तारीखे इस्लाम

0
181

(तेईसवीं किश्त)
बनू कुरैजा का अंजाम
हुजूर सल्ल. का बदला हुआ रूख देख कर वे सब के सब किला बंद हो गये और लडाई की पूरी तैयारी कर ली।
उस वक्त मुसलमानों को यह मालूम हुआ कि बनू नजीर का सरदार हुई बिन अख्तब, जो बनू कुरैजा को मुसलमानों के खिलाफ उभरने पर आया था, अब तक उन के किले के अन्दर बन्द है।
बनू कुरैजा की यह गद्दारी उनकी कोई पहली हरकत न थी, बल्कि बद्र की लडाई में उन्होनंे कुरैश की (जो मुसलमान पर हमलावर हुए थे) हथियारों से मदद की थी, मगर उस वक्त रहमदिल नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन का यह कुसूर माफ कर दिया था।
अब उनके किला बन्द हो जाने से मुसलमानों को मजबूर होकर लडना पडा। जिलहिज्जा के महीने में घेर लिया गया, वो 25 दिन तक चला। घेरे की सख्ती से बनू कुरैजा तंग आ गए। जो 25 दिन तक चला। घेरे की सख्ती से बनू कुरैजा तंग आ गए। उन्होंने कबीले के मुसलमानों को, जिन से उनके ताल्लुकात थे, बीच में डाला और नबी सल्ल. से मनवा लिया कि बनू कुरैजा के मामले में साद बिन मुआज को (जो औस कबीले के सरदार थे) हकम (सरपंच और मुंसिफ) मान लिया जाए। जो फैसला साद कर दें, खुदा के नबी (सल्ल.) उसी को मंजूर कर लें।
बनू कुरैजा किला से निकल आए और मुकदमा साद बिन मुआज के सुपुर्द किया गया। खुदा जाने बनू कुरैजा के यहूदियों और औस के मुसलमानों ने साद बिन मुआज को हकम बनाते हुए क्या-क्या उम्मीदें उन से लगायी होंगी, मगर जरूरी तहकीक और जानकारी हासिल करने के बाद उन्होंने यह फैसला दिया कि-
1. बनी कुरैजा के लडने वाले मर्द कत्ल किए जाएं,
2. औरतें और बच्चे मम्लूक बनाए जाएं, और
3. माल बांट लिया जाए।
इस फैसले के बारे में यह बात भी जेहन में रहनी चाहिये कि यहूदियों के अपने चुने हुये मुंसिफ ने लगभग वही सजा दी थी जो यहूदी अपने दुश्मनों को दिया करते थे और जो उनकी शरीअत में है, बल्कि उनकी शरीअत में ज्यादा सख्त सजा दी हुई है।
हुदैबिया का समझौता
काबा इस्लाम का असल मर्कज था, उसे हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम और उनके बेटे हजरत इस्माईल अलै. ने अल्लाह के हुक्म से तामीर किया था। मुसलमानों को इस्लाम के इस मर्कज से निकले हुए अब छैः साल हो चुके थे, फिर इस्लाम के अहम् अर्कान में हज भी अहम् रूक्न था। इसलिए अब मुसलमानों की पूरी ख्वाहिश थी कि वे खाना-ए-काबा का हज करें।
यों तो अरब वाले साल भर लडते रहते थे, फिर भी हज के मौके पर चार महीनों में वे इसलिए लडाई बन्द कर देते थे कि लोगों को काबे तक जाने और वापस आने के लिए अम्न मयस्सर आ जाए और इस तरह वे इत्मीनान के साथ काबे की जियारत कर सकें।
सन् 07 हि. में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक ख्वाब मुसलमानों को सुनाया। फरमाया मैंने देखा, गोया मैं और मुसलमान मक्का पहुंच गये हैं, और बैतुल्लाह का तवाफ कर रहे हैं।
