(18 वीं किश्त)
उहूद की लडाई
मक्के के मुश्रिकों के दिलों में एक तो यों ही मुसलमानों से बदला लेने की आग भडक रही थी, चुनांचे उनके कितने ही बडे-बडे सरदारों ने बदला लेने की कस्में खा रखी थीं। हर कबीला जोश और गुस्से से भरा हुआ था। कि इन हालात में यहूद की तरफ से मक्के वालों को उभारने की कोशिशों ने आग पर तेल डालने का काम किया और अभी बद्र की लडाई को मुश्किल से साल भर ही गुजरा था कि ये खबरें मदीना पहुंचने लगीं कि मक्के के मुश्रिक एक बहुत जबरदस्त लश्कर लेकर मदीने पर हमले के लिए बिल्कुल तैयार हो चुके थे।
पैगम्बरे इस्लाम सल्ल. ने शव्वाल सन 03 हि. के पहले हफ्ते में दो आदमियों को सही खबर लाने के लिए रवाना किया। उन्होंने आकर इत्तिला दी कि कुरैश का लश्कर तो मदीने के करीब ही आ गया है और मदीने की एक चारागाह उनके घोडों ने साफ भी कर डाली है।
अब नबी सल्ल. और अंसार ने शहर में रह कर मुकाबला करने की तज्वीज रखी, लेकिन बद्र में शरीक न हो पाने वाले, नव-जवानों ने जोश व खरोश से इस राय पर जोर दिया कि बाहर निकल कर मुकाबला किया जाए।
हुजूर सल्ल. ने दोनों तज्वीजें सुनीं, घर तश्रीफ ले गये और जिरह (कवच) पहनकर वापस तश्रीफ लाए, गोया दूसरी तज्वीज को आपने कुबूल फरमा लिया।
कुरैश ने मदीना के करीब पहुंच कर उहूद की पहाडी पर अपना पडाव डाला।
उहद की जंग
आंहजरत सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम उसके एक दिन बाद जुमा की नमाज पढकर एक हजार सहाबियों के साथ शहर से रवाना हुए। उन में अब्दुल्लाह बिन उवई भी था, जो अगरचे ऊपरी दिल से मुसलमान हो चुका था, लेकिन असल में वह मुसलमानों का दुश्मन था और आखिर वक्त तक मुनाफिक ही रहा। यह भी मुसलमानों के साथ मिले हुए थे। कुछ दूर जाकर अब्दुल्लाह बिन उबई अपने साथ तीन सौ लोगों को तोड कर अलग हो गया और अब सिर्फ 700 सहाबी बाकी रह गये।
ऐसे मौके पर उसकी यह हरकत एक जबरदस्त साजिश थी, मुसलमानों को हार का मुंह दिखाने की, लेकिन जिन मुसलमानों के दिल अल्लाह पर ईमान, आखिरत के यकीन और हक की राह में शहीद होने के शौक से भरे हुए थे, उन पर इस वाकिए का कोई नागवार असर नहीं पडा और अब ये बचे हुए मुसलमान ही अल्लाह के भरोसे पर आगे बढे।
इस मौके पर आंहजरत सल्लाल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने साथियों का जायजा लिया और जो कम-उम्र थे, उनको वापस फरमा दिया। इन नौजवानों में राफेअ और समुरा रजि. दो नव-उम्र लडके भी थे। इन नव-उम्रों को जब फौज से अलग किया जाने लगा, तो राफेअ अपने पंजों के बल खडे हो गये, ताकि कद में कुछ ऊंचे दिखायी देने लगें और ले लिए जाएं। उन की यह तर्कीब चल गयी, लेकिन समुरा को शिर्कत की इजाजत न मिली, तो इस पर उन्होंने कहा कि जब राफेअ ले लिए गये हैं, तो मुझे भी इजाजत मिलनी चाहिये। मैं तो उन को कुश्ती में पछाड देता हूं। चुनांचे उनके दावे के सबूत के लिए दोनों में कुश्ती हुई और जब उन्होंने राफेअ को पछाड दिया, तो वे भी फौज में ले लिए गये। यह एक छोटा सा वाकिआ है, लेकिन इस से अन्दाजा होता है कि मुसलमानों में अल्लाह की राह में जिहाद करने का किस कदर जज्बा मौजूद था।
ृ उहद का पहाड मदीने से लगभग 4 मील के फासले पर है। आंहजरत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपनी फौज को इस तरह लगाया कि पहाड पीछे था और कुरैश की फौज सामने। पीछे की तरफ सिर्फ एक दर्रा था, जिस से पीछे की तरफ से हमला होने का डर था, वहां आप ने अब्दुल्लाह बिन जफबैर को पचास तीरंदाज देकर मुकर्रर फरमा दिया कि किसी को इस दर्रे के रास्ते से आने न देना और तुम यहां से किसी हाल में न हटना। अगर तुम देखो कि परिंदे हमारी बोटियां नीचे लिए जाते हैं। तब भी तुम अपनी जगह न छोडना।
कुरैश इस मौके पर बडे साज व सामान से आए थे, लगभग पांच हजार बहादुरों की फौज के साथ लडाई का काफी सामान मौजूद था। इस फौज में लगभग तीन हजार ऊंट सवार और दो सौ घुडसवार और सात सौ जिरह पोश पैदल सवार भी थे।
