(44वीं किश्त)
चैथे खलीफा हजरत अली रजि.
जंगे जुमल
जब आइशा रजि. हज से वापस आ रही थीं तो रास्ते में उन्हें अमीरूल मोमिनीन हजरत उस्मान के कत्ल और हजरत अली के खलीफा चुने जाने की खबर मिली। मारे रंज के कांपने लगीं, बोलीं, यह हिम्मत? मुझे फौरन मक्का वापस ले चलो। मैं जब हजरत उस्मान के कत्ल का बदला न ले लूं। मुझे सब्र न आयेगा। वह यह कहकर वापस मक्का लौट गयीं।
इसी बीच तल्हा व जुबैर भी मक्का पहुंच गये और यहां उनकी जुबानी कत्ल की दास्तान सुनने वालों का तांता बंध गया। लोग इन वाकिआत को सुनकर रोने और पीटने लगे, कस्में खा-खाकर कहते थे कि जब तक कातिलों से बदला न लिया जाए, उन्हें करार न आयेगा। यही बातें हजरत जुबैर रजि. ने भी कहीं।
इन तमाम बातों को सुन कर यहां के लोग भी भडक उठे और हजारों आदमी झंडे तले आ मौजूद हुए।
तै हुआ कि दंगाईयों को सजा देने के लिए सबसे पहले बसरा पर हमला किया जाए। तीन हजार आदमी अपने घरों से निकल पडे।
हजरत आइशा रजि. की मातहती में इस फौज ने मक्का से कूच किया, वह एक ऊंट पर महमिल में सवार थीं। हजरत तल्हा और जुबैर रजि. साथ में थे।
जब यह फौज एक जोहड बबूब पर पहुंची तो आइशा कुत्तों की आवाज सुनकर बहुत परेशान हुईं। उन्हें प्यारे नबी की पेशीनगोई याद आ गयी कि बबूब के कुत्ते मेरी एक बीवी को भौंकेंगे। उन्होंने इरादा कर लिया कि वापस लौट जाएं। मगर लोगों ने उन्हें यकीन दिलाया कि यह जगह बबूब नहीं है और उन्हें समझाया कि वे वापस न जाएं, वरना खतरा है कि फौज में बिखराव पैदा हो जाएगा।
जब हजरत अली को मालूम हुआ कि एक फौज बसरा पर चढाई के इरादे से आयी हैं तो उन्होंने अपनी फौजें बसरा की तरफ रवाना कर दीं।
गवर्नर बसरा ने अपने दो दूत भेजे कि वे देखें कि बसरा के बाहर किसी औरत की मातहती में कैसी और क्यों फौज आयी हैं।
हजरत आइशा ने आने का मक्सद समझा दिया।
गवर्नर को इस बात से तसल्ली न हुई और उसने शहर को हवाला करने से इंकार कर दिया। दोनों फौजें आमने-सामने खडी हो गयीं।
हजरत आइशा रजि. ने फिर एक बार गवर्नर के आदमियों से बातचीत की, ताकि लडाई जहां तक मुम्किन हो, टाल दी जाए। लेकिन बात नहीं बनी। हजरत आइशा लडाई लडने आयी भी नहीं थीं, लेकिन इसको क्या किया जाए, कि बसरा की फौज में ज्यादातर वही बलवाई थे जो हजरत उस्मान रजि. के कत्ल के जिम्मेदार थे। उनकी पूरी कोशिश थी कि एक बार पूरी तरह खून-खराबा हो जाए ताकि वे लूट से अपना हाथ भर सकें। उन्होंने मक्का से आई फौज पर हमला कर दिया।
हजरत आइशा रजि. ने वहां कूच का हुक्म दे दिया और फौजों को दूसरी जगह ले गयीं।
बलवाई यह समझे कि हमारे डर की वजह से आइशा रजि. चली गयीं हैं। दूसरे दिन उन्होंने हजरत आइशा की बहुत बुरे लफ्जों में याद किया, इससे और फसाद भडक उठा।
सरकारी फौज ने सिर्फ गालियां ही न दीं, बल्कि उससे अगले दिन धावा बोल दिया।
इस नाजुक वक्त में भी हजरत आइशा रजि. ने एक आम एलान जारी किया कि वह मुसलमानों का खून बहाना गुनाह समझती है। फिर भी नापाक लोगों को तसल्ली न हुई, सिवाए लडाई के लिए चारा न था।
हजरत आइशा रजि. ने लडाई जीत ली
दूसरी तरफ से अम्न के लिए दख्र्वास्त की गयी, आखिर बातचीत के बाद तै पाया कि कुछ आदमी मदीना भेजे जाएं और यह मालूम किया जाये कि क्या हजरत तल्हा व जुबैर रजि. ने हजरत अली रजि. की बैअत राजी-खुशी से की थी या उनसे जबरदस्ती ली गयी थी? अगर यह साबित हो जाए कि उन्होंने अपनी रजामंदी से बैअत की थी तो बसरा हजरत आइशा रजि. के सुपुर्द कर दिया जायेगा और अगर जवाब नहीं में आये तो ये फौजें खुद-बखद बसरा से कूच कर जाएंगी।
एक कमीशन मदीना भेजा गया, पूरी खोज-बीन के बाद उन्होंने रिपोर्ट दी कि सच में तलहा और जुबैर से बैअत जबरदस्ती ली गयी थी। इन फसादियों ने इस रिपोर्ट की परवाह न करते हुए हजरत आइशा रजि. की फौज पर रात के वक्त हमला कर दिया। मगर उन्हें हार हुई और हजरत आइशा रजि. ने सत्तरह अक्टूबर 656 को बसरा पर कब्जा कर लिया। (क्रमशः)