जोश मलीहाबादी

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शब्बीर हसन खां नाम, ’जोश‘ तखल्लुस, 5 दिसम्बर, 1898 ई. की मलीहाबाद में पैदा हुए। अरबी, फारसी की तालीम हासिल करने के बाद वह सीतापुर स्कूल, हुसैनाबाद हाई स्कूल, लखनऊ में दाखिल हुए। 1934 में अलीगढ, एम.ए.ओ.काॅलेज गए। 1941 में उन्होंने आगरे के सैंट पीटर्स काॅलेज से सीनियर केम्ब्रिज किया और 19118 में 6 महीने शान्ति निकेतन में गुजारे। 1925 में हैदराबाद राज्य में दारूल-तरजुमा के नाजिम-ए-अदबी की हैसियत से काम किया। निजाम हैदराबाद के खिलाफ नज्म लिखने पर वह रियासत से निकाले गए। उसके बाद उन्होंने रिसाला ’’कलीम‘‘ जारी किया और और खुलकर आजादी की तहरीक की हिमायत की। 1930 में ’’शायर-ए-इंकलाब‘‘ कहे जाने लगे। आजादी की लडाई में शामिल हुए और उस जमाने के सभी नेताओं से, खासतौर पर जवाहरलाल नेहरू जी से बहुत करीब हो गए।
कुछ दिन डायरेक्टर डब्ल्यू. जेड. अहमद के कहने पर शालीमार पिक्चर्स के लिए गाने लिखे और पूना में रहे। आजादी के बाद हुकूमत-ए-हिन्द की उर्दू पत्रिका ’’आजकल‘‘ के सम्पादक नियुक्त हुए और बाद में उन्हें पद्मभूषण का खिताब मिला।,
’’जोश‘‘ ने उम्र का आखिरी हिस्सा पाकिस्तान में गुजारा, जहां की उर्दू लुगत (शब्दकोश) के मुशीर-ए-आला हो गए थे। 1982 में इस्लामाबाद में उनका इन्तकाल हुआ।
’’जोश‘‘ के अहम् काव्य-संग्रह है- शोला-ओ-शबनम, जनून ओ हिकमत, फिक्र-ओ-निशात, सुंबुल-ओ-सलासिल, हर्फ-ओ- हिकायात और सरोद-ओ-खरोश। उनकी आपबीती भी ’’यादों की बारात‘‘ के नाम से प्रकाशित हो चुकी है।
’’जोश‘‘ की शायरी इंकलाबी जोश से भरी हुई है। उन्होंने आजादी के लिए नया हौसला दिया। उसी के साथ-साथ उनकी शायरी फितरत की दिलकशी और रंगीनी की भी जीती जागती तस्वीर है। उनकी नजमों में हुस्न-ओ-मुहब्बत की चाश्नी भी है और मस्ती और बांकपन भी। उनकी रूबाईयों में निराला रंग है। सोच भी नई है। और बात कहने का अन्दाज भी अनोखा है। शब्दों पर उन्हें जो कुदरत है उसकी मिसाल बहुत कम है।
जोश मलीहाबादी की रचनाएं
दर्द-ए-मुश्तरक
सुनते हैं तूफान में डूबा हुआ था इक दरख्त
जिसकी चोटी पर डरे बैठे थे दो आशुफता बख्त
एक उन में सांप था और एक सहमा नौजवाॅ
दो जिदों का एक भीगी शाख पर था आशियां
इश्क में जिसे बदल जाते हैं आईन-ए-इनाद
सच है दर्द-ए-मुश्तरक में हैं वो रूह-ए-इत्तेहाद
लेकिन ऐ आकिल मुसलमानों, मुदब्बिर हिन्दुओं
हिन्द के सैलाब में इक शाख पर तुम भी तो हो
कतआत
गुन्चे तेरी जिन्दगी पर दिल हिलता है
सिर्फ एक तबस्सुम के लिए खिलता है।
गुन्चे ने कहा कि इस चमन में बाबा
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है।।
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बरसात है दिल को डस रहा है पानी
फुर्कत में तेरी झुलस रहा है पानी।
दिल में कभी चुभता है कलेजे में कभी
आडा तिरछा बरस रहा है पानी।।
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आई है घटा मस्त बनाएगी हमें
अफलाक पै झूले से झुलाएगी हमें।
साकी न रूके हाथ कि दम भर में ये रूत
ढूंढेगी बहुत मगर न पाएगी हमें।।