अरबों की जिस लडाई में औरतें शामिल होती थीं। उसमें वे जान पर खेल कर लडते थे। उन्हें यह ख्याल होता था कि अगर लडाई में हार हो गयी तो समझो, औरतों की निगाह में बे-इज्जती हो गयी इस लडाई के मौके पर बहुत सी औरतें भी फौज की साथ थीं। इनमें बहुत सी तो वे थीं, जिनके बेटे और करीबी रिश्तेदार बद्र की लडाई में मारे गये थे और उन्होंने मन्नतें मानी थीं कि वे उनके कातिलों का खून पीकर दम लेंगीं।
लडाई की शुरूआत
चुनांचे लडाई शुरू होते ही चैदह कुरैशी औरतों की एक टोली ने हिंदा की सरदारी में दफ बजा कर जंगी राग अलापना शुरू किया। वे गा रही थीं-
हम आसमानी सितारों की बेटियां हैं, और हम कालीनों पर चलती हैं। अगर तुम कदम आगे बढाओगे , तो हम तुम्हें गले लगाएंगी और पीछे हटोगे, तो तुम से अलग हो जाएंगी।
दफ पर जोश और शर्म दिलाने वाले शेरों से कुरैशी फौज में मुसलमानों से बदला लेने का जज्बा और तेज हो गया और लडाई शुरू हो गई।
लडाई जोरों पर चली, मुसलमानों का पल्ला भारी रहा, कुरैश की फौज के बहुत- से लोग मारे गये और उनके बहुत से आदमी मारे गए। उनकी फौज में भगदड मच गयी। मुसलमान यह समझे कि उन्होंने मैदान मार लिया। चुनांचे उन्होंने इस शुरू की जीत को आखिरी हद तक पहुंचाने के बदले गनीमत का माल लूटना शुरू किया। इधर के जो लोग दर्रे की हिफाजत पर लगाये गए थे उन्होंने जब देखा कि मुसलमान माल लूटने में लगे हुए हैं और दुश्मन के पैर उखड गए हैं, तो वे समझे कि लडाई का खात्मा हो चुका है और वे भी गनीमत का माल लूटने के लिए लपके। उनके सरदार हजरत अब्दुल्लाह बिन जफबैर ने उन्हें रोका और आंहजरत सल्लाल्लाहु अलैहि व सल्लम का हुक्म याद दिलाया, मगर सिवाए कुछ आदमियों के और कोई न रूका।
खालिद बिन वलीद ने, जो उस वक्त काफिरों की फौज की एक टुकडी को कमांड कर रहे थे, इस मौके से फायदा उठाया और पहाडी का चक्कर काटकर पीछे से मुसलमानों पर हमला कर दिया हजरत अब्दुल्लाह बिन जफबैर और उन के कुछ साथी, जो दर्रे की हिफाजत के लिए बाकी रह गए थे, उन्होंने मुकाबला भी किया, लेकिन वे काफिरों के हल्ले को रोक न सके और शहीद हो गये।
दुश्मन यकायक पीछे से मुसलमानों पर टूट पडे। इधर जो भागते हुए लोगों ने यह रंग देखा, तो वे भी पलट पडे और अब दोनों तरफ से मुसलमानों पर हमला हो गया।
इस अचानक काया पलट से मुसलमान बौखला गये। उनमें भगदड मच गयी, इंतिहा यह कि घबराहट में मुसलमानों के हाथों मुसलमान शहीद हो गये, मौका गनीमत देख, दुश्मनों ने हुजूर सल्ल. पर हल्ला बोल दिया। आप यह हालत देख दौडते हुए मुसलमानों को पुकार रहे थे,
अल्लाह के बन्दो! इधर मेरी तरफ आओ, अल्लाह के बन्दो! इधर मेरी तरफ आओ!
मगर लोग बद-हवासी में सुन नहीं रहे थे। एक वक्त ऐसा भी आया कि सिर्फ 12 सहाबी आपके पास रह गये।
मौका पाकर अब्दुल्लाह बिन कुमैया ने मुबारक चेहरे पर तलवार मारी, जिस से खोद की कडियां टूट कर जबडे में घुस गयीं। इब्ने हिशाम ने ऐसा पत्थर मारा कि बाजू घायल हो गया, उत्बा के पत्थर से रसूलुल्लाह के चार दांत टूट गए। एक बार दुश्मन के हल्ले से आप गढे में गिर गए और कुछ चोटें भी आयीं। लेकिन मुट्ठी भर साथियों ने इस तरह आप की हिफाजत की कि ऐसी मिसालें तारीख में भी नहीं मिलतीं। हजरत मुसअब बिन उमैर, जो आप सल्ल. से शक्ल में मिलते जुलते थे, शहीद कर दिये गये और उनके शहीद होते ही खबर उडा दी गयी कि हुजूर सल्ल. शहीद कर दिए गये।
इससे मुसलमानों में और ज्यादा परेशानी फैल गयी। इस का असर मुसलमानों में दो किस्म का हुआ-
एक तरफ हजरत उमर रजि. ने तलवार फेंक कर कहा कि अब लड कर क्या लेना, जबकि रसूलुल्लाह सल्ल. भी शहीद हो गए। उन पर हुजूर सल्ल. की मुहबबत इतनी गालिब थी कि उनकी निगाह में इस सब से कीमती मताअ को खो देने के बाद बडी से बडी जीत भी जीत न थी।