साहित्य का इन्द्रधनुष हजरत अमीर खुसरो

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हिन्दी साहित्य की चर्चा हो अथवा खडी बोली की हिन्दी में काव्य रचना या फिर हिन्दी के नामकरण का प्रश्न ही क्यों न हो, अमीर, खुसरो के जिक्र के बिना अधूरा है। अमीर खुसरो खडी बोली हिन्दी के प्रथम कवि हैं। उन्हें खडी बोली हिन्दी में लिखकर जहां हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि की, वहीं खडी बोली हिन्दी को नया जन्म दिया। इसी कारण अमीर खुसरो को खडी बोली हिन्दी का आदि-कवि कहा जाता है।
अमीर खुसरो भारत की मिट्टी में जन्में एक ऐसे वट वृक्ष थे जिसकी शाखायें केवल हिन्दुस्तान तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि दूर-दूर देशों तक फैलाकर उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरव को बढाया। उन्होंने अपना साहित्य हिन्दी में लिखा या उर्दू-फारसी में, अरबी या संस्कृत में, पर सब जगह उन्होंने हिन्दी, हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों की तारीफ ही की थी। उन्होंने हिन्दुस्तान को रोम, इराक आदि से श्रेष्ठतर मानते हुए लिखा हैः
तरजीहे मुल्के हिन्द व अव्व्ल अज हवाए खुश।
बर रोम व इराक- खुरासाने बर्फबार।।
खुसरो के समय में भारतीय समाज हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन आदि विभिन्न धार्मिक विचारधाराओं में बंटा था। यही नहीं, सभी धर्मों के ग्रंथ अपनी अलग-अलग भाषा में रचे होने के कारण भी उन धर्मों के अनुयायी भाषा के आधार पर भी बंटे हुए थे। हिन्दू संस्कृत से, मुसलमान अरबी से और बौद्ध प्राकृत भाषा से बंधे थे। प्रत्येक धर्म के दायरे में सिमटकर रह गया था। वह अपने धर्म, अपनी भाषा और अपने अनुष्ठानों को दूसरों से बेहतर समझता था। इसके अतिरिक्त व्यक्ति की श्रेष्ठता जात-पात में बंटकर रह गई थी। जिससे न तो हिन्दू समाज अछूता था और न ही मुस्लिम-धर्म । भाषा और जाति में बंटे लोगों को एक सूत्र में पिरोने का महान कार्य खुसरो ने किया।
ऐसे महान सूफी कवि का जन्म 652 हिज्री में हुआ था जो 1253-1254 ई. में पडता है। अमीर खुसरो का बचपन का नाम है ’’अबुल हसन यमीनुद्दीन‘‘ था। ’’सुलतानी‘‘, ’’तुर्क‘‘, उनके उपनाम थे। ’’अमीर‘‘, ’’सूफी-ए-हिन्द‘‘, मलिक्कुशोअरा पद्वियां थीं जो बादशाहों ने खुश होकर उन्हें दी थीं, किन्तु साहित्य और जनता के बीच वह ’’खुसरो‘‘ नाम से विख्यात हैं जो कि उनका तखल्लुस या उपनाम था।
अमीर खुसरो तीन भाई थे। इन तीनों में यमीनुद्दीन (खुसरो) ही सर्वाधिक विवेकशील, कुशाग्र तथा मेधावी थे। उनके पिता का नाम अमीर सैफुद्दीन महमूद था, जो तुर्की के लाचीनी कबीले के सरदार थे। सैफुद्दीन भारत-आकर दिल्ली से कुछ दूर उत्तर-प्रदेश के एटा जिले के पटियाला गांव में बस गए और बादशाह के यहां नौकरी कर ली। उन्होंने अपने कौशल और विवेक से बादशाह का मन जीत लिया और जागीरदार बन गए।
