जैसा के पहले पढ चुके हैं कि साम्राजी साजिशों के तहत कम्पनी एक नवउमर और नातर्जुेबेकार जहांगीर मोहम्मद खान को नवाब बनाना चाहती थी ताकि इनके पर्दे में वो अपनी मनमानी कर सके। इस कारण नवाब कुदसिया बेगम को इस्तीफा देने को मजबूर किया गया और नवम्बर 1837 ई. को जहांगीर मोहम्मद खान नवाब बना दिये गये। सिकंदर जहां बेगम उनको लेने के लिए सीहोर गईं। सत्ता संभालते ही उन्होंने अपने मामू असद अली खान को रियासत का नायब बना दिया और अपने मुशीरों को ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर बिठा दिया।
लेकिन इनके गलत मुशीरों के कारण हमेशा साजिशें चलती रहीं, यहां तक कि रियासत पर पूरा अमल-दखल हासिल करने की सलाह के चलते एक रात बेगम साहिबा पर तलवार से वार किया गया जो कि ओछा पड गया और बेगम साहिबा बच गईं। और अपने वफादारों राजा खुशवक्त राय, बख्शी बहादुर खान और उनके बेटे बाकी मोहम्मद खान की नंगी तलवारों के साये में इस्लाम नगर पहुंच गईं। वहां शाहजहां बेगम पैदा हुईं। असद अली खान ने कम्पनी से नवाब साहब की दूसरी शादी की इजाजत चाही और यह कि इस निकाह से जो औलाद हो वो रियासत की वारिस साबित हो। लेकिन उनकी इस मांग को कम्पनी ने रद्द कर दिया। जवाब में कम्पनी ने लिख कर भेजा कि समझौते के अनुसार सिकंदर जहां बेगम की औलाद ही रियासत की वारिस होगी।
नवाब जहांंगीर खान एक पढे-लिखे और उलेमा की कद्र करने वाले थे, इसलिए उन्होंने शेख अब्दुल हई मुहद्दिस देहलवी के सिलसिले के आलिम व फाजिल काजी शरीफ उद्दीन देहलवी को बुलाया और अल्लामा अहमद यमनी को बुला कर अपने मुशीरों (सलाहकारों) में सम्मिलित किया। बाहरी और स्थानीय आलिमों और शायरों की कद्रदानी से रियासत में इल्म व अदब का माहौल बना। नवाब साहब खुद भी शेर कहते थे और दूल्हा तखल्लुस इख्तियार रखते थे।
मौलवी इमदाद अली, मुहम्मद अली शीरीं, मियां मिस्कीन लखनवी, सैय्यद वासिल अली शुजालपुरी, सैय्यद हुसैन अली, सैय्यद कासिम अली जैसे काबिल लोग उनके नौरत्नों में शामिल थे। इल्म व अदब की तरक्की के साथ एक मोहल्ला जहांगीराबाद के नाम से बसाया गया। लाल बाग और कोठी की तामीर की गईं।
इनकी हुकूमत की बुनियाद शुरू से ही टेडी थी, गलत सलाहकारों ने इनको ठीक ढंग से हुकूमत नहीं करने दी। इनकी जिन्दगी को खुश्गवार नहीं बनने दिया और नतीजा यह हुआ कि यह कली खिल कर फूल बनने नहीं पाई थी कि मौसम के थपेडों से मुरझा गई। सिर्फ 25-26 साल की उम्र में 1844 ई. में उनका इंतकाल हो गया।
इनकी सादा मिजाजी, नेक नफ्सी और हकीकत सनाशी का सुबूत इस खत से मिलता है जो बीमारी की हालत में सिकंदर जहां बेगम को लिखा था। ‘‘मुझको रियासत आपकी निसबत से पहुंची है इस वक्त मेरी हालत तबाह है लिहाजा रियासत भोपाल मैंने आपके मेहर में दे दी। आपको पूरा अख्तियार है कि मेरे बाद जिसको चाहें रियासत की बागडोर सौंपे। नवाब असद अली खां और फाजिल मोहम्मद खां शाहजहां बेगम की निस्बत अपने लडकों से चाहते हैं, मुझको यह दोनों जगह मंजूर नहीं है। आईंदा आप मुख्तार हैं। बीमार को नवाब असद अली खां ने पागल करार दे रखा है और बडे साहब बहादुर भी मेरी बात को कोई अहमियत नहीं देते हैं। रियासत आपके बाप की है, मेरे बाप की नहीं है। तमाम बासौदा भोपाल में जमा हो गया है इस बात की तरदीद जरूरी है। यह लोग बडे साहब बहादुर के बुलाने पर आये हैं। इसलिए मेरी बात को नहीं समझते हैं।‘‘
इस खत के हिसाब से कम्पनी की साम्राजी पाॅलिसी का अन्दाजा हो जाता है। बेगम साहिबा का दिल भी इनकी तरफ से साफ था जिस पर उनके लिखे इस खत से रोशनाी पडती है।
’’बाद सलाम मसनून, वाजे हो कि जब से बाग फरहत अफजा से तश्रीफ ले गए हैं, मिजाज मुबारक की कोई तफसीली कैफियत मालूम नहीं हो सकी। गुजारिश है कि सिर्फ एक दो घडी के लिए सिकंदर कुली को हाजिर होने की इजाजत दीजिए कि वो अपनी आंखों से देख कर मिजाज की कैफियत देख सकें। ताकि मेरे बैचेन दिल को इत्मिनान नसीब हो।‘‘
इन दोनों खतों से एक दूसरे की मोहब्बत का पता चलता है। लेकिन नवाब साहब की बेबसी का आलम यह था कि उनके इंतकाल से पहले गर्वनर जनरल के लिए एक वसीयत दस्तगीर मोहम्मद खां की जांनशीनी के लिए लिखवा ली, जो बीवी जान के बतन से इनके लडके थे, जिनके बेटे मियां आलमगीर मोहम्मद खां हुए।
बहरहाल अहदे जहांगीरी में गलत सलाहकारों की वजह से अपने- अपने हितों को देखा गया। इस बात को छोड कर देखा जाए तो इल्म व अदब का बोलबाला भी रहा और अहदे कुदसी में इल्म व अदब की जो कोंपले फूटीं वह इस दौर में कली बन कर चटखने लगीं थीं। अगले अंक में नवाब सिंकदर जहां बेगम के विषय में पढें। (क्रमशः)