अख्तर-उल-ईमान

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अख्तर उल ईमान उर्दू नज्म के एक प्रसिद्ध शायर है। उनका जन्म किला नजीबाबाद जिला- बिजनौर में 12 नवम्बर 1915 को हुआ। प्रारंभिक शिक्षा के उपरांत उन्होंने कुछ समय तक दिल्ली कालेज में शिक्षा प्राप्त की। दिल्ली विश्विद्यालय से उन्होंने बी.ए. किया। आल इंडिया रेडियो में रहे। इसके बाद वो बम्बई चले आए जहां फिल्मों के लिए लिखने लगे।
अब तक उनकी नज्मों के छह संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। गर्दाब (1943), तारीक सैय्यारा (1946), आबे-जू (1959), यादें (1961) बिन्ते लम्हात (1996), नया आहाता (1977)। इनकी कुल्लियात सरो जामों के नाम से 1984 में छपीं। इनके चैथे काव्य संग्रह यादें पर 1962 में साहित्य अकादमी एवार्ड दिया गया। विभिन्न प्रादेशिक अकादमियों द्वारा भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है।
उनकी नज्मों में एक फलसफियाना कैफियत मिलती है। इनका अंदाजे फिक्र और तर्जे बयान राशिद और मेराजी दोनो से भिन्न है। नेकी और बदी की कशमकश, वक्त का नगुजीर होना, ख्वाब और हकीकत की वास्तविकता, इंसानी रिश्तों की धूपछांव आदि इनके प्रिय विषय रहे हैं। उन्होंने अपनी शायरी में आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। अख्तरउल ईमान ने बहुत से नौजवान शायरों को मुतास्सिर (प्रभावित) किया और अपने समय की शायरी पर अपना असर छोडा है।
अख्तर-उल-ईमान की नज्म (मौत)
कौन आवारा हवाओं का सुबुकसार हुजूम
आह, अहसास की जंजीरें-गिरां टूट गई
और सरमाया-ए-अनफास परीशां न रहा
मेरे सीने में उलझने लगी फरियाद मेरी
जंग-आलूद मुहब्बत को तुझे सौंप दिया।
खटखटाता है कोई देर से दरवाजे को
टिमटिमाता है मेरे साथ निगाहों का चिराग।
इस कदर होश से बेगाना हुए जाते हो
तुम चली जाओ ये दीवार पे क्या रक्सां
मेरे अजदाद की अटकी हुई रूहें तो नहीं
फिर निगाहों में उमड आया है तारीक धुंआ।
टिमटिमाता है मेरे साथ ये मासूम चिराग
आज मिलता नहीं अफसोस पतंगों का निशां
मेरे सीने में उलझने लगी फरियाद मेरी
टूट कर रह गई अनफास की जंजीरें गिरां।
तोड डालेगा ये कम्बख्त मकां की दीवार,
और मैं दब के इसी ढेर में रह जाउंगा।
जी उलझता है मेरी जान पे बन जाएगी,
थम गया आज शिकारी की बयां टूट गई।
लौट आया हूॅं बहुत दूर से खाली हाथों,
आज उम्मीद का दिन बीत गया शाम हुई।
जिन्दगी आह ये मौहूम तमन्ना का मजार,
मैंने चाहा भी मगर तुमसे मुहब्बत न हुई।
कह चुके अब तो खुदा के लिए खामोश रहो,
एक मौहूम सी ख्वाहिश थी फलक छूने की।
जंग आलूद मुहब्बत को तुझे सौंप दिया,
सर्द हाथों से मेरी जान मेरे होंठ न सी।
गर कभी लौट के आ जाए वही सांवली रात,
खुश्क आंखों में झलक आए न बेसूद नमीं।
जमजमा उफ ये कलाका ये मुसलसल दस्तक,
बे अमां रात कभी खत्म भी होगी कि नहीं।
उफ ये तारीक फजाओं का अलमनाद सबूत,
मेरे सीने में दबी जाती है आवाज मेरी।
तीरगी उफ ये धुंधलका मेरे नजदीक न आ,
ये मरे हाथ पे जलती हुई क्या चीज गिरी।
आज इस अश्के नदामत का कोई मोल नहीं,
आह एहसास की जंजीरे गिरां टूट गई।
और ये मेरी मुहब्बत भी तुझे जो है अजीज,
कल ये माजी के घने बोझ में दब जाएगी।
कौन आया है जरा एक नजर देख तो लो,
क्या खबर वक्त दबे पांव चला आया हो।
जलजला उफ ये धमाका ये मुसलसल दस्तक,
खटखटाता है कोई देर से दरवाजे को।
उफ ये तारीक फजाआंे का अलमनाक सबूत
कौन आया है जरा एक नजर देख तो लो।
तोड डालेगा ये कमबख्त मकां की दीवार
और मैं दब के इसी ढेर में रह जाऊंगा।