सितारे नूर देकर रात से कुछ भी नहीं लेते,
शबे तारीक को करके मुनव्वर डूब जाते हैं।
यह शेर उस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के लिये है, जिसने अपने देश के समाज के नाम अपना संपूर्ण जीवन कर दिया था, उसने अपने देश की स्वतंत्रता के लिये अपनी अंतिम सांस तक प्रयास किए और अपने देश से स्नेह, देशप्रेम रखने वाले इस महान व्यक्तित्व ने अपना नाम अपने बलिदान के कारण इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखवा लिया, वह महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे प्रो. मौलाना बरकत उल्लाह भोपाल, मौलाना एक ऐसे ही रोशन सितारे थे, जिन्होंने अपने देश की आजादी के लिये नि:स्वार्थ भाव से अपना सर्वस्व देश पर न्यौछावर कर दिया और जो अपने देश की आजादी का सपना लेकर हिन्दुस्तान से हजारों मील दूर कैलिफोर्निया शहर में मौत के आगोश में डूब गए।
मौलाना का जन्म 7 जुलाई 1858 में भोपाल के प्रसिद्ध तब्बा मियां के महल इतवारा के पास हुआ था, मौलाना के माता-पिता की आथिज़्क स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह उनके लालन-पालन के साथ उनको शिक्षा दिला सकें, लेकिन मौलाना ने अपने शौक के बल पर उच्च शिक्षा प्राप्त की, वह उर्दू, फारसी और अरबी के अलावा तुर्की, जर्मनी, रूसी और जापानी भाषाओं में पारंगत थे, मौलाना ने होश संभालते ही अंगे्रेजी साम्राज्यवाद के विरूद्ध देश को आजाद कराने के स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया और अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक देश को आजादी दिलाने के लिये संघर्षरत रहे।
सन् 1913 में मौलाना बरकत उल्लाह भोपाली ने राजा महेंद्र प्रताप के साथ मिलकर एक क्रांतिकारी संगठन Óगदर पार्टी’की स्थापना की, इस पार्टी के द्वारा उन्होंने विदेशी सरकारों से हिन्दुस्तान को आजाद कराने के लिए समर्थन प्राप्त करने में जी-जान लगा दी, 1914 में अंग्रेजी सरकार को गैर कानूनी और उसके सदस्यों को गद्दार घोषित करके देश निकाला दे दिया, मौलाना इससे पहले जब 1910 में जमज़्नी से काबुल पहुंचे तो वहां उनकी भेंट मौलाना मेहमूद उल हसन के आंदोलन के प्रतिनिधि मौलाना मुजाहिद अब्दुल्लाह सिंधी से हुई मौलाना बरकत उल्लाह भोपाली मौलाना सिंधी के विचारों में उनकी योजनाओं से अत्यधिक प्रभावित हुए और फिर मौलाना ने 1 दिसम्बर 1915 में अफगानिस्तान में भारत की प्रथम निर्वासित सरकाार बनाने की घोषणा कर दी, इस सरकार का नाम गवर्मेंट ऑफ इन्डिया रखा गया। इस निर्वासित सरकार के सर्वप्रथम राष्ट्रपति क्रांतिकारी राजा महेंद्र प्रताप सिंह बनाए गए, इस सरकार के प्रथम प्रधानमंत्री प्रो. मौलाना बरकत उल्लाह भोपाली चुने गए, मौलाना अब्दुल्लाह सिंधी को गृह मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया। इसके अलावा सर्वश्री, अ.बारी, मौलवी मो. बशीर, डॉ.सिंह, गजराज सिंह, जफर हसन, अल्लाह नवाज खां, चिपकाराम पिल्लई, खुदा बख्श, रहमत अली ज़करिया, मोहम्मद अली, अ. अज़ीज़ आदि उनके क्रांतिकारी साथी इस अंतरिम सरकार में शामिल थे।
