रघुपति सहाय, फिराक गोरखपुरी

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रघुपति सहाय ’’फिराक‘‘ का जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में हुआ! फिराक के पिता मुंशी गोरख प्रशाद ’इबरत‘ अपने समय के उर्दू के मशहूर शायर थे।
फिराक ने 1913 में गर्वमेंट जुबली हाई स्कूल गोरखपुर से शिक्षा प्राप्त की, इलाहाबाद से उन्होंने बी.ए. किया, पहले पी. सी. एस. और बाद में 1919 में आई.सी.एस. के लिए चुने गये लेकिन कुछ कारणों से सिविल सर्विस में शामिल नहीं हुए। इसी जमाने में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण जेल भी गये। बाद में आल इंडिया कांग्रेस कमेटी में उप सचिव के पद पर काम करते रहे, आगरा से अंग्रेजी साहित्य में प्रथम क्लास में एम.ए. पास किया और 1930 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए, 1958 में यहां से ही अवकाश प्राप्त किया।
’’फिराक‘‘ ने 1918 से शायरी शुरू की, अब तक उनके कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जिनमें लगभग बीस हजार शेर शामिल हैं, फिराक ने लगभग सात सौ गजलें एक हजारा रूबाईयां, और पिछत्तर से अधिक नज्में कही हैं उनके काव्य संग्रह ’’गुले नग्मा‘‘ पर साहित्य एकादमी पुरस्कार भी मिल चुका है।
आधुनिक काल के उर्दू शायरों में फिराक का स्थान काफी ऊंचा माना जाता है।
फिराक की दो गजलें
करीब चांद के मंडला रही है इक चिडिया
भंवर में नूर के करवट से जैसे नाव चले
कि जैसे सीनये-शाइर में कोई ख्वाब पले
वो ख्वाब साँचे में जिसके नयी हयात ढले
वो ख्वाब जिससे पुराना निजामे-गम बदले
कहां से आती है मदमालती लता की लपट
कि जैसे सैकडों परियां गुलाबियां छिडकायें
कि जैसे सैकडों वन देवियांे ने झूले पर
अदा-ए-खास से इक साथ बाल खोल दिये
लगे हैं कान सितारों के जिसकी आहट पर
इस इन्कलाब की कोई खबर नहीं आती
दिले-नुजूम धडकते हैं कान बजते हैं।
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मुझको मारा है हर इक दर्दो-दवा से पहले
दी सजा इश्क ने हर जुर्मो-खता से पहले।
आतिशे-इश्क भडकती है हवा से पहले
होंठ जलते है मुहब्बत में, दुआ से पहले।
अब कमी क्या है तिरे बे-सरो-सामानों को
कुछ न था तिरी कसम, तर्को-फना से पहले।
इश्के-बेबाक को दावे थे बहुत खलवत में
खो दिया सारा भरम, शर्मों-हया से पहले।
मौत के नाम से डरते थे हम, ऐ शौके-हयात
तूने तो मार ही डाला था कजा से पहले।
हम उन्हें पा के ’’फिराक‘‘ और भी कुछ खोये गये
ये तकल्लुफ तो न थे, अहदे-वफा से पहले।
0 रईसा मलिक