खुसरो की माँ मूलतः हिन्दू परिवार की थीं, जिसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। इनकी मातृभाषा हिन्दी थी। इनके नाना रावेल इमादुल मुल्क दिल्ली के नवाब थे। वे बलबन के युद्ध मंत्री थे। मुसलमान बनने के बावजूद इनके घर में हिन्दू रस्मो-रिवाज चलते थे। खुसरो की माँ हिन्दू रस्मो-रिवाज में पलकर बडी हुई थीं। इसीलिए अपनी मां की हिन्दु संस्कारी-छाप खुसरो पर भी पडी थी।
खुसरों के नाना हजरत निजामुद्दीन के परम भक्त थे। पिता की मृत्यु के बाद खुसरों अपने नाना इमादुल मुल्क के पास रहने लगे। नाना के साथ ही खुसरो का हजरत निजामुद्दीन औलिया के पास आना-जाना हो गया। हजरत निजामुद्दीन के नजदीक रहकर खुसरो ने काफी कुछ सीखा। इससे इन्हें साधू-संतों के पास रहने का मौका भी मिला और साहित्य अध्ययन का भी। खुसरो ने उन्हें गुरू बना लिया और उनसे अरबी व फारसी का अपार ज्ञान प्राप्त किया।
हजरत निजामुद्दीन खुसरो को प्राणों से प्रिय मानते थे। खुसरो के प्रति उनका प्रेम अतुलित था, तभी तो उन्होंने अपने मरने से पूर्व अपनी इच्छा इन शब्दों में जाहिर की थी- ’’अगर कब्र में दो व्यक्तियों को दफन किया जाता तो मैं चाहता कि खुसरो को मेरे साथ दफन किया जाए‘‘, गुरू की इस अंतिम इच्छा के मुताबिक यद्यपि अमीर खुसरो को उनकी बगल में दफन नहीं किया गया, पर उनके सन्निकट ही दफनाया गया। यह खुसरो की गुरू भक्ति, विलक्षण मेधा आध्यात्मिकता का द्योतक है।
अमीर खुसरो ग्यारह बादशाहों के राजदरबारी रहे। उन्होंने गुलाम वंश, खिलजी वंश व तुगलक वंश तक दिल्ली के अनेक तख्तों-ताजों को उलटते-पलटते देखा। वह स्वयं एक कवि के साथ-साथ एक योद्धा और स्वामी भक्त सिपाही थे। खुसरो जिस भी बादशाह के दरबार में रहे, जिसके भी निकट रहे और जिसके भी व्यवहार से प्रभावित हुए उसका वर्णन उन्होंने निष्पक्ष और स्विार्थ भाव से किया खुसरो की ये सब कृतियां इतिहासकोरों के लिए अनमोल रत्न हैं। जिनके माध्यम से उस काल के बादशाहों और राजाओं के विषय में जानना बहुत सुगम हो गया है। अमीर खुसरो इतिहास की उन कडियों को जोडते हैं जो निश्चित रूप से इतिहास लेखन के अभाव में अधूरी और टूटी पडी थी।
खुसरों जहां एक बहुभाषाविद और कवि थे, वहां वे महान संगीतकार भी थे। संगीतकला में वह निपुण थे और अनेक राग-रागनियों के आविष्कारक थे। इनमें साजगिरी, बारवर, इयाख, मव्वा फल, कोला, तराना, ख्याल, नक्श, ध्रुपद-छन्द, निगार, सोहल आदि काफी प्रसिद्ध है। उनका वाद्य तथा गायकी दोनों क्षेत्रों में काफी योगदान रहा है। भारतीय यंत्र ’’वीणा‘‘ तथा ईरानी ’’तम्बूरे‘‘ के आधार पर खुसरो ने तीन तारों का ’’सेहतार‘‘ नामक बाजा बनाया, जो बाद में ’’सहतार‘‘ और फिर ’’ सितार‘‘ नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने ’’पखावज‘‘ को दो भागों में विभाजित करके तबला व ढोल का आविष्कार किया।
अमीर खुसरो गायक भी थे। वह अपनी राग-रागरानियों से ऐसा समां बांध देते थे कि श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे। उन्होंने तबला, ढोलक, सितार आदि का आविष्कार करके बजाने के तरीके भी स्वयं बनाए। इन तरीकों मंे उन्होंने भारतीय और ईरानी दोनो की संगीत पद्धतियों का आधार लिया। खुसरो ने जिन 17 तालों का आविष्कार किया उनमें से प्रमुख ताल खम्सा (5 ताल), सवारी (4 ताल), फरोदस्त (5 ताल), पहलवान (4 ताल), चपला (3 ताल), जनानी सवारी (5व 7 ताल), पश्ती@ (एक ताल), आडा चैताला (4ताल), कव्वाली (3 ताल), झमूर (3 ताल) आदि हैं।
