक्खिन पश्चिम की ओर लगभग 80 मील की दूरी पर बाकेअ है। यहां पहुंचने पर पता चला कि कुरैश का लश्कर घाटी के दूसरे सिरे तक आ पहुंचा है, इसलिए आंहजरत सल्लाल्लाहु अलैहि व सल्ल्म के हुक्म की वजह से यहां ही पडाव डाल दिया गया।
उधर दुश्मनों की फौज बडी सज-धज के साथ निकली थी। एक हजार से ज्यादा सिपाही थे और लगभग सौ सरदार शरीक थे। सिपाहियों के लिए रसद का बहुत अच्छा इन्तिजाम था। उत्बा बिन रबीआ फौज का जिम्मेदार था।
जिस वक्त दोनों फौजें एक दूसरे के मुकाबले में आयीं, तो यह एक अजीब मंजर था। एक तरफ अल्लाह पर ईमान रखने वाले और उसके सिवा किसी दूसरे की बन्दगी और इताअत कुबूल न करने वाले 313 मुसलमान थे, जिन के पास लडाई का सामान तक ठीक से नहीं था और दूसरी तरफ साज व सामान से लैस एक हजार काफिरों का लश्कर था, जो इस फैसले के साथ आया था कि तौहीद की इस आवाज को हमेशा के लिए दबा कर ही दम लेगा।
इस मौके पर हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने खुदा के आगे दुआ के लिए हाथ फैला दिए और इंतिहाई आजिजी और गिडगिडाहट के साथ दुआ फरमायी कि, ऐ अल्लाह! ये कुरैश है। पूरी शान के साथ और इस इरादे के साथ आए हैं कि मेरे रसूल को झूठा साबित करें। ऐ अल्लाह! अब तेरी वह मदद आ जाए, जिस का तूने मुझ से वायदा फरमाया है। ऐ अल्लाह! अगर आज यह मुट्ठी भर जमाअत हलाक ही गयी, तो धरती पर तेरी कभी इबादत न हो सकेगी।
ईमान का यही वह दर्जा है, जिसके हासिल हो जाने के बाद अल्लाह की मदद आती है और जरूर आती है, चुनांचे बद्र के मैदान में भी अल्लाह तआला ने इन कमजोर 313 मुसलमानों की मदद फरमायी और उनके मुकाबले में एक हजार से ज्यादा के लश्कर को ऐसी हार हुई कि गोया कुरैश की सारी ताकत ही टूट गयी। इस लडाई में कुरैश के लगभग 70 आदमी मारे गये और इतने ही कैद हो गये। इन मारे जाने वालों में उन के बडे-बडे सरदार लगभग सब खत्म हो गए। उन में शैबा, उत्बा, अबू, जह्ल, जमआ, आस, उमैया वगैरह खास तौर से जिक्र के काबिल हैं। इन सरदारों की मौत ने कुरैश की कमर तोड दी।
मुसलमानों में से छः मुहाजिर और आठ अंसार ने शहादत पायी।