गबन

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पिछले बार से आगे-

पर मैंने इस पर ज्यादा गौर नहीं किया। मैंने सोचा अच्छे काम के लिये गलत तरीके कोई साधारण आदमी इस्तेमाल नहीं करता। आम आदमी तो ईश्वर और पाप से डरने वाला होता है। यही भय उसे बुरे काम करने से बचाये रखता है। लड़की की शादी जैसे पवित्र काम के लिये लोग भीख मांग सकते हैं सहायता ले सकते हैं- कर्ज ले सकते हैं- धोखाधड़ी या हेरा-फेरी नहीं कर सकते हैं। ‘इल गॉटÓ हमेशा ‘इल स्पेन्टÓ ही होता है। अर्थात्ï बुरे तरीके से आया पैसा बुरे कामों में ही खर्च होता है। अच्छे कामों में नहीं। फिर यह उसका बीस साल की नौकरी में पहला मामला था, इसलिए मैंने जयादा जांच पड़ताल न करके चौबीस घन्टे के भीतर ‘केशÓ पूरा करने के निर्देश दिये थे।
भगवान जाने उसने कहां से दो हजार रूपये ला के दिये। एक क्लर्क की हैसियत ही क्या होती है कोई कहता उसने अपना पुश्तैनी मकान गिरवी रखा था- कोई कहता उसने लड़की की शादी के लिये इक_ïा किया सामान बेचा था- कोई कहता किसी से ऊंची ब्याजदर पर उधार लिया था। यह कहने वालों की भी कमी नहीं थी कि नाजिर बाबू दिखने के ही सीधे-सादे है, सालों से एक ही कुर्सी पर जमे हैं- कई कलेक्टर निकाल दिये- खूब पैसा कमाया है। दो हजार रूपये लगते कहा है, वह तो ये कलेक्टर बड़े तेज तर्रार हैं इसलिये नाजिर बाबू फंस गये- जितने मुंह उतनी बातें।
किन्तु आज जब वह मुझे ही पैसे देने में भूल कर गया तो मुझे लगा जरूर यह आदमी कहीं न कहीं से मानसिक रूप से पीडि़त है- कहीं न कहीं वह असामान्य है। जिलों में तो कलेक्टर की ऐसी छवि रहती है कि उसके सामने बोलने या कोई चीज प्रस्तुत करने के पहले दस बीस बार सोचा जाता है। अतिरिक्त सतर्कता बरती जाती है।
मैं इसी सोच विचार में पड़ा था कि मेरे सीनियर डिप्टी कलेक्टर मेरे चेम्बर में आये बोले सर आज सेकण्ड फ्राइडे है, कर्मचारियों की मीटिंग।
ओ-याद आया- अभी चलता हूँ सब लोगों को इक_ïा करो मैंने कहा।
मैंने महीने के हर शुक्रवार को लंच टाइम के बाद कलेक्ट्रेट के सभी अधिकारी कर्मचारियों की एक मीटिंग लेने की परम्परा शुरू की थी। सब लोग मीटिंग हाल के इक_ïे होते तथा अपनी निजी समस्यायें रखते थे। सामूहिक कल्याण के कुछ मुद्दे भी बैठक में उठते और उन पर निर्णय लिये जाते। कर्मचारियों की व्यक्तिगत कठिनाईयों परेशानियों की भी चर्चा होती। आपस के सुख दुख के प्रसंग भी उठते। एक पारिवारिक वातावरण बन जाता। इससे मुझे प्रशासन चलाने में बड़ा सहयोग मिलता था। कर्मचारियों-अधिकारियों के बीच आवश्यक तनाव पैदा नहीं हो पाता था। आपसी टकराव या मन मुटाव की बातें इस मीटिंग में ‘डिस्कसÓ हो जाती और हर बात साफ हो जाती। चुगल खोरी या कान भरने की बातों से भी लोग कतराने लगते थे। उन्हें डर बना रहता कि कहीं यह मामला शुक्रवार की मीटिंग में न उठ जाये। जब सब लोग मीटिंग हाल में बैठ चुके तो मैं वहां पहुंचा प्रभारी डिप्टी कलेक्टर ने पहले से मीटिंग का एजेण्डा तैयार करके रखा था कि कौन-कौन लोग बोलेंगे तथा किसा क्रम से।
मेरी लेखा शाखा के एक चपरासी तथा एक बाबू में पिछले दिनों किसी बात पर तू-तू मैं-मैं हो गई थी मामला मारपीट तक बढऩे वाला था। किन्तु चपरासी ने यह कह के कि अगली मीटिंग में कलेक्टर सा. के सामने सब बात कहूंगा वह कथित स्थिति टाल दी थी।
सबसे पहले उसी प्रकरण को लिया गया चपरासी ने शिकायत की कि लेखा शाखा का वह बाबू शराबी है तथा शराब लाने के लिये उसे जब तक कलेक्ट्रेट में सामान सप्लाई करने वाले दुकानदारों के पास पैसे लाने के लिये भेजता है और दुकानदारों द्वारा पैसे न मिलने पर वह मुझे गालियां देता है तथा अनुचित व्यवहार करता है। चपरासी ने यह जानकारी भी दी कि इसी बाबू ने एक दिन जब बड़े बाबू केश की चाबी लगाना भूलकर किसी काम से उठ कर बाहर चले गये थे तो इसने अलमारी में रखे केश में दो हजार रूपये मार लिये थे। बाद में बेचारे नाजिर जी को घर के गहने बेचकर भरने पड़े।
मैँने बाबू से सभी के सामने स्पष्टïीकरण देने को कहा-
वह बाबू बड़ा चालाक किस्म का दिख रहा था। किसी खाते पीते घर का लड़का था। फिल्मी स्टाइल की रंगीन छापों वाली बुशशर्ट पहिने था। मुंह में पान भी दबाये था। पहली ही न$जर में वह मुझे बदमाश दिखा पर मेरे जैसे अधिकारी को बिना जांच पड़ताल किये किसी के प्रति कोई धारणा बनाना उचित नहंीं था। हो सकता है चपरासी ही झूठ बोल रहा हो और यह लड़का लापरवाह या अनुत्तरदायी हो पर बदमाश न हो। मैंने उसे अपनी बात कहने का मौका दिया।
वह बोला सर! ये झूठ-बोलता है। यही मुझ से जब तक पैसे मांगता रहता है। कभी मेरे पास पैसे होते हैं तो दे भी देता हूँ- कभी नहीं होते तो नहीं देता। अपनी तनख्वाह तो वह शराब के अड्डïे पर खर्च कर देता है। फिर बच्चे भूखे मरते हैं की दुहाई देकर सब से पैसे मांगता है। और वापिस कभी नहीं करता। मैंने इसे पैसे नहीं दिये तो यह झूठा आरोप लगाने लगा है।
मैं मामले को बढ़ाना नहीं चाहता था। आजकल हमारे नौकरपेशा लोगों को कम तनख्वाह और बढ़ती महंगाई के कारण अनेक तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। दूसरों की नकल करके अपनी जरूरतें भी दिन प्रतिदिन बढ़ाते जाते हैं। आत्म संयम का उनके बीच में अभाव होता जा रहा है। अपने इन बढ़े तथा फालतू खर्चों को पूरा करने के लिये फिर वे अपने काम में से ही तरकीबें खोजने लगते हैं जिनसे भ्रष्टïाचार बढ़ रहा है और फिर जो अधिकारी कर्मचारी एक बार इस भ्रष्टïाचार की दलदल में फंस जाता है उसका यहां से निकलना कठिन हो जाता है।
समसया गंभीर थी, चपरासी कहता है बाबू शराबी है, बाबू कहता है चपरासी शराबी है, मैंने अपने सिर को झटका दिया फिर कुछ देन मौन रह के मैंने मामले की जांच के लिए एक वरिष्ठï उप जिलाध्यक्ष को सौंप दिया।
कुछ दिनों बाद उपजिलाध्यक्ष ने मुझे जो रिपोर्ट दी वह चौंकाने वाली थी। चपरासी और बाबू दोनों एक ही गांव के थे तथा बचपन के दोस्त थे। दोनों बिगड़ैल लड़के थे। पहले तो दोनों समय-समय पर नाजिर जी की अलमारी से दस-दस बीस-बीस रूपये उड़ाते रहे। नाजिर भी यह सोचकर कि कहीं लेने देने में भूल हो गई होगी, उन्हें सहन करता रहा तथा बेचारा अपनी तनख्वाह में से मिलाता रहा। किन्तु उस दिन मौका पाकर दोनों ने जब दो हजार रूपये उड़ाये तो नाजिर के भी होश ठिकाने नहीं रहे। उसने वित्त प्रभारी अधिकारी से शिकायत की तथा मामला मेरी जानकारी में आया।
दो हजार रूपये पाकर दोनों ने एक दो हफ्ते तो खूब ऐश किया। किन्तु बाद में रकम के बंटवारे को लेकर झगड़ा हो गया।
मैंने मामला थाना प्रभारी को सौंपते हुए उन्हें तत्कल निलंबित करने के आदेश दिये तथा नाजिर को बुलाकर कहा कि सरकारी पैसे का लेन देन सतर्कता तथा गंभीरता से करे। एक पैसे की कमी या बेशी को हल्के रूप में न ले। अगर वह जब दस रूपये कम हुए थे तभी मामला प्रकाश में लाता तो उसकी रोकथाम हो जाती औरउसे दो हजार की चपत न लगती।