खुसरो के बनाए रागों में मंजीर, साजगिरी, एमन, उश्शाक मुवाफिक, गमन, जीलफ, फरगना, सरपरदा, फर्जेदस्त, बाखरज, सनम आदि मुख्य हैं।
अमीर खुसरो ने सूफियाना ढंग और उसके नियमों का आविष्कार करके कव्वाली नाम से संगीत साहित्य को एक नई चीज दी। इसलिए सभी कव्वाल अमीर खुसरो को अपना गुरू मानते हैं और उनके सालाना उर्स पर उनकी मजार पर आकर अपनी कव्वालियों के द्वारा श्रद्धा के फूल चढाते हैं।
खुसरो फारसी, अरबी, उर्दू और खडी बोली के अतिरिक्त भारत की अनेक प्रादेशिक भाषाओं के मर्मज्ञ थे। उन्होंने अपनी ऐतिहासिक कृति नव उमावंश में भारतीय भाषाओं का उल्लेख किया है। इनमें उन्होंने सिन्दी (सिन्धी), लाहौरी (पंजाबी), कश्मीरी कबर, घोर समन्दरी (कन्नड) तिलंगी (तेलगी,तेलगु), गूजर (गुजराती), मअबरी (कारो-समुद्र तट की तमिल), गोरी (गोडी-पश्चिम बंगाल) बंगला, अवद (अवधी-पूर्व हिन्दी) और दिल्ली व उसके आस-पास की भाषा का सर्वेक्षण किया है।
अमीर खुसरो ने गद्य-पद्य दोनों में ही अपनी रचनाएं लिखी हैं। उनकी रचनाओं के विषय में उनके समकालीन विद्धानों के अलग-अलग मत हैं। खुसरो की अधिकांश रचनाएं फारसी में हैं और हिन्दी में भी उन्होंने काफी रचनाएं लिखी हैं। कुछ विद्धानों के अनुसार जहां फिरदौसी ने 70 हजार शेर लिखे, सायब के एक लाख से ऊपर वहीं खुसरो ने 4 लाख से ऊपर शेर लिखे। मौलाना शिबली उन्हें 5 लाख पंक्तियों का रचनाकार मानते हैं। लप्फे अली खां ने ’’ तजकराए आतिशकदा‘‘ में लिखा है कि उन्होंने स्वयं खुसरो के एक लाख पद देखे हैं।
अमीर खुसरो की सर्वमान्य रचनाओं में ये रचनाएं आज भी उपलब्ध हैं-गद्य-’’एजाजे खुसरवी‘‘, खजाइन-उल-फुतूह‘‘, ’’अफजल-उल-फव्वाद।‘‘
काव्य-फारसी में उन्होंने पांच दीवान लिखे-तो हफ्त्तु-उस- सफर‘‘, ’’वसतुल हयात‘‘, कुर्रातुल कमाल‘‘, वाकिया तकिया‘‘, निहायतु-उल-कमाल।‘‘ इन दीवानों में खुसरो ने अपने जीवन का अनुभव कार्य-कलाप और प्रशंसा का वर्णन किया है। ’’तोहफत्तु उस-सफर‘‘ दो पालतु पक्षियों के प्राणांत होने की घटना पर खुसरो द्वारा लिखे मर्सिये (शोक गीत) का वर्णन है, वहीं इसमें काव्य कला की विशिष्टता, फारसी कविता की अरबी कविता से श्रेष्ठता और हिन्दुस्तान की फारसी शायरी की उत्तमता का दिग्दर्शन कराया गया है।
अमीर खसरो की 11 मतनवियां उपलब्ध हैं। किरानुस्साउदीन‘‘, गिफत्ताह-उल-फतूह@, ‘‘इश्किया-खिजर खां व दोलत रानी‘‘, ’’नूह सिपहर@, तुगलकनामा‘‘, ’’मतला-उल-अनवार‘‘, ’’शीरीं खुसरो‘‘, ’’मजनूं लैला‘‘, आईन-ए-सिकन्दरी‘‘ ’’हश्त बहिश्त‘‘, ’’मसनवी शिकायतनामा मोमिनपुर पटियाली‘‘।