इस ख्वाब के सुनने से मुहाजिर मुसलमानों को खास तौर से, और तमाम मुसलमानों को आम तौर से, उस शौक ने, जो बैतुल्लाह के तवाफ का उनके दिल में था, बेचैन कर दिया और उन्होंने उसी साल नबी सल्ल. को मक्का के सफर के लिए तैयार कर लिया। मदीना से मुसलमानों ने लडाई का सामान साथ नहीं लिया, बल्कि कुर्बानी के ऊंट साथ लिए और सफर भी जीकादा के महीने में किया, जिस में अरब पुराने रिवाज के मुताबिक लडाई हरगिज न किया करते थे और जिस में हर एक दुश्मन को भी बे-रोक-टोक मक्का में आने की इजाजत हुआ करती थी। 1400 मुसलमान साथ चलने को तैयार हो गए। जुल हुलैफा पहुंच कर कुर्बानी की इब्तिदाई रस्में अदा की गयीं। इस तरह इस बात का ऐलान हो गया कि मुसलमानों का इरादा सिर्फ खाना-ए-काबा की जियारत का है, लडाई या हमले का कोई इम्कान नहीं। फिर भी आंहजरत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक साहब को मक्का भेजा कि वह जाकर कुरैश के इरादों की खबर लाएं, वे खबर लाये कि कुरैश ने तमाम कबीलों को इकट्ठा करके कह दिया है कि मुहम्मद (सल्ल.) मक्का में नहीं आ सकते और यह कि वे सब मुकाबले के लिए तैयार हैं उन लोगों ने मक्के से बाहर एक जगह पर अपनी फौजें जमा करना शुरू कर दीं और मुकाबले के लिए बिल्कुल तैयार हो गये।
आंहजरत सल्ल. इस इत्तिला के बावजूद आगे बढते रहे और हुदैबिया नामी जगह पर पहुंच कर कियाम किया। मक्का से एक मंजिल के फासले पर हुदैबिया नाम का एक कुआं है और यही नाम इस गांव का भी पड गया है। यहां कबीला खुजाआ के सरदार आंहजरत सल्ल. की खिदमत में हाजिर हुए और बताया कि कुरैश ने लडाई की तैयारी कर ली है और वे आप को मक्का में न जाने देंगे।
आपने फरमाया कि उनसे जा कर कह दो कि हम तो सिर्फ उमरा के ख्याल से आए हैं, लडाई करना मक्सद नहीं है। हमें खाना-ए-काबा के तवाफ और जियारत का मौका देना चाहिए।
जब यह पैगाम कुरैश के पास पहुंचा, तो कुछ दुष्ट लोगों ने तो कहा कि, ’’हमें मुहम्मद का पैगाम सुनने की जरूरत ही नहीं है, लेकिन संजीदा लोगों में से एक शख्स उर्वः ने कहा कि , ’नहीं, तुम मेरे ऊपर भरोसा करो और मैं जाकर मुहम्मद (सल्ल.) से बात करता हूं।‘
चुनांचे उर्वः आंहजरत सल्ल. की खिदमत में हाजिर हुआ, लेकिन कोई मामला तैय न हो सका।
इस बीच कुरैश ने एक दस्ता मुसलमानों पर हमला करने के लिए भी भेज दिया। ये लोग गिरफ्तार कर लिये गये।
अब यह तैय पाया कि समझौते के लिए हजरत उस्मान रजियल्लाहु अन्हु को मक्का भेजा जाए। हजरत उस्मान मक्का तशरीफ ले गये, लेकिन कुरैश किसी तरह राजी न हुए कि मुसलमानों को काबे की जियारत का मौका दिया जाये, बल्कि उन्होंने हजरत उस्मान रजि. को भी रोक लिया।
यहां मुसलमानों में किसी तरह यह खबर उड गयी कि हजरत उस्मान रजि. शहीद कर दिये गये।
इस खबर ने मुसलमानों को बे-चैन कर दिया। आंहजरत सल्ल. ने इस खबर को सुन कर फरमाया कि अब तो उस्मान रजि. के खून का बदला लेना जरूरी है। यह कह कर आप एक बबूल के पेड के नीचे बैठ गये और यहां आपने सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम अज्मअीन से बैअत ली। कुरआन मजीद में भी इसका जिक्र है-
’’अल्लाह राजी हुआ उन मोमिनों से, जबकि वह पेड के नीचे तुम्हारे (हाथ पर) बैअत कर रहे थे।‘‘
बैअत इस बात पर थी कि अगर लडना भी पडा तो हम मर जाएंगे लेकिन लडाई से मुंह न मोडेंगे और कुरैश से हजरत उस्मान रजि. का बदला लेंगे। (क्रमशः)