(पहली किश्त)
मेरे आत्म स्वरूप प्रिय महानुभाव,
आप सब जानते हैं कि हमें आपको जो मानव शरीर मिला है वह उस अनन्त की कृपा है किसी पुण्य या कर्म का पल नहीं है। बल्कि
‘कवहुंक करि करुना नरदेही। देव ईस विनु हेतु सनेही।।Ó (मानस)
उस प्रभु की करूणा कृपा से मिला है तथा बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रन्हि गावा।।,
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सवारा।। (मानस)
माने यह मौका चूकने लायक नहीं है, बार-बार यह शरीर नहीं मिलता पशु पक्षी आदि तो प्रकृति बस हैं। मनुष्य शरीर सुर दुर्लभ है क्योंकि देवता के भी भोग शरीर है कर्म का सामर्थ नहीं है भोग से पुण्य क्षीण होता है तथा पुण्य कमाया नहीं जा सकता है। मनुष्य देह से ही पुण्य पैदा कर सकता है इसलिये साधन धाम कहा। नित्य नये आविष्कार मनुष्य ही कर सकता है। इसी देह से साधन चतुष्टय सम्पन्न करके ब्रह्म जिज्ञासा से मोक्ष भी सम्भव है। एक वो लोक है जो इन्द्रियों से अनुभव में आता है। और एक परलोक है जो इन्द्रियों से अनुभव में नहीं आता है, भीतर है, अध्यात्म है, अपना आया है उसको संवारना अपने हृदय को संवारना है।
रक्षत रक्षत करेषा नाममि काशं हृदयं।
यस्मिनु सुरक्षते सर्व सुरक्षितं स्थात्।।
अर्थात् बचाओ भाई बचाओ, रक्षा करो अपने हृदय की, यह खजाने का खजाना है। अगर सुरक्षित रहा तो सारी दुनिया सुरक्षित रहेगी। तो अपने हृदय की रक्षा करो। इसलिये परलोक का संवारना मनुष्य योनि के हिस्से में है। साधन युक्त जीवन ही मानव जीवन है। इस दृष्टि से हम सब साधक हैं और जो परिस्थिति हमें प्राप्त है वह सब साधन सामग्री है, इस साधन सामग्री का उपयोग करना है।
इस साधन के मुख्य दो अंग हैं, एक तो वह साधन कि जिससे अपना कल्याण हो और दूसरा वह जिससे सुन्दर समाज का निर्माण हो। अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण यह मानव जीवन की मांग है। मानव जीवन एक ऐसा महत्वपूर्ण जीवन है जिसको पाकर प्राणी सुगमता पूर्वक अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है कारण कि मानव जीवन में ऐसी कोई प्रवृत्ति अवस्था एवं परिस्थिति नहीं है जो साधन रूप न हो अर्थात् यह जीवन साधन सामग्री से परिपूर्ण है।
अब यह प्रश्र होता है कि अपने कल्याण का अर्थ क्या है और सुन्दर समाज के निर्माण का अर्थ क्या है। अपने कल्याण का अर्थ है कि अपनी प्रसन्नता के लिये अपने से भिन्न की आवश्यकता न हो, और सुन्दर समाज के निर्माण का अर्थ है कि जिस समाज में एक दूसरे के अधिकारों का अपहरण न होता हो। कुछ लोग सुन्दर समाज का अर्थ यह मानते हैं कि जहां सुन्दर-सुन्दर मकानों का निर्माण सुन्दर-सुन्दर सड़कों का निर्माण व सुन्दर सुन्दर बगीचों का निर्माण हो, किन्तु यह सब बाहरी चीजें हैं। वास्तव में सुन्दर समाज की कसौटी यह है कि जिस समाज में किसी के अधिकारों का अपहरण न होता हो। अर्थात् जितने माने हुये सम्बंध है उनमें एक दूसरे के अधिकार सुरक्षित हो तथा आकृति रूप रंग, गुण जाति, कर्म आदि की भिन्नता होते हुये भी प्रीति की एकता हो। रामचरित मानस में सुन्दर समाज का वर्णन करते हुये कहा गया है कि-
वयरू न कर वाहू सन कोई। रामप्रताप विषमता खोई।।
सब नरकरहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।
अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुन्दर सब विसज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अवुध न लच्छन हीना।।
एक नारिवृत नर रत झारी। ते मन वच क्रम पति हित कारी।।
इसका नाम सुन्दर समाज है। वास्तव में सुन्दर समाज की कसौटी यह है कि जिस समाज में किसी के अधिकारों का अपहरण न होता तो तथा सब में प्रीति की एकता हो।
कुछ लोगों का कहना है कि सर्वांश में समानता ही सुन्दर समाज का प्रतीक है। इस पर आप विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि समानता का अर्थ यह नहीं हो सकता कि हमारी सबकी परिस्थितियों एक हो जायें अथवा अवस्था एक हो जाये। इस पर गम्भीरता से विचार करें, व सोचिये यदि समानता का अर्थ परिस्थिातियों की एकता हो तो समान परिस्थितियों में गति स्वत: रूक जाती है। जैसे मान लो व कल्पना करो कि आंख और पैर में समानता हो जाये, नेत्र व पैर दोनों देखने लगें अथवा चलने लगें तो गति नहीं होगी। लेकिन नेत्रों में देखने की योग्यता है और पैरों में चलने की ‘दोनों में कर्म,गुण और आकृति की भिन्नता होते हुए भी प्रीति की एकता है तभी गति सुचारू रूप से होती है। इस दृष्टिकोण से मानना होगा कि परिस्थिति तथा अवस्था की समानता द्वारा समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। हम तो आज कल समानता का ये अर्थ करने लगे है कि हम सब की परिस्थितियां एक हो जावें। परन्तु यह मानवता और प्रकृति के विरूद्ध है।
अब विचार करना है कि समाज कैसे बनता है तो कहना होगा कि जहां दो आवश्यकताएं प्रचलित होती हैं वहीं समाज बनता है केवल एक आवश्यकता से समाज नहीं बनता। जैसे जहां पुरूष हों महिलायें नहीं अथवा महिलायं हों, पुरूष न हो, विद्वान हो विज्ञानी न हों, विद्यार्थी हों, विद्वान न हो, इसी प्रकार जहां महाजन हों मजदूर न हों, अथवा मजदूर हों महाजन न हों, वहां समाज नहीं बन सकता है। केवल एक वर्ग से समाज नहीं बनता है बल्कि जहां एक वर्ग से अनेक वर्ग एकत्रित होते हैं वहीं समाज बनता है। अर्थात् पुरूष व महिलायें दोनों हों, महाजन व मजदूर दोनों हों तथा विद्वान व विद्यार्थी दोनों हों आदि तब समाज बनता है अर्थात् जहां एक से अनेक आवश्यकतायें मिलकर एक होती हैं वहां समाज बनता है। जब तक किसी एक की आवश्यकता किसी दूसरे की आवश्यकता की पूरक न हो तब तक समाज की स्थापना ही सिद्ध नहीं होती। आज हम स्वरूप से एकता करने की जो कल्पना करते हैं वह विवेक की दृष्टि से अपने को धोखा देना है अथवा भोली भाली जनता को बहकाना है। क्रमश: