(17 वीं किश्त)
कैदी जो पकडे गए
लडाई में जो-जो लोग कैद हो कर आए थे, उनके साथ मुसलमानों का सुलूक और हुजूर सल्ल. का बर्ताव अपनी मिसाल आप है।
इस्लाम से पहले दुनिया में जितनी कौमें और हुकूमतें थीं, वे जंगी कैदियों के साथ बडा ही जालिमाना बर्ताव करती थीं, जिन्हें सुन कर बदन के रोंगटे खडे हो जाते हैं। सच तो यह है कि आज भी, जब कि दुनिया अपने को तहजीब वाली समझती है, जंगी कैदियों के साथ किसी इंसानियत का व्यवहार नहीं करती।
जंगी कैदियों के साथ नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जो रवैया अपनाया, वह दो तरह का था-
(क) या तो फिदया दे कर आजाद कर दिया,
(ख) या बगैर फिदया लिए ही आजाद कर दिया।
मुसलमानों की बद्र की लडाई में जो कैदी हाथ आए थे ये मक्का के लोग थे, जिन से बढकर मुसलमानों का दुश्मन और कोई न था। नबी सल्ल. ने सब से पहले इस मामले को अपने साथियों के सामने मश्विरे के लिए पेश किया। हजरत अबूबक्र सिद्दीक रजि ने राय दी कि कैदियों से जुर्माना ले कर छोड दिया जाए। इस राय के पीछे जो दलील काम कर रही थी, उसमें दुश्मन की माली ताकत कमजोर करने और अपनी ताकत बढाने की मस्लहत भी काम कर रही होगी, पर इस के पीछे असल हिक्मत व मस्लहत इंसानियत, रहमत और अच्छे अख्लाक का बर्ताव ही था। इसी का नतीजा था कि इन में से ज्यादातर बाद में मुसलमान हो कर इस्लामी सफ में शामिल हो गये।
खुलासा यह कि बद्र की लडाई के 72 कैदियों में से बहुतों को तो प्यारे नबी सल्ल. ने जुर्माना लेकर आजाद फरमा दिया।
इन कैदियों को मेहमान की तरह रखा गया था। बहुत से कैदियों के बयान मौजूद है।, जिन्होंने इकरार किया है कि मदीना वाले अपने बच्चों से बढ कर उसके आराम का ख्याल करते थे। सिर्फ दो कैदी (उक्वा बिन अबी मुअीत व नज् बिन हारिस) कत्ल कराए गए थे। यह सजा उनके पिछले जुर्मों का नतीजा थी।
जो कैदी फिदया दे कर नहीं छूटे थे और गरीब थे, लिखना-पढना भी जानते थे, वे इस शर्त पर रिहा कर दिए गए कि वे दस-दस बच्चों को लिखना-पढना सिखा दे।
बद्र की लडाई अपने असर और नतीजों के एतबार से काफी अहम थी।
यह लडाई असल में अल्लाह के उस अजाब की पहली किस्त थी, जो इस्लाम की दावत कफबूल न करने की सजा में मक्का के काफिरों के लिए मुकद्दर हो चुका था। इस लडाई ने यह जाहिर कर दिया कि इस्लाम और कफफ्र में से जीने का हक किसे है और आगे हालात का रूख क्या होगा? इस तरह अरब के दूसरे कबीलों में इस्लाम और मुसलमानों का वजन बढ गया।
बद्र की लडाई के बाद
बद्र की लडाई में अगरचे मुसलमानों को फत्ह नसीब हुई थी, लेकिन इस लडाई का मतलब यह था कि गोया मुसलमानों ने भिंडों के छत्ते में पत्थर मारे थे। बद्र की लडाई पहली लडाई थी। जिसमें कुफ्फार का मुकाबला मुसलमानों ने डटकर किया और जीत हासिल की। इस वाकिए ने सारे अरब को मुसलमानों से चैंका दिया।
बद्र की लडाई के कुछ दिनों बाद का जिक्र है कि सफवान बिन उमैया (जिस का बाप बद्र में कत्ल हुआ था) और उमैर बिन वह्ब (जिस का बेटा अब भी मुसलमानों के हाथ में था) मक्का से बाहर वीरान जगह पर जमा हुए और नबी सल्ल. के खिलाफ बातें करने लगे।
उमेर बोला, अगर मुझ पर कर्ज न होता, जिसे मैं अदा नहीं कर सकता और अगर मुझे अपने कुंबे के बे-बस रह जाने का ख्याल न होता, तौ मैं खुद मदीना जाता और मुहम्मद को कत्ल ही कर के आता।
सफवान बोला, तेरा कर्ज मैं चुका दूंगा और तेरे कुंबे का खर्च, जब तक मैं जिंदा रहूं, मेरे जिम्मे होगा।
उमैर बोला, बेहतर, यह राज किसी पर न खुले। फिर उमैर ने अपनी तलवार की धार को तेज करवाया और जहर में उसे बुझवाया और मक्के से रवाना हो गया।
उमैर मदीने में पहुंच कर मस्जिदे नबवीं के सामने अपना ऊंट बिठा रहा था कि ऊंट बोल पडा। हजरत उमर फारूक रजि. ने उसे देखा और पहचाना और दिल में समझ गये कि यह शैतान जरूर फसादी इरादे से आया है, इस लिए आगे बढ कर नबी सल्ल. से अर्ज किया कि उमैर बिन वह्व मुसल्लह चला आ रहा है। नबी सल्ल. ने फरमाया, उसे मेरे पास आने दो।
हजरत उमर फारूक रजि. ने उस की तलवार की मुठिया पर कब्जा कर लिया। उस की गरदन पकड कर नबी सल्ल. के सामने ले गये। नबी सल्ल. ने यह देखा, तो फरमाया, उमर! इसे छोड दो। उमैर! तुम मेरे पास आ जाओ। उमैर ने आगे बढकर सलाम किया। नबी सल्ल. ने पूछा, कहो, किस तरह आए? कहा, अपने बेटे की खबर लेने आया हूं। नबी सल्ल. ने पूछा, यह तलवार कैसी है?
उमैर बोला, यह क्या तलवार है? और हमारी तलवारों ने आप का पहले भी क्या कर लिया है।
नबी सल्ल. ने फरमाया, तुम सच-सच बताओ।
उमैर ने फिर उसी जवाब को दोहरा दिया।
नबी सल्ल. ने फरमाया, देख तू और सफवान मक्का से बाहर वीरान पहाड में गये थे। सफवान ने तेरा कर्ज और तेरे कुंबे का खर्च अपने ऊपर ले लिया है और तू ने मेरे कत्ल का वायदा किया और इसी इरादे से तू यहां आया है। उमैर! तू यह क्यों न समझा कि मेरा हिफाजत करने वाला खुदा है।
उमैर यह सुन कर हैरान रह गया और बोला, अब मेरा दिल मान गया कि आप जरूर अल्लाह के नबी और रसूल हैं। खुदा का शुक्र है कि यही चीज मेरे इस्लाम का बहाना बन रही है।
नबी सल्ल. ने सहाबा रजि. से फरमाया अपने भाई को दीन सिखाओ, कुरआन याद कराओ और उसके बेटे को आजाद कर दो। उमैर रजि. ने अर्ज किया, ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल.! मुझे इजाजत दीजिये कि मैं मक्का ही वापस जाऊं और लोगों को इस्लाम की दावत दूं। मेरे दिल में आता है कि अब मैं बुतपरस्तों को उसी तरह सताया करूं जिस तरह पहले मैं मुसलमानों को सताता रहा हूं।
उमैर के मदीना जाने के बाद सफवान का यह हाल था कि कुरैश के सरदारों से कहा करता था, देखो कुछ दिनों में क्या गुल खिलने वाला है कि तुम बद्र का सद्मा भूल जाओगे। जब सफवान को खबर लगी कि उमैर मुसलमान हो गया, तो उसे बडा सद्मा हुआ और उसने कसम खायी कि जब तक जिन्दा रहंू, उमैर से बात न करूंगा, न उसे कोई फायदा पहुंचने दूंगा।
उमैर मक्का में आया, वह इस्लाम की मुनादी किया करता था और अक्सर लोग उसके हाथ पर इस्लाम कुबूल कर रहे थे।
बद्र में हारने के बाद अबू सुफियान ने नहाने-धोने से कसम खा ली थी, जब तक मुसलमानों से बदला न लिया जाए, चुनांचे वह दो सौ सवारों को लेकर मक्का से निकला। जब मदीने के करीब पहुंचा तो साथियों की बाहर छोडकर खुद रात की तारीकी में मदीने के अन्दर आया। सलाम जिन मुश्कम यहूदी से मिला, रात भर शराब की बोतलें चलती रहीं, शायद दोनों के मश्विरे से यह तै हुआ कि मुकाबले का वक्त नहीं, इसलिए अबू सुफियान रात के आखिर में वहां निकला। मुसलमानों के फलदार पेडों, खजूरों को आग लगा कर और एक मुसलमान और उसके साथी को कत्ल करके मक्के को वापस चला गया।
खबर मिलने पर करकरतुल बद्र तक पीछा किया, इसीलिए उसका नाम गजबतुल बद्र कहा जाता है।
अबू सुफियान की टुकडी सत्तू की थैलियां गिराती गयी थीं, जिसे मुसलमानों ने उठा लिया था, इसलिए उस का नाम सत्तू वाली लडाई भी हुआ।