जिगर के बुजुर्गों का वतन दिल्ली था। उनके पूर्वज मौलवी मोहम्मद समी, जो बादशाह शाहजहां के उस्ताद थे, दिल्ली छोडकर मुरादाबाद में आकर बस गए थे। यही जिगर का जन्म हुआ। इनका असली नाम अली सिकन्दर था। इनके पिता मौलवी मो. अली नजर भी शायर थे। जिगर की शिक्षा अधिक नहीं थी, परंतु शायरी का शौक लडकपन से ही था। 13-14 वर्ष की आयु में शेर कहने लगे थे। प्रारंभ में अपनी रचनाओं पर पिता से इस्लाह (सुधार) लेते थे, बाद में दाग देहलवी और मुंशी अमीर उल्ला तस्लीम से मश्विरा करते थे। उनके तीन काव्य संग्रह ‘‘दागे जिगर’’ ‘‘शोला-ए-तूर’’ और ’’आतिशे गुल‘‘ प्रकाशित हो चुके हैं। आतिशे गुल पर उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
9 सितम्बर 1960 को जिगर का देहान्त हो गया।
जिगर की शायरी में सरमस्ती और सरशारी की कैफियत है, जो उन्हें दूसरे शायरों से अलग करती है। रंगीन पुरकैफ ख्यालात, सादगी, रवानी और तरन्नुम जिगर की शायरी की विशेषताएं हैं। आमतौर से उन्होंने सादा और आसान भाषा का प्रयोग किया है। अक्सर वह शब्दों की तकरार से भी काम लेते हैं जिससे कलाम में एक खास लुत्फ पैदा हो जाता है।
जिगर की रचनाएं
गजल
इक लफ्जे-मुहब्बत का इतना सा फसाना है
सिमटे तो दिले आशिक, फैले तो जमाना है।
हम इश्क के यारों का बस इतना फसाना है
रोने को कोई नहीं, हंसने को जमाना है।
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है
हम खाक नशीनों की ठोकर में जमाना है।
या वो थे खफा हमसे या हम हैं खफा उनसे
कल उनका जमाना था आज अपना जमाना है।
यह इश्क नहीं आसां इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
ये हुस्न-ओ-जमाल उनका, ये इश्क-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है, मरने का जमाना है।
आंसू तो बहुत से हैं आंखों में ‘‘जिगर’’ लेकिन
बिंध जाय सो मोती है रह जाय सो दाना है।
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हमको मिटा सके ये जमाने में दम नहीं
हमसे जमाना खुद है, जमाने से हम नहीं।
बेफायदः अलम नहीं, बेकार गम नहीं
तौफीक दे खुदा तो ये नेअमत भी कम नहीं।
मिरी जुबां पे शिकवः-ए-अहले-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं।
जाहिद कुछ और हो न हो मयखाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवःए-दैर-ओ-हरम नहीं।
मर्गे-‘‘जिगर’’ पे क्यों तिरी आखें है अश्क-रेज
इक सानिहः सही मगर इतना अहम नहीं।
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