(अठाइसवीं किश्त)
तबूक की लडाई
नबी सल्ल. ने तायफ के किले को घेर लेने का हुक्म दिया और औतास की तरफ अबू आमिर अश्अरी रजि. को भेजा अबू आमिर अश्अरी रजि. ने वहां पहुंच कर दुश्मन के बाल-बच्चों और माल व दौलत पर कब्जा कर लिया। जब नबी सल्ल. को औतास का नतीजा मालूम हुआ तो किले का घेरा उठा लेने का हुक्म दिया, क्योंकि उन लोगों पर बाल-बच्चों के जाते रहने की भारी मुसीबत पड चुकी थी।
औतास में 24 हजार ऊंट, 40 हजार बकरियां, चार हजार औकिया चांदी और छैः हजार औरतें और बच्चे मुसलमानों को हाथ लगे थे।
नबी सल्ल. अभी लडाई के मैदान के करीब ही ठहरे हुए थे कि कबीला हवाजिन के छैः सरदार आए और उन्होंने रहम की दख्र्वास्त पेश कर दी।
इन में वे लोग थे, जिन्होंने तायफ में नबी सल्ल. पर पत्थर बरसाए थे और आखरी बार वहां जैद रजियल्लाहु अन्हु रसूलुल्लाह सल्ल. को बेहोशी की हालत में उठा कर लाए थे।
नबी सल्ल. ने फरमाया, हां,
मैं खुद तुम्हारा इन्तिजार कर रहा था और इसी इन्तिजार में लगभग दो हफ्ते हो गए कि लूट का माल भी न बांटा गया था। मैं अपने हिस्से के और अपने खानदान के हिस्से के कैदियो को आसानी से छोड सकता हूं। और अगर मेरे साथ सिर्फ अंसार व मुहाजिर ही होते तो सबका छोड देना भी मुश्किल न था, मगर तुम देखते ही कि इस फौज में मेरे साथ वे लोग भी है, जो अभी मुसलमान नहीं हुए, इसलिए एक उपाय की जरूरत है। तुम कल सुबह की नमाज के बाद आना, खुले मज्मे में अपनी दख्र्वास्त पेश करना, उस वक्त कोई शक्ल निकल आएगी, फरमाया, तुम चाहे माल का लेना पसन्द कर लो या बाल बच्चों का, क्योंकि हमलावर फौज को खाली रखना मुश्किल है।
दूसरे दिन वही सरदार आए और उन्होंने आम मज्मे में अपने कैदियों की रिहाई दख्र्वास्त नबी सल्ल. की खिदमत में पेश की।
नबी सल्ल. ने फरमाया, मैं अपने और बनू अब्दुल मुत्तलिब के कैदियों को बगैर किसी मुआवजा के रिहा करता हूं। अंसार व मुहाजिर ने कहा, हम भी अपने- अपने कैदियों को बगैर किसी मुआवजे के आजाद करते हैं।
अब बनी सुलैम व बनी फुजारा रह गये। उनके नजदीक यह अजीब बात थी कि हमलावर दुश्मन पर (जो खुश किस्मती से काबू में आ गया हो) ऐसा रहम व मेहरबानी की जाए, इसलिए उन्होंने अपने हिस्से के कैदियों को आजाद न किया। नबी सल्ल. ने उन्हें बुलाया। हर एक कैदी की कीमत छैः ऊंट करार पायी। यह कीमत नबी सल्ल. ने अदा कर दी और इस तरह बाकी कैदियों को भी आजादी दिलायी, फिर सब कैदियों को अपने पास से कपडे पहना कर रूख्सत फरमाया।
इन कैदियों में दाई हलीमा की बेटी शीमा बिन्त हारिस भी थीं। नबी सल्ल. ने उस दूध की बहन को पहचाना और उसके बैठने के लिए अपनी चादर बिछा दी। फरमाया, अगर तुम मेरे पास ठहरो, तो बेहतर है। अगर कौम में वापस जाना है तो अख्तियार है। उसने वापस जाना चाहा और उसे पूरी इज्जत के साथ उस की कौम में भेज दिया।
गनीमत का माल नबी सल्ल. ने उसी जगह बांट दिया। ज्यादातर हिस्से उन लोगों को दिए गए थे जो थोडे दिनों पहले इस्लाम लाए अंसार को, जो मुख्लिस थे, उसमें से कुछ भी न दिया था, फरमाया, अंसार के साथ मैं खुद हूं, लोग माल ले-लेकर अपने-अपने घर जाएंगे और अंसार अल्लाह के नबी को साथ लेकर अपने घरों में दाखिल होंगे।