मसनवी लेखन भी साहित्य की काव्य विधा में अनूठा संगम रहा है। लोकप्रियता की दृष्टि से गजल का भाव सौन्दर्य और कसीदे की शान भी है। इसमें ’’रिंद‘‘ की ’’हावहू‘‘ के नारे भी हैं, तो सूफियों के ’’अल्लाहू‘‘ की आवाजें भी। हुस्न और इश्क की दास्तानें भी इनमें मिल जावेंगी और युद्ध भूमि की तलवारों की झंकार भी साफ सुनाई देगी। मसनवी में जिन्दगी स्वयं हंसती बोलती, गाती, मुस्कुराती व कराहती है।
हिन्दी काव्य-खुसरो का हिन्दी काव्य ’’अमृत वाणी‘‘ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें निम्नलिखित साहित्यक विधायें सम्मिलित हैं, खालिक बारी, बूझ पहेली बिन पहली, दो सुखने, निस्बते, गीत, दोहे, गजल ढकोसला पहेलियां, कह मुकरनियां, कव्वाली। अमीर खुसरो प्रथम शब्दकोशकार हैं, ’’खालिक बारी‘‘ उनका शब्दकोश है। फारसी सीखने वाले विद्यार्थी सर्वप्रथम ’’खालिक बारी‘‘ से ही अपना अध्ययन शुरू करते हैं, इसके हर शेर में तुर्की, अरबी और फारसी शब्दों के पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं। जैसे-खालिक बारी, सिरजनहार वाहिद-एक, विदा-करतार।
अमीर खुसरो की पहेलियां बेहद सरल और सरस है, जो जनसाधारण को प्रभावित करती हैं और मनोरंजन कराती हैं। उनकी पहेलियांे को दो भागों में बांटा गया है। सकारण पहेलियां और अकारण पहेलियां, सकारण पहेलियांे में उनका नाम छिपा होता हैः-
बीसों का सिर काट दिया, ना मारा ना खून किया। -नाखून@अकारण पहेलियांे में उनका उत्तर उपस्थित नहीं होता, पर उस चीज का संकेत व सूचना विद्यमान रहती हैः-
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।।
’’कह मुकरनी‘‘ का अर्थ है किसी बात को कहना और उससे मुकर जाना, यानि कहकर मुकर जाना। खुसरो की ’’ कह मुकरियां‘‘ बहुत रोचक हैं और सरल भाषा में हैं।
वह आवे तब शादी होय
वा बिन शादी करे न कोय
मीठे लागें उसके बोल
ऐ सखि साजन, ना सखि ढोल
अमीर खुसरो पहले पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने ’’दो सुखने‘‘ लिखकर हिन्दी साहित्य को एक बडी चीज दी है। ’’दो सुखने‘‘ से मतलब है दो ऐसी छोटी संयुक्त पहेलियां जिनका उत्तर एक ही होता हैः
अनार क्यों न चखा
वजीर क्यों न रखा ?ः
दाना न था
अमीर खुसरो बडे ही प्रतिभावान आशु कवि थे। बेमेल और असमान शब्दों को एक साथ मिलाकर वह तुरंत कविता बना देते थे। ढकोसलों में ऐसी की तुकबंदियां हैंः-
खीर पकाई जतन से और चरखा दिया चलाय।
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय।।
अमीर खुसरो असीमित और विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। सूफी कवि थे। वह महान संत और दार्शनिक थे। उन्होंने वेदांत दर्शन, बौद्ध दर्शन और इस्लाम दर्शन की विभिन्न गूढ विचार-धाराओं को मथकर एक किया और फिर सहज भाषा के माध्यम से लोगों के बीच उतारा। उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रेम को उभारकर हिन्दू-मुस्लिम भेद को मिटाने का सफल प्रयास किया। हिन्दुस्तान और यहां की हर चीज की भरपूर प्रशंसा करके लोगो के दिलों को जीता और फिर कर्मकांड और बाह्य आडम्बर के विरूद्ध ईश्वर भक्ति का सच्चा और सरल मार्ग दिखाया। तभी तो लोगों ने खुसरों को अपने दिल का बेताज बादशाह बना लिया।
0 डा. अली अब्बास ’’उम्मीद‘‘