बुधवार की शाम तक आसमान खुला रहा था, जनवरी का आखरी महीना था मैं भी जिला मुख्यालय पर गणतंत्र दिवस के कार्यक्रमों को सम्पन्न करके देहाती इलाकों में दौरे पर निकल गया था।
मकर संक्रांति के बाद वातावरण में ठंडक भी कम होने लगी थी, एक दो दिन बाद बसन्त पंचमी थी, सभी लोगों का अनुमान था कि बसंत पंचमी के बाद ठंड काफी कम हो जायेगी और मौसम सुहावना हो जायेगा।
इस साल फसलें भी काफी अच्छी आई थीं, खेतों में गेंहूँ के पौधे चार पांच फीट ऊंचे तक बढ़ गये थे और उनमें बालें निकलने लगी थीं, चने की घेटियां (फल) में पड़े दाने पुष्टï होने लगे थे, चारों तरफ ‘होलेÓ की पार्टियां चल रही थीं मसूर तेबड़ा तो लगभग तैयार हो गया था बस किसान को जरा गर्मी में तेजी आने का इन्त$जार था कि मसूर तेबड़ा की फलियां सूखे और वे उसे काटना शुरू कर दें। दो चार पैसे हाथ में लगे, मेरे जिले में मसूर तेवड़ा ‘केशक्रापÓ मानी जाती थी। दिशावरी मांग के कारण उसकी अच्छी कीमत किसानों को मिल जाती थी।
अरहर, सरसों के पीले फूलों से तो सारा ग्रामीण अंचल मुस्कराने लगा था, इनकी भीनी-भीनी सुगंध के बीच से जब ग्रामीण बालायें निकलती तो अच्छी फसल का अन्दाज़ा लगाते ही उनके चेहरों पर मादकता भरी मुस्कानें खेलने लगतीं।
गांवों में भी प्रसन्नता छाई हुई थी। शाम को व्यालू के बाद अथाई चौपालों पर मजीरों की खन-खन और ढोलक की थापों के बीच लोक गीतों के स्वर गूंज उठते। सभी लोगों को अनुमान था कि इस साल इतनी अच्छी फसल आयेगी कि लोगों को अनाज रखने की जगह नहीं मिलेगी। बाजार में भाव भी अच्छे चल रहे थे। किसानों ने भविष्य के कई रंगीन सपने संजो लिये थे, किसी ने नया मकान बनवाने की सोची थी किसी ने बहू बेटियों के लिये नए गहने बनवाने का हिसाब किताब जमाना शुरू कर दिया था।
मैंने अपने दौरे के दौरान एक किसान से यों ही विनोद में जब पूछाा कि वह इस साल अपनी फसल की बिक्री में से कौन सा नया काम करेगा तो उसने बड़े भोले ढंग से उत्तर दिया था कि हुजूर! मैं तो चाहता हूँ कि इस बार फसल से जो ज्यादा पैसे मिलें, उससे एकाध डीजल सिंचाई पम्प ले लूं- पर महरिया (पत्नी) कहती है कि वह लोहा नहीं चांदी खरीदेगी- वह करधौनी बनवाने की जिद किए हुए हैं। हम लोगों का रोज खेत से लौटने के बाद इसी बात पर झगड़ा होता है मैं कहता हूँ डीजल पम्प और वह कहती है करधनी।
मुझे उसकी भोली बातों में आनन्द आने लगा। प्रशासनिक तनावों और चिन्ताओं के बीच ग्रामीण के ये सहज वार्तालाप अनायास ही मेरे थके मन को एक राहत सी देते हंै और उनकी निश्छलता तथा सहजता मन में अजब सी स्फूर्ति भर देती है। कितना बड़ा और भोला हृदय होता है हमारे देश के किसान का। कितना छल कपट हीन, आकाश सा विस्तृत और धरती सा सहनशील।
इनसे खुले मन से बात करने में जो आनन्द है वह शहर के क्लबों की औपचारिक चर्चाओं और ‘जोकोÓ में कहां, जहां हर दम हर क्षण एक दूसरे के स्टेट्ïस और पोजीशन का दब-दबा एक आतंक के समान बना रहता है, हर बात के कहने के पहले हमें इस बात की चिन्ता बनी रहती है कि इससे सामने वाला बुरा भी नहीं मान जाएगा। कहीं दूसरे अर्थ में इसे न ले ले।