अंसार इस फरमान पर इतने खुश थे कि माल वालों को यह खुशी हासिल न हुई।
तबूक की लडाई
अरब के उत्तर में रूम की बडी हुकूमत थी। इस हुकूमत के साथ संघर्ष तो मक्का की जीत से पहले ही शुरू हो गया था। नबी सल्ल. ने एक खत इस्लाम की दावत लेकर उत्तर की ओर उन कबीलों के पास भी भेजा था, जो शाम की सरहद के करीब आबाद थे, ये लोग ज्यादातर ईसाई थे और इन लोगों ने इस्लामी वफ्द के सरदार हजरत साद बिन उमैर गिफारी बचकर वापस आए थे। उस जमाने में आंहजरत सल्ल. ने बसरा के सरदार शुरहबीन के नाम भी इस्लाम की दावत का पैगाम भेजा था, मगर उसने भी आप के दूत हजरत हारिस बिन उमैर को कत्ल कर दिया था। यह सरदार भी कैसरे रूम के हुक्मों के मातहत था। इन्हीं वजहों से आंहजरत सल्ल. ने जुमादल ऊला सन् 08 हि. में तीन हजार मुसलमानों की एक फौज शाम की सरहद की तरफ भेजी थी, ताकि इस हल्के में अब फिर मुसलमानों को बिल्कुल कमजोर समझ कर तंग न किया जाए।
जब इस फौज के आने की इत्तिला शुरहबील को मिली तो वह लगभग एक लाख फौज साथ लेकर मुकाबले के लिए निकला, लेकिन मुसलमान इस इत्तिला के बावजूद आगे बढते रहे।
ृ कैसरे रूम उस वक्त हप्स की जगह मौजूद था, उसने भी अपने भाई थ्यौडर के साथ एक लाख और ज्यादा फौज भेज दी, पर मुसलमान बराबर आगे बढते रहे और आखिरकार मौता की जगह पर ये तीन हजार सर फरोश इतनी बडी रूमी फौज से टकरा गये। देखने में तो इस कदम का नतीजा यह होना चाहिए था कि मुसलमानों की यह थोडी-सी जमाअत इतनी भारी फौज के मुकाबले में बिल्कुल खत्म हो जाती, लेकिन अल्लाह का फज्ल ऐसा रहा कि रूमियों की इतनी बडी फौज उन मुसलमानों का कुछ भी न बिगाड सकी।
दूसरे ही साल कैसर ने मुसलमानों की मौता की लडाई की सजा देने के लिए शाम की सरहद पर फौजी तैयारियां शुरू कर दीं और अपने मातहत अरब कबीलों से फौजें इकट्ठी करने लगा।
नबी करीम सल्ल. को भी इन तैयारियों का हाल मालूम हुआ। यह मौका मुसलमानों के लिए बडा नाजुक मौका था। उस वक्त अगर जरा भी सुस्ती दिखायी जाती तो सारा काम सपना बनकर रह जाता। एक तरफ तो अरब के वे सब कबीले फिर सर उठाते, जिन्हें अभी-अभी मक्के और हुनैन की लडाई में हार खानी पडी थी। दूसरी तरफ मदीने के मुनाफिक जो इस्लाम के दुश्मनों से सांठ-गांठ रखते थे। ठीक वक्त पर इस्लामी जमाअत के अन्दर ऐसा फसाद पैदा करते कि फिर मुसलमानों का संभालना बडा मुश्किल हो जाता। ऐसी हालत में रूम की हुकूमत के भरपूर हमले का मुकाबला करना कोई आसान बात न होती और इस बात का खतरा था कि इन तीन हमलों की ताब न लाकर मुसलमानों को हार का मंंुह देखना पडता। यही सब वजहें थीं कि प्यारे नबी सल्ल. ने फैसला फरमाया कि हमें कैसर की जबरदस्त ताकत से टक्कर लेना ही है, क्योंकि इस मौके पर जरा-सी भी कमजोरी दिखाने से सब बना-बनाया काम बिगड जाएगा। (क्रमशः)
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