मौलाना और उनके साथियों ने अंग्रेज़ों पर हमला करने का अफगानिस्तान में मोर्चा संभाल लिया, पंजाब में गदर पार्टाी ने एक बड़े फसाद को तैयारियां शुरू कर दी थीं, बर्मा (म्यांमार) में इंकलाब का रास्ता खोल दिया गया था, यह पहला अवसर था, जब भारत की आजादी को लड़ाई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई थीं, दूसरी यह कि इस लड़ाई में गहरी सूझ-बूझ के साथ संगठन जन्मा और युद्ध को मोर्चाबंदी की तरह राजनैतिक लड़ाई की मोर्चाबंदी की बात उभर कर सामने आई, तीसरी यह कि भारत के बाहर रहने वाले भारतीयों के इस जोश ने भारत के शिक्षित वर्ग को भी प्रभावित किया जो अभी तक अंग्रेजों की रोटियां तोड़ता था, मौलाना बरकत उल्ला को यह अंतरिम सरकार सन् 1915 से 1920 तक चली, परंतु इस छोटे से अंतराल में मौलाना ने अंग्रेजों की नींदें हराम कर दी थीं, इसके बाद मौलाना ने इंडिया होमरूल सोसायटी बनाकर युवाओं को आज़ादी की इस जंग में भाग लेने का आव्हान किया। उन्होंने कहा-Óतुम्हारी तनख्वाह मौत है, इनाम शहादत है, पेंशन आजादी है और मैदाने जंग हिन्दुस्तान हैं, उन्होंने कहा- ÓÓउठो और आजादी के लिये अपने वतन के लिये अपे प्राण न्यौछावर कर दो”।
ृ मौलाना ने विदेशी सरकारों का समर्थन प्राप्त करने के लिये 1907 से 1914 बर्लिन, 1915 काबुल, 1919 और 1922 मास्को, बर्लिन 1922 और 1927 में ब्रुसल्स की यात्राएं कीं और भारत की आजादी के लिये संघर्ष किया, वह प्रथम भारतीय थे, जिन्होंने लेनिन से मिलकर बात की थी। मौलाना भारत के बाहर अपने व्यक्तित्व के कारण हर जगह बना लेते थे और हर स्थान पर शासन व जनता से संपर्क स्थापित करके अपने उद्देश्य की प्राप्ति का प्रयास करते थे, जापान सरकार ने मौलाना के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें प्रोफेसर की उपाधि प्रदान की थी, अपने जीवन के 43 वर्ष विदेशों में गुजारने के बाद अंतिम दिनों में जब उनके मित्रों ने उन्हें भारत लौट जाने को कहा तो मौलाना कहते हैं कि Óनहीं कभी नहीं, गुलाम वतन में मरने से बेहतर है कि मैं किसी आज़ाद गैर मुल्क में मरूं और आखिर 27 सितम्बर 1927 की रात को वह अपने प्यारे देश से दूर केलिफोर्निया शहर में मौत के आगोश में मिट्टी के नीचे सो गये, हमेशा के लिये आंखें बंद करने से पहले पूरे होशोहवास में मौलाना ने कहा था-Óतमाम जिन्दगी में पूरी ईमानदारी के साथ अपने वतन की आजादी के लिये संघर्ष करता रहा, यह मेरी जबर्दस्त खुशकिस्मती थी, मेरी यह नाचीज जिन्दगी मेरे वतन के काम आई। आज इस जिन्दगी से रूखसत लेते हुए जहां मुझे यह अफसोस है कि जिन्दगी में मेरी कोशिशें कामयाब न हो सकीं, वहीं मुझे इस बात का भी इत्मिनान है कि मेरे मुल्क को आजाद कराने के लिये लाखों आदमी आज आगे बढ़ गए हैं और जो बच्चे है।, जांबाज़ हैं, बहादुर हैं, मैं इत्मिनान के साथ अपने प्यारे वतन की किस्मत उनके हाथों में सौंप रहा हूं। – रईसा मलिक