शहरों में आपसी झगड़े या वैमनस्य इन्हीं चर्चाओं में उठी छोटी-छोटी बातों से आरंभ होते हैं। सहन शक्ति की इतनी कमी आ गई है हमारे आधुनिक तथा कथित समाज में कि वह किसी बात को एक ठहाके में उड़ा नहीं सकता। $जरा-$जरा सी बात उसे चुभने लगती है और उसी के तनावों से भरा रहता है।
आदमी-आदमी के सम्बन्धों में हर वक्त अपनी पोजीशन-स्थिति का ध्यान बनाए रखना, अपने को दूसरे से सदा बड़ा और होशियार समझाना हमारे इसी इन्सानियत के रिश्ते से ही हमें दूसरे इन्सानों से मिलना चाहिए। पर गांवों में आज भी अगर आप जरा सा भी सहज होकर उनसे मिले तो वे अपना सारा दिल आपके सामने खोलकर रख देते हैं।
मुझे उस किसान से बातचीत करता देख आस-पास के और किसान भी वहां इक_ïे हो गए। उन्हें उत्सुकता थी कि राह चलते कलेक्टर साहब अपनी जीप रोक कर इससे क्या बात कर रहे हैं।
‘राम राम हुजूरÓ, ‘जय राम जी हुजूरÓ, ‘जुहार मालिकÓ आदि परम्परागत सम्बोधनों से वे अभिवादन करने लगे।
मैं मुस्कराता हुआ जीप से नीचे उतरा और बोनट का सहारा लेकर खड़ा हो गया, भोले भाले किसान मुझे चारों तरफ से घेरे खड़े थे।
‘इस साल तो अच्छी फसल आई है चौधरी!Ó मैंने उस समूह में सब से प्रौढ़ दिखने वाले किसान को सम्बोधित करते हुए कहा।
‘हाँ माई-बापÓ सब भगवान की कृपा और आप सब का आर्शीवाद है। उसने कंधे पर डली तौलिया को अपने सिर पर डालते हुए कहा। यह गांवों की अपने से बड़ों को सम्मान देने की पद्घति है कि उनसे नंगे सिर बात नहीं की जाती, जो लोग सिर पर साफा नहीं बांधे रहते या टोपी नहीं लगाये रहते हैं वे जब अपने से बड़ों से बातचीत करते हैं तो सिर को कोई कपड़ा रख लेते हैं।
‘चौधरी अकेली भगवान की कृपा नहीं- आप सब लोगों की लह-लहाती फसलों को देखकर उत्साह से भरे थे।
मैंने प्रसंग आगे बढ़ाते हुए कहा- चौधरी तुम्हारा यह किसान ही कहता है कि इस बार वह फसल से डीजल पंप खरीदेगा- पर वह बताता है कि उस की घरवाली करधौनी की $िजद कर रही है तुम इनका समझौता क्यों नहीं करा देते?
चौधरी मेरी मन: स्थिति को समझ गया कि मैं काफी हल्के मूड में हूं और उनसे वार्तालाप करने में आनंद ले रहा हूँ, उसके मन से कलेक्टर का आतंक मिट गया वह भी विनोद के स्वर में बोला, ‘हुजूर! अब आप ही हमारे बीच आ गये- यह हमारा सौभाग्य है- हम सब के बीच में अब आप ही बड़े हैं, गांव के रिवाज के अनुसार सबसे बड़ा ही समझौता कराने का हकदार होता है, अब आप ही इनका समझौता करा दीजिये।Ó
‘मैं- मैंने अचरज के स्वर में कहा- तुम पहले यह तो बताओ मेरा फैसला तुम लोग मानोगे या नहीं- यह कोई कचहरी की नहीं- आपस की बात है।Ó
‘हुजूरÓ वह प्रौढ़ ग्रामीण बोला- हम गांव वाले तो जिसे बड़ा मान लेते हैं उसे हर बात में बड़ा मानते हैं- फिर आप जैसे अफसर हमें मिलते ही कहां हैं।
‘अच्छा तो सुनोÓ मैं गंभीर हुआ, मेरा विचार है कि इस बार यह किसान अपनी फसल से सिंचाई पम्प खरीदे फिर अगली साल दोनों पति-पत्नी खूब मेहनत करें और फिर जो फसल आये उससे यह पत्नी के लिये करधौनी खरीदे तथा एक साल उसकी पत्नी ने अपनी इच्छा के लिए जो धीरज रखा है उसके पुरस्कार स्वरूप एक और गहना खरीदें।
मेरा फैसला सुनते ही सब मुस्करा दिए बोले जैसी हुजूर की मर्जी ऐसा ही होगा।
