कृष्ण मोहन

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कृष्ण मोहन 24, नवम्बर 1922 को सियालकोट में पैदा हुए उनके दो शेर हैं,
मैं जिस धरती का बेटा हूं नामवरों की धरती है,
पैदा इस धरती में हुए हैं, फैज कई इकबाल कई।
तू एक शोख बाब था मेरे शबाब का
ऐ मरकज-ए-फजीलत- ओ-फन ऐ स्यालकोट
उनके पिता स्वर्गीय श्री गनपत राय शाकिर सियालकोट और तत्पश्चात मेरठ में एडवोकेट रहे। कृष्ण मोहन का शायरी का शौक उन्हीं की देन हैं।
उन्होंने एम.ए. पास करके बंटवारे के बाद एक वर्ष करनाल में वैलफेयर आफिसर के पद पर काम किया फिर आल इण्डिया रेडियो लखनऊ और दिल्ली में ’’आवाज‘‘ के सब एडिटर और असिस्टैंट एडिटर रहे इसके बाद आय कर विभाग में चले गए। 1980 में असिस्टैंट कमीश्नर इन्कम टैक्स के पद से रिटायर हुए।
नौकरी के दौरान शिमला और दिल्ली में साहित्यिक गाष्ठियों की अध्यक्षता की। उन्हें उपाधियों व पुरस्कारों से विभूषित किया गयां
ं कृष्ण मोहन ने उर्दू शायरी में बहुत से नवीन प्रयोग किए हैं । खुरदुरी और काफिया दूर रदीफ वाली गजलों, आजाद गजलों और ज्ञान मार्ग की गजलें को बढावा दिया। संवेदनशीलता व स्पष्ट वादिता उनकी शायरी का सिंगार रहा है। उन्होंने विभिन्न विषयों पर प्रयोगात्मक रचनाएं लिखीं हैं। और जीवन के अद्भुत और धुंधले कोनो को बेनकाब किया है।
उन्होंने अपनी शायरी में उर्दू और हिन्दी का बहुत खूबसूरत समिश्रण किया है। कृष्ण मोहन के निम्नलिखित 20 शायरी के संकलन प्रकाशित हो चुका है।
उर्दू में
शबनम शबनम, दिल-ए-नादां, तमाशाई, गजाल, निगाह-ए-नाज आहंग-ए-वतन, कोपल कोपल, बैरागी भंवरा, शीराजा-ए-मिजगां, ज्ञान मार्ग की नज्में, हरजाई तेरी खुश्बू, मन के मनके, कु-ए-सलामत, कुफस्तान इंतेखाब, उदासी के पांच रूप, और कमल कामना के।
हिन्दी में
रूप रस, धूप मेरी कामना की, और प्यास मेरी कल्पना की।
कृष्ण मोहन की रचनाएं
हुई है खत्म कहानी यकीं नहीं आता
गुजऱ गई है जवानी यकीं नहीं आता
तुम्हारा हुस्न है फानी यक़ीन आता है
हमारा इश्क़ है फानी यहीं नहीं आता
ये आईने में नहीं आप, और है कोई
कोई है आप का-सानी यकीं नहीं आता
हुई है मेरी मज़म्मत मेरे हरीफों में
और आप ही की ज़बानी यकीं नहीं आता
सुना के अपनी कहानी जो मैंने देखा है
तुम्हारी आंखें में पानी यकीं नहीं आता
तेरे जुनून-ए-मोहब्बत में कृश्न मोहन ने
बनों की ख़ाक न छानी यकीं नहीं आता
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दूर दिल से सब कुदरत हो गई
जीस्त कितनी खूबसूरत हो गई
इस क़दर झूठी है दुनिया की मुसर्रत
दिल को फिर ग़म की ज़रूरत हो गई
यूं बसी है मुझ में तेरी याद साजन
मेरे मन मन्दिर की मूरत हो गई
मैं समझता था कि इस में सुख मिलेगा
चाह तो दुख का महूरत हो गई
दिल दुखी है इस क़दर ऐ कृश्न मोहन
जिन्दगी मरने की सूरत हो गई