शाम घिरने लगी थी मैं जीप में बैठा और जिला मुख्यालय आ गया।
रात दस साढ़े दस बजे तक दफ्तर से घर आई फाइलों को देखता रहा तभी अचानक बिजली कड़कने की आवा$ज से मेरी तन्द्रा टूटी।
मैंने खिड़की से बाहर झांका आसमान बादलों से भर गया था तथा हल्की बरसात शुरू हो गई तभी तेज हवा का एक झोंका आया हवा इतनी ठंडी थी कि मेरा सारा शरीर कांप गया।
मैंने तेजी से खिड़की बंद कर ली। तभी पट की आवाज़ें छत से आने लगीं, पहले छोटे-छोटे ओले गिर फिर काफी बड़े-बड़े दो दो सौ ढाई-ढाई सौ ग्राम के मेरा चपरासी बरामदे में गिर रहे ओलों को बाहर निकालने में व्यस्त हो गया।
शीला और बच्चे भी जाग उठे। वे खिड़की के शीशों से बाहर प्रकृति की विनाश लीला डरी हुई निगाहों से देखने लगे।
मेरे बंगले के सामने क्यारियों में उगी फसल ओलों से चौपट हो गई कल तक जिन्हें मैं आते जाते मुस्कराते हुए देखता आज वे ही पौधे आलों की मार से धराशायी हो चुके थे।
‘हे भगवान- जिले में क्या हो रहा होगाÓ मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा और टेलीफोन उठाकर तहसील मुख्यालयों के अनुविभागीय अधिकारियों को रिंग करने लगा।
तेज हवा और ओले पानी के कारण टेलीफोन लाइनें भी खराब हो गईं थी एक दो जगह तो फोन ही नहीं लगा। दो-एक एसडीओ मिले तो उन्होंने भी अपने इलाके में प्रकृति की उसी विनाश लीला की खबरें दीं।
उस रात में सो नहीं सका। सारी रात करवटें लेते ही बीती। क्षण भर में क्या से क्या हो गया। किसानों ने अपनी अच्छी फसल देखकर क्या-क्या सपने नहीं संजोये थे। किन्तु एक रात की ओला वृष्टिï ने उन सब पर पानी फेर दिया।
पर क्या उस नियति से घबड़ाना जरूरी है। मेरे मन में दूसरा विचार उठा मैं जिले का सर्वेसर्वा हूँ अगर मैं ही घबड़ा गया तो-
मैंने संकल्प किया कि कल सुबह ही मैं जीप उठा कर जिले के ग्रामीण इलाकों में जाऊंगा। जितना बन सकेगा लोगों की मदद का इन्तजाम करूंगा।
सुबह जब मैं दौरे की तैयारी करने लगा तो शीला ने कहा बहुत ठंड है और पानी भी नहीं थमा। पानी खुलने पर जाते तो ठीक रहता- कहीं तबीयत न खराब हो जाये।
मैंने शरारत भरे स्वर में कहा, ‘शीला! कलेक्टर होने के पहले मैं एक किसान का लड़का हूँ और ओला-पानी से तो मेरी आज की नहीं वर्षों की पुरानी पहचान है।Ó फिर गंभीर होते हुए बोला- ‘किसानों के बीच में पहुंच जाऊंगा- तो उन्हें कम से कम इतना मानसिक संतोष तो मिलेगा कि उनकी मुसीबत में उनका कलेक्टर भी उनके साथ है, उनकी सहानुभूति ही जिले को चलाने के लिए काफी है फिर मेरे पहुंचने से छोटे अधिकारी कर्मचारी भी अधिक सक्रिय हो जायेंगे तथा राहत का काम तेजी से चलेगा।
बे मौसम बरसात और ओला वृष्टिï से सारा ग्रामीण इलाका कराह उठा था। खेतों में खड़ी फसलें नष्टï हो गई थीं गांवों के खपरेले मकानों के छप्पर टूट गए थे कड़कड़ाती ठंड से सैकड़ों पशु पक्षी काल कलवित हो गए थे। चारों तरफ त्राहि-त्राहि मची थी। जिले के बूढ़े सयाने लोगों का कहना था कि ऐसी ओला वृष्टिï उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी। और मैं दुखी मन किसानों को धीरज बंधाते हुए अधिकारियों को आदेश देता रहा।